Book Title: Samlekhana Swarup aur Mahattva Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 7
________________ संलेखना : स्वरूप और महत्त्व २३३ ........................................................................... छः माह में अष्टम, दशम, द्वादश भक्त आदि की तपस्या की जाती है जिसे विकृष्ट कहा है।' ग्यारहवें वर्ष में पारणे के दिन आयंबिल तप किया जाता है। प्रथम छ: माह में आयंबिल में ऊनोदरी तप करते हैं और द्वितीय छ: माह में आयंबिल के समय भर-पेट आहार ग्रहण करते हैं। बारहवें वर्ष में कोटि सहित आयंबिल अर्थात् निरन्तर आयंबिल करते हैं या प्रथम दिन आयंबिल और दूसरे दिन अन्य कोई तप करते हैं, पुनः तीसरे दिन आयंबिल करते हैं। बारहवें वर्ष के अन्त में अर्ध मासिक या मासिक अनशन भक्त परिज्ञा आदि किया जाता है । जिनदासगणी क्षमाश्रमण के अभिमतानुसार सलेखना के बारहवें वर्ष में छोटे-छोटे आहार की मात्रा न्यून की जाती है। जिससे आहार और आयु एक साथ पूर्ण हो सकें। उस वर्ष अन्तिम चार महीनों में मुख-यन्त्र विसंवादी न हो अर्थात् नमस्कार महामन्त्र आदि के जप करने में असमर्थ न हो जाय, एतदर्थ कुछ समय के लिए मुंह में तेल भरकर रखा जाता है। दिगम्बर आचार्य शिवकोटि ने अनशन, ऊनोदरी भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता इन छः बाह्य तपों को बाह्य संलेखना का साधन माना है। सलेखना का दूसरा एक क्रम यह है कि प्रथम दिन उपवास द्वितीय दिन वृत्ति परिसंख्यान तप किया जाये। बारह प्रकार की जो भिक्षु प्रतिमाएँ हैं उन्हें भी संलेखना का साधन माना गया है। काय-संलेखना के इन विविध विकल्पों में आयंबिल तप उत्कृष्ट साधन है। संलेखना करने वाला साधक छट्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश आदि विविध तप करके पारणे में बहुत ही परिमित आहार ग्रहण करे, या तो पारणे में आयंबिल करे । कांजी का आहार ग्रहण करे । १० मूलाराधना में भक्त परिज्ञा का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष का माना है। उनकी दृष्टि से प्रथम चार वर्षों में १. विकृष्ट-अष्टम-दशम-द्वादशादिकं तपःकर्म भवति---- —प्रवचनसारोद्धार वृत्तिपत्र २५४ २. पारणके तु परिमितं किचिदूनोदरता सम्पन्नमाचाम्लं करोति । —वही०, पत्र २५४ ३. पारणके तु मा शीघ्रमेव मरणं यासिषमिति कृत्वा परिपूर्णपाण्या आचाम्लं करोति, न पुनरूनोदरयेति ।। - वही०, पत्र २५४ ४. कोटयो- अग्रे प्रत्याख्यानाद्यन्तकोणरूपे साहिते-मिलिते यस्मिस्तत्कोटिसहितं किमुक्तं भवति । विवक्षित दिने प्रात राचाम्लं प्रत्यास्यान तच्चाहोरात्रं प्रतिपाल्यं, पुनद्वितीयेऽह्नि आचाम्लमेव प्रत्याचष्टे, ततो द्वितीयस्थारम्भ कोटिशदस्य तु पर्यन्त-कोटि रूपे आपि मिलिते भवत इति तत्कोटि सहितमुच्यते, अन्येत्वाहुः अचाम्लमेकस्मित् दिने कृत्वा द्वितीय दिने च तपोदन्तरमनुष्ठाय पुनस्तृतीयदिन आचाम्लमेव कुर्वत कोटि सहितमुच्यते । --बृहद् वृत्ति पत्र ७०६ ५. "संवत्सरे" वर्षे प्रक्रमाद द्वादशे "मुनि:साधुः" मास, त्ति सुत्रत्वान्मासं भूतो मासिकरते नैवमाद्ध मासिकेन आहारे न्ति उपलक्षणत्वादाहारत्यागेन, पाठान्तरताच क्षणेन तपः इति प्रस्तावद भक्तपरिज्ञानादिकमनशनं "चरेत" ६. निशीथ चूणि ७. (क) मूलाराधना ३।२०८ (ख) मूलाराधना दर्पण, पृ० २४५ ८. मूलाराधना ३।२४७ ६. वही ३१२४६ १०. वही ३।२५०,२५१ ११. वही० ३ । २५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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