Book Title: Samaysar Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 6
________________ उक्त छन्दों में तीन बिन्दु अत्यन्त स्पष्ट हैं - १. गौतम गणधर के बाद किसी अन्य का उल्लेख न होकर कुन्दकुन्द का ही उल्लेख है, जो दिगम्बर परम्परा में उनके स्थान को सूचित करता है। २. उन्हें चारणऋद्धि प्राप्त थी। ३. उनका पद्मनन्दी प्रथम नाम था और दूसरा नाम कुन्दकुन्दाचार्य था। 'आचार्य' शब्द नाम का ही अंश बन गया था, जो कि 'आचार्यशब्दोत्तरकौण्डकुन्दः' पद से अत्यन्त स्पष्ट है। यह भी स्पष्ट है कि यह नाम उनके आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के बाद ही प्रचलित हुआ; परन्तु यह नाम इतना प्रचलित हुआ कि मूल नाम भी विस्मृत-सा हो गया। उक्त नामों के अतिरिक्त एलाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य एवं गृद्धपिच्छाचार्य भी आपके नाम कहे जाते हैं।" इस सन्दर्भ में विजयनगर के एक शिलालेख में एक श्लोक पाया जाता है, जो इसप्रकार है - ___ “आचार्यकुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः। एलाचार्यो गृद्धपृच्छ इति तन्नाम पञ्चधा।" उक्त सभी नामों में कुन्दकुन्दाचार्य नाम ही सर्वाधिक प्रसिद्ध नाम है। जब उनके मूल नाम पद्मनन्दी को भी बहुत कम लोग जानते हैं तो फिर शेष नामों की तो बात ही क्या करें ? कन्दकन्द जैसे समर्थ आचार्य के भाग्यशाली गरु कौन थे ? - इस संदर्भ में अन्तर्साक्ष्य के रूप में बोधपाहुड़ की जो गाथाएँ उद्धृत की जाती हैं, वे इसप्रकार हैं - "सद्दवियारो भूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ।।६१।। बारस अंगवियाणं चउदस पुवंग दिउल वित्थरणं । सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरु भयवओ जयओ।।६२।। जो जिनेन्द्रदेव ने कहा है, वही भाषासूत्रों में शब्दविकाररूप से परिणमित हुआ है; उसे भद्रबाहु के शिष्य ने वैसा ही जाना है और कहा भी वैसा ही है। बारह अंग और चौदह पूर्वो का विपुल विस्तार करनेवाले श्रुतज्ञानी गमकगुरु भगवान भद्रबाहु जयवन्त हों।" प्रथम (६१वीं) गाथा में यह बात यद्यपि अत्यन्त स्पष्ट है कि बोधपाहड के कर्ता आचार्य कन्दकन्द भद्रबाहु के शिष्य हैं, तथापि दूसरी (६२वीं) गाथा जहाँ यह बताती है कि भद्रबाहु ग्यारह अंग और चौदह पूर्वो के ज्ञाता पंचम श्रुतकेवली ही हैं, वहाँ यह भी बताती है कि वे कुन्दकुन्द के गमकगुरु (परम्परागुरु) हैं, साक्षात् गुरु नहीं। इस संदर्भ में समयसार की पहली गाथा की दूसरी पंक्ति भी देखी जा सकती है, जो इसप्रकार है - "वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणिदं।" इसका अर्थ यह है कि श्रुतकेवली द्वारा कथित समयप्राभृत को कहँगा। इस संदर्भ में दर्शनसार की निम्न गाथा पर भी ध्यान देना चाहिए - “जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ।। ७. श्रुतसागर सूरि : षट्प्राभृत टीका, प्रत्येक प्राभृत की अंतिम पंक्तियाँ। ८. जैन सिद्धान्त भाग १, किरण ४ (तीर्थंकर भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, पृष्ठ-१०२)Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 646