Book Title: Ritthnemichariyam Part 3 1 Author(s): Swayambhudev, Ramnish Tomar, Dalsukh Malvania, H C Bhayani Publisher: Prakrit Text Society AhmedabadPage 12
________________ तेत्तीसमो संधि घत्ता कहिं पंडव कहिं वंधव थिय जच्चंध-व को-वि णाहि महु सरणउं । दूसासण-सव सत्तहे परिह पवत्तहे) वरि करे अब्भुद्धरणउं॥ ९ . [४] णारायणु पभणइ जायवहो पंचालहो मच्छहो पंडवहो तहो बंधव-सयण-विरोहणहो दिट्टई कम्मइं दुन्जोहणहो कवडक्खेहि वसुमइ अवहरिय अण्ण-वि दोवइ-चिहुरेहि धरिय किं कहिमि णिरिंदहं एह किय जे णिग्गुण ताहं जे होइ सिय ४ गुणवंता गुणेहिं अलंकरिय तरलच्छिए लच्छिए परिहरिय लच्छि-वि अलच्छि विणएण विणु जा जगे णिदिज्जइ जेव तिणु ते कउरव-णिम्मल-कुल-तिलय पंडव पुणु विक्कम-णय-णिलय वप्पिक्कउ-अद्ध-महीयलहो कि होइ ण होइ जुहिट्टिलहो ८ धत्ता कहहो कहहो सामंतहो णं तो मतो महि संदेह-वलग्गी। कि पंडवहं ण जुज्जइ कुरुहुँ जे भुंजइ सयल-कालु आवग्गी॥ ९ संकरिसणु पभणइ कहहो हरि महु चित्तहो भावइ एहु वरि णउ कण्णहो णउ दुजोहणहोणं सउणिहे णउ दूसासणहो आयहो एक्कहो वि ण दोसु तहि कहिं धम्म-पुत्तु दुव्वसणु कहिं सव्वह-मि अणत्थहं मूल-दलु जूयहो जे पहावें गट्ठ णलु दुव्वोलह कुलहरु कलह-णिहि पज्जलइ झत्ति जहिं कोव-सिहि सव्वत्थ-हारि संताव-भरि तं काल-कुटु-वि सु-खद्ध वरि ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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