Book Title: Samlekhana Swarup aur Mahattva Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 6
________________ __२३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ........ ...... .... .. ............ ...... .............. .... ...... ...... संलेखना की विधि संलेखना का उत्कृष्ट काल १२ वर्ष का माना गया है। मध्यम काल एक वर्ष का है और जघन्य काल छ: महीने का' | 'प्रवचनसारोद्धार' में उत्कृष्ट संलेखना का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए बताया है कि प्रथम चार वर्षों में चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, आदि तप की उत्कृष्ट साधना करता रहे और पारणे में शुद्ध तथा योग्य आहार ग्रहण करे। अगले चार वर्ष में उक्त विधि से विविध प्रकार से विचित्र तप करता रहे और पारणे में रस नियंढ विगय का परित्याग कर दे। इस तरह आठ वर्ष तक तपःसाधना करता रहे । नौवे और दसवें वर्ष में उपवास करे और पारणे में आयंबिल तप की साधना करे । ग्यारहवें वर्ष के प्रथम छ: मास में सिर्फ चतुर्थ भक्त, छट्ठ भक्त तप के साथ तप करे और पारणे में आयंबिल तप की साधना करे और आय दिल में भी उनोदरी तप करे। अगले छ: माह में उपवास, छटठ भक्त, अष्टम भक्त, दशम भक्त, प्रभृति विविध तप करे। किन्तु पारणे में आयंबिल तप करना आवश्यक है। इन छ: माह में आयंबिल तप में ऊनोदरी तप करने का विधान नहीं है ।२ संलेखना के बारहवें वर्ष के सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यों के विभिन्न मत रहे हैं। आचार्य जिनामा महत्तर का अभिमत है कि बारहवें वर्ष में निरन्तर उष्ण जल के आगर के साथ हीयमान आयंबिल तप करे। जिस आयंबिल में अंतिम क्षण द्वितीय आयंबिल के आदि क्षण से मिल जाता है वह कोडीसहियं आयंबिल कहलाता है। ही पमान से तात्पर्य है निरन्तर भोजन और पानी की मात्रा न्यून करते जाना । वर्ष के अन्त में उस स्थिति पर पहुँच जाये कि एक दाना अन्न और एक बूंद पानी ग्रहण किया जाय। प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में भी प्रस्तत क्रम काही प्रतिपादन किया गया है। बारहवें वर्ष में भोजन करते हुए प्रति-दिन एक-एक कवल कम करना चाहिए । एक-एक कवल कम करतेकरते जब एक कवल आहार आ जाय तब एक-एक दाना कम करते हुए अंतिम चरण में एक दाने को ही ग्रहण करे।४ इस प्रकार अनशन की स्थिति पहुंचने पर साधक फिर पादपोपगमन अथवा "इंगिनीमरण" अनशन व्रत ग्रहण कर समाधिमरण को प्राप्त होवे । उत्तराध्ययन वृत्ति के अनुसार संलेखना का क्रम इस प्रकार है। प्रथम चार वर्ष में विकृति परित्याग अथवा आयंबिल, द्वितीय चार वर्ष में विचित्र तप उपवास, छठ्ठ भक्त आदि और पारणे में यथेष्ट भोजन ग्रहण कर सकता है। नोंवें और दसवें वर्ष में एकान्तर उपवास और पारणे में आयंबिल किया जाता है । ग्यारहवें वर्ष के प्रथम १. सा जघन्या मध्यमा उत्कृष्टा च। -व्यवहारभाष्य, २०३ २. चत्तारि विचिन्ताई विगई, निज्जूहियाई चत्तारि। संवच्छरे य दोन्नि एगंतरियं च आयाम ॥९८२॥ नाई विगिद्धो य तनो छम्मास परिमिअंच आयामं । अवरे विय छम्मासे होई विगिटं तवो कम्मे ।।३।। --प्रवचनसारोद्धार ३. दुवालसयं वरिसं निरन्तर हायमाण उसिणोदराण आयंबिल करेइ त कोडीसहियं भवइ जणेय विलस्स कोडी कोडीए मिलाई॥ ___--निशीथ चूणि ४. द्वादशे वर्षे भोजनं कुर्वत, प्रतिदिनमेकैककवल हान्यान्तावदूनोदरतां करोति यावदेक कवलमाहारयति । -प्रवचनसारोद्धारवृत्ति ५. उत्तराध्ययन ६-२५-२५५. ६. द्वितीय वर्ष चतुष्के । "विचित्रं तु” इति विचित्रमेव चतुर्थषष्ठाटमादिरूपं तपश्चरेत,......."उगम विसुद्ध" सब्व कप्पणिज्जं पारेति । बृहद्वृत्ति पत्र ७०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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