Book Title: Samlekhana Swarup aur Mahattva
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 4
________________ २३० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ......................................................................... पर आयुकर्म क्षीण न हो और वह सबल हो तो अनशन दीर्घकाल तक चलता है, जैसे दीपक में तेल और बाती का एक साथ ही क्षय होने से दीपक बुझता है वैसे ही आयुष्य कर्म और देह एक साथ क्षय होने से अनशन पूर्ण होती है। आचार्य समन्तभद्र' ने लिखा है कि प्रतीकाररहित असाध्य दशा को प्राप्त हुए उपसर्ग, दुभिक्ष, जरा, व रुग्ण स्थिति में या अन्य किसी कारण के उपस्थित होने पर साधक संलेखना करता है। मूलाराधना में संलेखना के अधिकारी का वर्णन करते हुए सात मुख्य कारण दिये हैं १. दुश्चिकित्स्य व्याधि-संयम को परित्याग किये बिना जिस व्याधि का प्रतीकार करना सम्भव नहीं है, ऐसी स्थिति समुत्पन्न होने पर। २. वृद्धावस्था, जो श्रमण जीवन की साधना करने में बाधक हो । ३. मानव, देव और तिर्यच सम्बन्धी कटिन उपसर्ग उपस्थित होने पर । ४. चारित्र विनाश के लिए अनुकूल उपसर्ग उपस्थित किये जाते हों। ५. भयंकर दुष्काल में शुद्ध भिक्षा प्राप्त होना कठिन हो रहा हो। ६. भयंकर अटवी में दिग्विमूढ़ होकर पथ-भ्रष्ट हो जाये। ७. देखने की शक्ति व श्रवण शक्ति और पैर आदि से चलने की शक्ति क्षीण हो जाय । इस प्रकार के अन्य कारण भी उपस्थित हो जाने पर साधक अनशन का अधिकारी होता है। जैन धर्म में जिस प्रकार "संलेखना" का उल्लेख हुआ है उससे मिलता-जुलता “प्रायोपवेशन" का एक महत्त्वपूर्ण विधान वैदिक परम्परा में प्राप्त होता है। साथ ही प्रायोपवेश', 'प्रायोपगमन', 'प्रायोपवशानका' आदि शब्द भी प्राप्त होते हैं, जिनका अर्थ है वह अनशन व्रत जो प्राण त्यागने के लिए किया जाता है। बी० एस० आप्टे ने अपने शब्द कोश में प्रायोपवेशन का अर्थ बताते हुए अन्न-जल त्याग की स्थिति का चित्रण किया है पर उस समय साधक की मानसिक स्थिति क्या होती है उसका कुछ भी वर्णन नहीं है । संलेखना में केवल अन्न-जल का त्याग ही पर्याप्त नहीं है। उसमें उसके साथ ही विवेक, संयम, शुभ संकल्प आदि सद्गुण आवश्यक हैं। 'प्रायोपवेशन' और 'पादपोपगमन' ये दोनों शब्द एक सदृश प्रतीत होते हैं पर दोनों में गहरा अन्तर है। एक का सीधा सम्बन्ध शरीर से है तो दूसरे का सम्बन्ध मानसिक विशुद्धि से है । मानसिक विशुद्धि के बिना शारीरिक स्थिरता स्वाभाविक रूप से नहीं आ सकती। पुराणों में प्रायोपवेशन की विधि का उल्लेख है। मानव से जब किसी प्रकार का कोई महान पाप कृत्य हो जाय या दुश्चिकित्स्य महारोग से उत्पीड़ित होने से देह के विनाश का समय उपस्थित हो जाय, तब ब्रह्मत्व की उपलब्धि के लिए या स्वर्ग आदि के लिए प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश करे अथवा अनशन से देह का परित्याग करे। प्रस्तुत अधिकार सभी वर्ण वालों के लिए है । इस विधान में पुरुष और नारी का भेद नहीं है। -समीचीन धर्मशास्त्र ६१ पृ० १६० उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय अनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ मूलाराधना २१७१-७४ संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ, पृ० ११३० समासक्ती भवेद्यस्तु पातकैर्महदादिभिः । दुश्चिकित्स्यमहारोगे: पीड़ितो व भवेत्तु यः ।। स्वयं देह विनाशस्य काले प्राप्ते महामतिः । आब्रह्माणं वा स्वर्गादि महापल जिगीषया । प्रविशेज्ज्वलनं दीप्तं कुर्यादनशनं तथा । एनेषामधिकारो अस्ति नान्येषां सर्वजन्तुषु ।। नराणां-नारीणां सर्ववर्णेषु सर्वदा ॥ --रघुवंश के १४ श्लोक पर मल्लिनाथ-टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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