Book Title: Sakaratmak Ahinsa ki Bhumika
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ 74 सकारात्मक अहिंसा में निश्चित रूप से अंशतः हिंसा का कोई न कोई रूप समाविष्ट होता है किन्तु उसे विष मिश्रित दूध कहकर त्याज्य नहीं कहा जा सकता। उसमें चाहे हिंसा रूपी विष के कोई कण उपस्थित हो, किन्तु ये विष-कण विषौषधी के समान मारक नहीं तारक होते हैं। जिसप्रकार विष की मारक शक्ति को समाप्त करके उसे औषधी रूपी अमृत में बदल दिया जाता है, उसी प्रकार सकारात्मक अहिंसा में जो हिंसा या रागात्मकता के रूप परिलक्षित होते हैं, उन्हें विवेकपूर्ण कर्तव्य भाव के द्वारा बन्धन के स्थान पर मुक्ति के साधन के रूप में बदला जा सकता है। जिस प्रकार विष से निर्मित औषधी अस्वास्थकर न होकर आरोग्यप्रद ही होती है, उसी प्रकार सकारात्मक अहिंसा भी सामाजिक स्वास्थ्य के लिए आरोग्यकर ही होती है । जब हम अपने अस्तित्व के लिए, अपने जीवन के रक्षण के लिए प्रवृत्ति और तद्जन्य आंशिक हिंसा को स्वीकार कर लेते हैं तो फिर हमारे इस तर्क का कोई आधार नहीं रह जाता, कि हम सकारात्मक अहिंसा को इसलिए अस्वीकार करते हैं कि उसमें हिंसा का तत्त्व होता है और वह विष मिश्रित दूध है। अपने अस्तित्त्व के लिए की गई हिंसा क्षम्य है तो दूसरों के अस्तित्व या रक्षण हेतु की गई हिंसा क्षम्य क्यों नहीं होगी ? सकारात्मक अहिंसा की भूमिका पुनः दूसरों के अस्तित्व के लिए की जाने वाली प्रवृत्तियों में हमें रागात्मकता लगे तो क्या अपने हेतु की गयी वृत्ति में रागात्मकता नहीं होगी। जब प्रवृत्ति या क्रिया से पूर्ण निवृत्ति सम्भव ही नहीं है तो ऐसी स्थिति में क्रिया को वह रूप देना होगा जो बन्धन और हिंसा के स्थान पर विभुक्ति और अहिंसा से जुड़े । मात्र कर्त्तव्य बुद्धि से की गई परोपकार की प्रवृत्ति ही ऐसी है जो हमारी प्रवृत्ति को बन्धक से अबन्धक बना सकती है। Jain Education International यही कारण था कि जैन परम्परा में ईर्यापथिक क्रिया और ईर्यापथिक बन्ध की अवधारणा अस्तित्त्व में आयीं। ये बाह्य रूप से चाहे क्रिया और बन्ध कहे जाते हों, किन्तु वे वस्तुतः बन्धन के नहीं, विमुक्ति के ही सूचक हैं, तीर्थंकर की लोककल्याण की समस्त प्रवृत्तियाँ भी ईर्यापथिक क्रिया और ईर्यापथिक बन्ध मानी गयी है। उनका प्रथम समय में बन्ध होता है और द्वितीय समय में निर्जरा हो जाती है। इस प्रकार वीतराग पुरुष की प्रवृत्ति रूप क्रिया के द्वारा जो आसव और बन्ध होता है उसका स्थायित्व एक क्षण भी नहीं होता है। उत्तराध्ययनसूत्र (25/42 ) में कहा है कि जैसे गीली मिट्टी का गोला दीवाल पर फेंकने से चिपक जाता है किन्तु सूखी मिट्टी का गोला नहीं चिपकता, अपितु तत्क्षण गिर जाता है। यही स्थिति वीतराग भाव या निष्काम भाव से की गयी क्रियाओं की होती है। उनसे जो आसव होता है वह आत्मप्रदेशों से मात्र स्पर्शित होता है वस्तुतः बन्धक नहीं होता । बन्धन का मूल कारण तो राग-द्वेष या कषायजन्य प्रवृत्ति है। अतः निष्काम भाव से जो लोक-मंगल के लिए, दूसरों के दुःखहरण के हेतु सेवा, परोपकार आदि जो प्रवृत्ति की जाती है वह क्रिया रूप होकर के भी बन्धक नहीं है और इस प्रकार जो लोग " सकारात्मक अहिंसा" में बन्धन की सम्भावनाओं को देखते है उनका चिन्तन सम्यक् नहीं है। तीर्थंकरों की जीवन शैली और सकारात्मक अहिंसा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18