Book Title: Samantbhadra Bharati
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 1
________________ समन्तभद्र भारती परमानन्द जैन शास्त्री आचार्य समन्तभद्र विक्रमकी तीसरी शताब्दी के प्रसिद्ध तार्किक विद्वान थे । वे असाधारण विद्या के धनी थे, और उनमें कवित्व एवं वाग्मित्वादि शक्तियाँ विकासकी चरमावस्था प्राप्त हो गई थीं। समन्तभद्र को जन्म दक्षिण भारत में हुआ था। वे एक क्षत्रिय राजपुत्र थे उनके पिता फणिमण्डलान्तर्गत उरगपुर के राजा थे। समन्तभद्रका जन्म नाम शान्तिवर्मा था। उन्होंने कहां और किसके द्वारा शिक्षा पाई, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। उनकी कृतियों का अध्ययन करने से यह सष्ट प्रतीत होता है कि उनको-जैन धर्म में बड़ी श्रद्धा थी और उनका उसके प्रति भारी अनुराग था । वे उसका प्रचार करना चाहते थे। इसीलिये उन्होंने राज्यवैभव के मोह का परित्याग कर गुरु से जैन दीक्षा ले ली। और तपश्चरण द्वारा आत्मशक्ति को बढ़ाया। समन्तभद्रका मुनि जीवन महान् तपस्वी का जीवन था । वे अहिंसादि पंच महाव्रतों का पालन करते थे, और ईर्या- भाषा-एषणादि पंच समितियों द्वारा उन्हें पुष्ट करते थे। पंच इन्द्रियों के निग्रह में सदा तत्पर और मन-वचन-काय रूप गुप्तित्रय के पालन में धीर, और सामायिकादि षडावश्यक क्रियाओं के अनुष्ठान में सदा सावधान रहते थे। और इस बातका सदा ध्यान रखते थे कि मेरी दैनिक चर्या या कषाय भाव के उदय से कभी किसी जीवको कष्ट न पहुँच जाय । अथवा प्रमादवश कोई बाधा न उत्पन्न हो जाय । इस कारण वे दिन में पदमर्दित मार्ग से चलते थे, किन्तु चलते समय अपनी दृष्टि को इधर-उधर नहीं घुमाते थे। किन्तु उनकी दृष्टि सदा मार्ग शोधन में अग्रसर रहती थी। वे रात्रि में गमन नहीं करते थे। और निद्रावस्था में भी वे इतनी सावधानी रखते थे कि जब कभी कर्वट बदलना ही आवश्यक होता तो पीछी से परिमार्जित करके ही बदलते थे । तथा पीछी, कमंडलु और पुस्तकादि वस्तु को देख-भाल कर उठाते रखते थे, एवं मल-मूत्रादि भी प्राशुक भमि में क्षेपण करते थे। वे उपसर्ग-परीषहों को साम्य भावसे सहते हुए भी कभी चित्त में उद्विग्न या खेदित नहीं होते थे। उनका भाषण हित-मित और प्रिय होता था । वे भ्रामरी वृत्ति से अनोदर आहार लेते थे। पर उसे जीवन-यात्रा का मात्र अवलम्बन (सहारा ) समझते थे । और ज्ञान, ध्यान एवं संयम की वृद्धि और शारीरिक स्थिति का सहायक मानते थे। स्वाद के लिये उन्होंने कभी आहार नहीं लिया। इस तरह वे मूलाचार (आचारांग ) में प्रतिपादित चर्याके अनुसार व्रतोंका अनुष्ठान करते थे । अट्ठाईस मूलगुणों और उत्तर गुणोंका पालन करते हुए उनकी विराधना न हो, उसके प्रति सदा जागरुक रहते थे। इस तरह मुनिचर्या का निर्दोष पालन करते हुए भी कर्मोदय वश उन्हें भस्मक व्याधि हो गई । उसके होनेपर भी वे कभी अपनी चर्या से चलायमान नहीं हुए। जब जठराग्नि की तीव्रता भोजन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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