Book Title: Sanatkumar Charitra
Author(s): Vardhmansuri, Hiralal Hansraj
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 14
________________ सान्वय भाषान्तर ॥१४॥ सनत्कुमार स्वीथीज संतोष राखवो. ॥ ४२ ॥ चरित्रं तच्चन्द्र चन्द्रचारूणां यशसां जलदोपमम् । परनारीपरीरम्भारम्भ निर्दम्भधीस्त्यज ॥४३॥ ____ अन्वयः-ततः (हे) चंद्र ! निर्दभधीः चंद्र चारूणां यशसा जलद उपमं पर नारी परिरंभ आरंभं त्यज ? ॥ ४३ ॥ ॥१४॥ हा अर्थ:-माटे हे चंद्र ! निष्कपट बुद्धि धारण करीने. चंद्रसरखा उज्ज्वल यशने आच्छादित करवाने मेघसरखो, एवो परस्त्रीना आलिंगनमाटेनो प्रयास तुं छोडी दे॥ ४३ ॥ समं च रत्नचूडेन चुडारत्न खचारिणाम् । मा स्म पापघटाजन्मवत्सरं मत्सरं कृथाः॥४४॥ ___ अन्वयः-च (हे) खचारिणां चूडारत्न ! रत्नचूडेन समं पाप घटा जन्म वत्सरं मत्सरं मा कृथाः स्म. ॥ ४४ ॥ | अर्थ:-वळी विद्याधरोमा शिरोमणि एवा हे चंद्र ! आ रलचूडनी साथे, पापोना समूहोने उत्पन्न करवामां वर्षसरखो द्वेष (पण) न कर ? ॥४४॥ रत्नचूड त्वयाप्येतच्चेतनीयं यतोऽभवत । प्रत्यक्षं वां परवधूचौर्यमात्सर्ययोः फलम् ॥१५॥ अन्वयः-(हे) रत्नचूड ! त्वया अपि एतत् चेतनीय, यतः परवधू चौर्य मात्सर्ययोः फलं वा प्रत्यक्षं अभवत् ॥ ४५ ॥ 18] अर्थ:-हे रत्नचूड ! तारे पण आधी चेतवानु छ, केमके परस्त्रीना हरणनुं तथा द्वेषनुं फळ तमोए आ प्रत्यक्ष अनुभव्युं छे. ॥४५॥ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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