Book Title: Samantbhadra Bharati
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 9
________________ ९४ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ अनेक पद्य ऐसे हैं जो एक से अधिक अलंकारों को लिये हुए हैं । कुछ पद्य ऐसे भी हैं जो दो दो अक्षरों से बने हैं - दो व्यंजनाक्षरों से ही जिन के शरीर की सृष्टि हुई है' । स्तुतिविद्या का १४ वां पद्य ऐसा है जिसका प्रत्येक पाद भिन्न प्रकार के एक एक अक्षर से बना है, यथा— ये यायायाययेयाय नानानूना ननानन । ममा ममा ममा मामिताततीतिततीतितः ॥ यह ग्रन्थ कितना महत्त्वपूर्ण है यह टीकाकार के - ' घन - कठिन - घाति - कर्मेन्धनदहनसमर्था ' वाक्य सें जाता है जिसमें घने एवं कठोर घातिया कर्मरूपी ईंधन को भस्म करनेवाली अग्नि बतलाया है । वीतराग शुद्ध स्वरूप इस ग्रन्थ की रचना का उद्देश्य प्रथम पद्यमें ' आगसां जये' वाक्य द्वारा पापों को जीतना बतलाया. है । वास्तव में पापों को कैसे जीता जाता है यह बड़ा रहस्य पूर्ण विषय है । इस विषय में यहां इतना लिखनाही पर्याप्त होगा कि ग्रन्थ में जिन तीर्थंकरों की स्तुति की गई है - वे सब पाप विजेता हुए हैंउन्होंने काम, क्रोधादि पाप प्रकृतियों पर पूर्ण विजय प्राप्त की है, उनके चिंतन वंदन और आराधन से. तदनुकूल वर्तन से अथवा पवित्र हृदय मन्दिर में विराजमान होने से पाप खड़े नहीं रह सकते । पापों के बन्धन उसी प्रकार ढीले पड़ जाते हैं जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष पर मोर के आने से उससे लिपटे हुए भुजंगों (सर्पों) के बन्धन ढीले पड जाते हैं, और वे अपने विजेता से घबराकर अन्यत्र भाग जाने की बात सोचने लगते हैं । अथवा उन पुण्य पुरुषों के ध्यानादिक से आत्मा का वह निष्पाप सामने आ जाता है। उस शुद्ध स्वरूप के सामने आते ही आत्मा में अपनी उस भूली हुई निज निधि का स्मरण हो जाता है और उसकी प्राप्ति के लिये अनुराग जागृत हो जाता है, तब पाप परिणति सहज ही छूट जाती है अतः जिन पवित्र आत्माओं में वह शुद्ध स्वरूप पूर्णत: विकसित हुआ है उनकी उपासना पूजा करता हुआ भव्य जीव अपने में अपने उस शुद्ध स्वरूप को विकसित करने के लिये उसी तरह समर्थ होता है जिस तरह तैलादि विभूषित बत्ती दीपक की उपासना करती हुई उसमें तन्मय हो जाती है— स्वयं दीपक बनकर जगमगा उठती है । यह सब उस भक्तियोग का ही माहात्म्य है । भक्ति के दो रूप हैं सकामा और निष्कामा । सकामा भक्ति संसार के ऐहिक फलों की वांछा को लिये हुए होती है वह संसार तक ही सीमित रखती है । वर्तमान में उसमें कितना ही विकार आगया है, लोग उस भक्ति के मौलिक रहस्य को भूल गए हैं और जिनेन्द्र मुद्रा के समक्ष लौकिक एवं सांसारिक कार्यों की याचना करने लगे हैं । वहां भक्त जन भक्ति के गुणानुराग से च्युत होकर सांसारिक लौकिक कार्यों की प्राप्ति के लिये भक्ति करते देखे जाते हैं । किन्तु निष्काम भक्ति में किसी प्रकार की चाह या अभिलाषा नहीं होती, वह अत्यन्त विशुद्ध परिणामों की जनक है। उससे कर्मनिर्जरा होती है, और आत्मा उससे अपनी स्वात्मस्थिति को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता । अतः निष्काम भक्ति भव समुद्र से पार उतरने में निमित्त होती है । १. देखो ५१, ५२ और ५५ वां पद्य । २. हृद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति, जन्तोः क्षणेण निविड़ा अपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजंगममया इव मध्यभागमभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य || — कल्याणमन्दिरस्तोत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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