Book Title: Samlekhana Swarup aur Mahattva Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 3
________________ संलेखना : स्वरूप और महत्त्व २२६ गि व अन्य स्थलों पर संलेखना का अर्थ “छोलना---कृश करना" किया है।' शरीर को कृश करना द्रव्य संलेखना है और कषाय को कृश करना भाव संलेखना है। ___ संलेखना शब्द "सत्" और "लेखना" इन दोनों के संयोग से बना है । सत् का अर्थ है सम्यक् और लेखना का अर्थ है कृश करना। सम्यक् प्रकार से कृश करना । जैन दृष्टि से काय और कवाय को कर्म बन्ध का मूल कारण माना है। इसलिए उसे कृश करना ही संलेखना है। आचार्य पूज्यपाद ने और आचार्य श्रुतसागर ने काय व कषाय के कृश करने पर बल दिया है। श्री चामुण्डराय ने "चारित्रसार" में लिखा है बाहरी शरीर और भीतरी कवायों का क्रमशः उनके कारणों को घटाते हुए सम्यक् प्रकार से क्षीण करना संलेखना है। "बाह्यस्य कायस्याभ्यान्तराणां कषायाणां तत्कारणहापनया क्रमेण सम्यग्लेखना संलेखना ॥२२॥" मरण के दो भेद हैं-नित्य मरण और तद्भव मरण । तद्भव मरण को सुधारने के लिए संलेखना का वर्णन है । आचार्य उमास्वाति ने लिखा है-मृत्यु काल आने पर साधक को प्रीतिपूर्वक संलेखना धारण करनी चाहिए। आचार्य पूज्यपाद,५ आचार्य अकलंक और आचार्य श्रुतसागर' ने "मारणांतिकी संलेखनां जोषिता" सूत्र में जोषिता का अर्थ "प्रीतिपूर्वक" किया है। जिस संलेखना में प्रीति का अभाव है वह संलेखना सम्यक्-संलेखना नहीं है। जब कभी मृत्यु पीछा करती है उस समय सामान्य प्राणी की स्थिति अत्यन्त कातर होती है। जैसे शिकारी द्वारा पीछा करने पर हरिणी घबरा जाती है; पर वीर योद्धा पीछा करने वाले योद्धाओं से घबराता नहीं, वरन् आगे बढ़कर जूझता है; वह जैसे-तैसे जीवन जीना पसन्द नहीं करता. किन्तु दुर्गगों को नष्ट कर जीवन जीना चाहता है । एक क्षण भी जीऊँ, किन्तु प्रकाश करते हुए जीऊँ ---यही उससे अन्तर्ह दय की आवाज होती है। जो साधक जीवन के रहस्य को नहीं पहचानता है और न मृत्यु के रहस्य को पहचानता है, उसका निस्तेज जीवन एक प्रकार से व्यक्तित्व का मरण ही है।' संलेखना के साथ मारणांतिक विशेषण प्रयुक्त होता है । इससे अन्य तपःकर्म से संलेखना का पार्थक्य और वैशिष्ट्य परिज्ञात होता है। काय और कषाय को क्षीण करने के कारण, काय संलेखना जिसे बाह्य संलेखना भी कहते हैं और कषाय संलेखन जिसे आभ्यन्तर संलेखना कहते हैं । बाह्य संजना में आभ्यन्तर कषायों को पुष्ट करने वाले कारणों को वह शनैः शनैः कृश करता है । इस प्रकार संलेखना में कषाय क्षीण होने, तन क्षीण होने पर भी मन में अपूर्व आनन्द रहता है। संलेखना में शरीर और कषाय को साधक इतना कृश कर लेता है जिससे उसके अन्तर्मानस में किसी भी प्रकार की कामना नहीं होती। उसके अनशन में पूर्ण रूप से स्थैर्य आ जाता है । अनशन से शरीर क्षीण हो सकता है। १. (क) संलेखनं-द्रव्यतः शरीरस्थ भावतः कवायाणं कृशताऽअपादनं संलेखसंलेखनेति। -बृहद् वृत्ति पत्र (ख) मूल १० ३।२०८-मूला० दर्पण, पृ० ४२५ सम्यक्काय कषायलेखना-तत्त्वा० सर्वार्थसिद्धि ७।२२ का भाष्य, पृ० ३६३, भारतीय ज्ञानपीठ सत् सम्यक् लेखना कायस्य कषायाणां च कृशीकरणं तनूकरणं-तत्त्वार्थ वृत्ति ७।२२ भाष्य, पृ०२४६, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी। तत्त्वार्थ सूत्र ७-२२ । तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि ७-२२, पृ० ३६३ । ६. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ७-२२ ७. तत्त्वार्थ श्रुतसागरीय वृत्ति ७-२२ । ८. यज्जीवति तन्मरणं, यन्मरणं सास्य विधान्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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