Book Title: Sangit Samaysar ke Sandarbh me Gayak Gan Dosh Vivechan
Author(s): Vachaspati Moudgalya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
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उपर्युक्त क्रम से वणित दोषों के अतिरिक्त आचार्य पार्श्वदेव द्वारा पृथक् रूप में उद्भावित "उष्ट्रको” नामक दोष का विवरण
उष्ट्रकी :- गायन समय में उष्ट्र की तरह बैठा हुआ गायक' । उष्ट्र बैठते समय अपनी चारों टांगों को उल्टा मोड़ कर बैठता है। मनुष्य के लिये ऐसे बैठना न केवल अस्वास्थ्यकर है अपितु कुछ लोग इसे अपशकुन भी मानते हैं ।
निम्न है
आचार्य पार्श्वदेव के अनुसार सर्वगुणयुक्त गायक उत्तम, द्वित्र गुणों से हीन मध्यम एवं चार या पांच गुणों से हीन अधम कहलाता है । यहां संगीतरत्नाकरकारादि से पार्श्वदेव का मत भिन्न है । अधम गायक की कल्पना करते हुए संगीतरत्नाकर आदि ग्रन्थों में दोषयुक्त गायक को अधम कहा गया है चाहे अन्यथा यह सर्वगुणसम्पन्न ही क्यों न हो। इस विषय में तत्त्वदृष्ट्या विचार करने पर उन दोनों मतों में एक मूलभूत अन्तर दृष्टिगोचर होता है। जहां संगीतरत्नाकरका रादि के द्वारा एक आदर्शस्थिति की कल्पना की गई है वहाँ संगीतसमयसार ने उस आदर्श को व्यवहार का स्पर्श देते हुए गुणों के आधिक्यन्यौन्त्य के द्वारा ही उत्तममध्यमाधम गायकों की 'परिकल्पना कर दी है ।' अर्थात् यह आवश्यक नहीं कि दोषयुक्त गायक ही अधम होगा ।
जैसा कि प्रस्तुत लेख में पहले कहा जा चुका है कि प्रस्तुत संदर्भ में उपर्युक्त गुण-दोषों को दृष्टिगत रखते हुए गायन क्षमता के अनुसार गायकों का यह वर्गीकरण ही आचार्य पार्श्वदेव की स्वयं में एक अनूठी देन है। इस गायन क्षमता के अनुसार ही एक एवं वृन्दगायकों में से एकल गायक को प्रशस्यतम, यमल को प्रशस्यतर एवं वृन्दगायक को प्रशस्य मात्र ही माना गया है ।" इस गायन क्षमता के आधार पर ही पूर्वोक्त उत्तममध्यमाधम श्रेणी के गायकों का पुनः तीन-तीन भागों में विभाजन किया गया है। वह विभाजन विवरण पूर्वक निम्न रूप में प्रस्तुत है
(१) उत्तमोत्तम (२) उत्तममध्यम (३) उत्तमाधम (४) मध्यमोत्तम (2) मध्यमध्यम (६) मध्यमाधम, (७) अधमोत्तम, (८) अधममध्यम, ( ९ ) अधमाधम ।
(१) उत्तमोत्तम - शुद्ध तथा छायाला द्विविध गीत को आलप्तिपूर्वक मन्द्रमध्यतार इन तीनों स्वरसप्तकस्थानों में गा सक
वाला,
(२) उत्तममध्यम — उपर्युक्त प्रकारक गीतों को किन्हीं दो स्वरस्थानों में ही आलप्तिपूर्वक गा सकने वाला, (३) उत्तमाधम — इन्हीं गीतों को आलप्तिपूर्वक केवल एक ही स्वरस्थान में गाने की क्षमता वाला, (४) मध्यमोत्तम शुद्ध रागों के गीतों को आवतिपूर्वक तीनों स्वरस्थानों में गा सकने वाला, (५) मध्यमध्यम शुद्ध रामों के गीतों को आसप्तिपूर्वक किन्हीं दो ही स्वरस्थानों में या सकने वाला, (६) मध्यमाधम- शुद्धरागीय गीत को आलप्तिपूर्वक किसी एक ही स्वर स्थान में गा सकने वाला, (७) अधमोसम - छायालग प्रकार के रांग में सम्यक् आलप्तिपूर्वक गीत का तीनों स्वरस्थानों में गायक, (८) अधममध्यम - इसी प्रकार के गीत को मात्र दो स्वरस्थानों में गा सकने वाला,
(६) अधमाधम - इसी प्रकार के गीत को केवल एक ही स्वरस्थान में गा सकने वाला ।"
१.
संगीतसमयसार ६८४ २. वही, ६. ६३-६५
३. संगीतरत्नाकर, ३.१६.
४. संगीतसमयसार, ६.६०
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५. वही, ६.८६.
६. वही, ६. ६५.
७. वही, ६. ६५ - १०१.
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