Book Title: Samantbhadra Bharati
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 12
________________ समन्तभद्र भारती ९७ अद्वितीय है' । इतना ही नहीं किन्तु वीर के इस शासन को ' सर्वोदयतीर्थ' बतलाया है - जो सबके उदय उत्कर्ष एवं आत्मा के पूर्ण विकास में सहायक है, जिसे पाकर जीव संसार समुद्र से पार हो जाते हैं । वही सर्वोदयतीर्थ है । जो सामान्य - विशेष, द्रव्य - पर्याय, विधि-निषेध और एकत्व - अनेकत्वादि सम्पूर्ण धर्मों 1 को अपनाए हुए है - मुख्य- गौण की व्यवस्था से सुव्यवस्थित है, सब दुःखों का अन्त करने वाला है और अविनाशी है, वही सर्वोदयतीर्थ कहे जाने के योग्य है; क्योंकि उससे समस्त जीवों को भवसागर से तरने का समीचीन मार्ग मिलता है । वीर के इस शासन की सब से बड़ी विशेषता यह है कि इस शासन से मानव भी यदि समदृष्टि हुआ उपपत्ति - चक्षु से - मात्सर्य के त्यागपूर्वक समाधान की का अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मान शृंग खण्डित हो जाता रूप मिथ्या आग्रह छूट जाता है । वह अभद्र ( मिथ्यादृष्टि ) होता हुआ भी, सब सम्यग्दृष्टि बन जाता है जैसा कि उनके निम्न पद्य से प्रकट है: ग्रन्थ में सभी एकान्तवादियों के मत की युक्ति पूर्ण समीक्षा की गई है, किन्तु समीक्षा करते हुए भी उनके प्रति विद्वेष की रंचमात्र भी भावना नहीं रही, और न वीर भगवान के प्रति उनकी रागात्मिका प्रवृत्ति ही रही है । यथेष्ट द्वेष रखनेवाला दृष्टि से वीर शासन है - सर्वथा एकान्तओर से भद्ररूप एवं कामं द्विषन्नप्युपपत्ति चक्षुः समीक्ष्यतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डितमान - शृङ्गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥६२॥ ग्रन्थ में संवेदनाद्वैत, विज्ञानाद्वैत, अद्वैतवाद, शून्यवाद आदि वादों का और चार्वाक के एकान्त सिद्धान्त का खण्डन करते हुए विधि, निषेध और वक्तव्यतादि रूप सप्तभंगों का विवेचन किया है, तथा मानस अहिंसा की परिपूर्णता के लिए विचारों का वस्तुस्थिति के आधार से यथार्थ सामंजस्य करनेवाले अनेकान्त दर्शन का मौलिक विचार किया गया है। साथ ही वीर शासन की महत्ता पर प्रकाश डाला है । १३ ग्रन्थ निर्माण के उद्देश्य को अभिव्यक्त करते हुए आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि हे वीर भगवन् ! यह स्तोत्र आपके प्रति रागभाव से नहीं रचा गया, क्यों कि आपने भव- पाश को छदेन कर दिया है । और दूसरों के प्रति द्वेषभाव से भी नहीं रचा गया है; क्यों कि हम तो दुर्गुणों कि कथा के अभ्यास को खलता समझते हैं । उस प्रकार का अभ्यास न होने से वह खलता भी हम में नहीं है । तब फिर इस रचना का उद्देश्य क्या है ? उद्देश्य यही है कि जो लोग न्याय-अन्याय को पहिचानना चाहते हैं और १. त्वं शुद्धि - शक्त्योरूदयस्य काष्ठांतुला- व्यतीतां जिन ! शान्तिरूपाम् । अवापि ब्रह्मपथस्य नेता, महानितीयत्प्रतिवक्तुमीशाः ॥५॥ दया - दम - त्याग - समाधिनिष्ठं नय-प्रमाण प्रकृताऽऽञ्जसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलै - प्रवादै - जिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् ||६|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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