Book Title: Sakaratmak Ahinsa ki Bhumika
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf

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Page 12
________________ 80 स्वयं महावीर के युग में भी यह प्रश्न उपस्थित हुआ था कि अनेक एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा का एक पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा में कौन सी हिंसा अल्प है ? उनके युग में हस्ति-तापसों का एक वर्ग था जो यह कहता था कि हम तो वर्ष में केवल एक हाथी को मारते हैं। और उसके माँस से पूरा वर्ष अपनी आजीविका की पूर्ति करते हैं। इस प्रकार हम सबसे कम हिंसा करते हैं (सूत्रकृतांग 2 / 6 / 53-54 ) । इस विचारधारा का स्वयं महावीर ने खंडन किया और बताया कि यह अवधारणा भ्रांत है। भगवतीसूत्र में इस प्रश्न पर और भी अधिक गम्भीरता से विचार हुआ है। उसमें बताया गया है कि अनेक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा की अपेक्षा पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा और उनमें भी एक ऋषि की हिंसा अधिक निकृष्ट होती है। (भगवतीसूत्र 9/34/106-107) | अतः जैन दृष्टिकोण से हिंसा का अल्प- बहुत्व प्राणियों की संख्या पर नहीं उनके ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक विकास पर निर्भर करता है। जब चुनाव दो हिंसाओं के बीच करना हो तो हमें चुनाव अल्प हिंसा का ही करना होगा और इसमें हिंसा का अल्प- बहुत्व प्राणियों का संख्या पर नहीं उनके ऐन्द्रिक विकास पर ही निर्भर करेगा । Jain Education International यदि हम एक ओर यह मानें कि अपने जीवन रक्षण हेतु हम एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा कर सकते हैं और उसका हमें अधिकार है और दूसरी ओर यह कहें कि चूँकि दूसरे प्राणियों के रक्षण, पोषण, सेवा आदि की प्रवृत्तियों में एकेन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा जुड़ी हुई है अतः त्याज्य है, तो यह आत्म प्रवंचना ही होगी। गृहस्थ जीवन तो क्या मुनि जीवन में भी कोई व्यक्ति एकेन्द्रिय जीवों के प्रति पूर्ण अहिंसक नहीं हो पाता है। अतः एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से बचने के नाम पर अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की अवहेलना न तो उचित है और न नैतिक ही । सकारात्मक अहिंसा इसलिए भी आवश्यक है कि हमारे सामाजिक जीवन का आधार है। " मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।" सामाजिक जीवन से अलग होकर उसके अस्तित्व की कल्पना ही दुष्कर है। सकारात्मक अहिंसक चेतना अर्थात् संवेदनशीलता के अभाव में हम समाज की कोई कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। समाज जब भी खड़ा होता है तब आत्मियता, प्रेम, पारस्परिक सहयोग और दूसरे के लिए अपने हित-त्याग के आधार पर खड़ा होता है । आचार्य उमास्वाति ने कहा है कि एक दूसरे का हित करना यह प्राणिय-जगत का नियम है ( परस्परोपग्रहो जीवानाम तत्वार्थ 5 ) पाश्चात्य चिन्तकों की यह भ्रान्त अवधारणा है कि संघर्ष प्राणिय जगत को नियम है। जीवन का नियम संघर्ष नहीं, सहकार है। जीवन सहयोग और सहकार की स्थिति में ही अस्तित्त्व में आता है और विकसित है। यह सहयोग और अपने हितों का दूसरे के हेतु उत्सर्ग समाज - जीवन का भी आधार है। दूसरे शब्दों में समाज सदैव ही सकारात्मक अहिंसा के आधार पर खड़ा होता है। निषेधात्मक अहिंसा यो वैयक्तिक साधना का आधार हो किन्तु वह सामाजिक जीवन का आधार नहीं हो सकती। आज जिस अहिंसक समाज के रचना की बात कही जाती है। वह समाज जब भी खड़ा होगा सकारात्मक अहिंसा के आधार पर ही खड़ा होगा। जब तक समाज के सदस्यों में एक-दूसरे की पीड़ा को समझने और उसे दूर करने के प्रयत्न नहीं होंगे तब तक समाज अस्तित्त्व में ही नहीं आ पायेगा । सामाजिक जीवन के लिए यह आवश्यक है कि हमें दूसरों की पीड़ा का स्व-संवेदन हो और -- सकारात्मक अहिंसा की भूमिका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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