Book Title: Sakaratmak Ahinsa ki Bhumika
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf

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Page 16
________________ 84 सकारात्मक अहिंसा की भूमिका जाती है या शासन करने के लिए, या स्वाद के लिए। हिंसा का यही रुप ऐसा है जो सबके द्वारा छोड़ा जा सकता है, क्योंकि यह हमारे जीवन जीने के लिए जरूरी नहीं है। हिंसा का दूसरा स्प जिसमें हिंसा करनी पड़ती है, हिंसा तो है किन्तु इसे छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि यह आवश्यक है, अर्थदण्ड है। वे सभी गृहस्थ उपासक जो अपने स्वत्वों का रक्षण करना चाहते हैं, जो जीवन जीने के लिए उद्योग और व्यवसाय में लगे हुए हैं, जो समाज, संस्कृति और राष्ट्र की सुरक्षा एवं विकास का दायित्व लिये हुए हैं इससे नहीं बच सकते। न केवल गृहस्थ उपासक अपितु मुनिजन भी, जो किसी धर्म, समाज एवं संस्कृति के रक्षण, विकास एवं प्रसार का दायित्व अपने ऊपर लिये हुए हैं, इस प्रकार की अपरिहार्य हिंसा से नहीं बच सकते हैं। यह सत्य है कि सामाजिक जीवन में दूसरे प्राणियों के जीवन-रक्षण, पोषण, सेवा आदि में भी एकेन्द्रियादि कुछ जीवों की हिंसा सम्भावित है, किन्तु इस हिंसा के भय से सकारात्मक अहिंसा की अवहेलना करना योग्य नहीं है। वह गृहस्थ के लिये एक कर्तव्य है और उसे निष्काम भाव से उसे करना है। सकारात्मक अहिंसा में घटित हिंसा, हिंसा है फिर भी यह आवश्यक है कि हम ऐसी हिंसा को हिंसा के रूप में समझते रहें, अन्यथा हमारा करुणा का स्रोत सूख जायेगा। विवशता में चाहे हमें हिंसा करनी पड़े, किन्तु उसके प्रति आत्मग्लानि और हिंसित के प्रति करुणा की धारा सूखने नहीं पावे अन्यथा वह हिंसा हमारे स्वभाव का अंग बन जावेगी जैसे कसाई बालक में। हिंसा-अहिंसा के विवेक का मुख्य आधार मात्र यही नहीं है कि हमारा हृदय कषाय से मुक्त हो, किन्तु यह भी है कि हमारी संवेदनशीलता जागृत रहे, हृदय में दया और करुणा की धारा प्रवाहित होती रहे। हमें अहिंसा को हृदय-शून्य नहीं बनाना है। क्योंकि यदि हमारी संवेदनशीलता जागत बनी रही तो निश्चय ही हम जीवन में हिंसा की मात्रा को अल्पतम करते हुए पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध कर सकेगें, साथ ही हमारी अहिंसा विधायक बन कर मानव समाज में सेवा और सहयोग की गंगा भी बहा सकेगी। साथ ही जब अपरिहार्य बन गई दो हिंसाओं में किसी एक को चुनना अनिवार्य हो तो हमें अल्प-हिंसा को चुनना होगा। किन्तु कौन-सी हिंसा अल्प-हिंसा होगी यह निर्णय देश, काल परिस्थिति आदि अनेक बातों पर निर्भर करेगा। यहाँ हमें जीवन की मूल्यवत्ता को भी आंकना होगा। जीवन की यह मूल्यवत्ता दो बातों पर निर्भर करती है-- 1. प्राणी का ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक विकास और 2. उसकी सामाजिक उपयोगिता। सामान्यता मनुष्य का जीवन अधिक मूल्यवान है और मनुष्यों में भी एक सन्त का, किन्तु किसी परिस्थिति में किसी मनुष्य की अपेक्षा किसी पशु का जीवन भी अधिक मूल्यवान हो सकता है। सम्भवतः हिंसा-अहिंसा के विवेक में जीवन की मूल्यवत्ता का यह विचार हमारी दृष्टि में उपेक्षित ही रहा, यही कारण था कि हम चीटियों के प्रति तो संवेदनशील बन सके किन्तु मनुष्य के प्रति निर्मम ही बने रहे। आज हमें अपनी संवेदनशीलता को मोड़ना है और मानवता के प्रति हिंसा को सकारात्मक बनाना है। _जैनधर्म में अहिंसा के सकारात्मक पक्ष का महत्त्व एवं स्थान प्राचीनकाल से ही रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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