Book Title: Rishibhashit ka Darshanik Adhyayana Author(s): Pramodkumari Sadhvi Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur View full book textPage 7
________________ डॉ. साध्वी प्रमोदकुमारीजी में मात्र संकेत रूप में ही उपलब्ध होती है। उनके विस्तृत विवरणों अथवा समालोचनात्मक विवेचनाओं का भी ऋषिभाषित में प्राय: अभाव ही है। उसका कारण यह है कि ऋषिभाषित एक प्राचीन और दार्शनिक चिन्तन के प्रारंभिक युग का ग्रंथ है, इसलिए इन तत्त्वमीमांसीय सिद्धांतों के संबंध में उसमें तार्किक और समीक्षात्मक विवेचन का प्रस्तुतीकरण संभव नहीं हो सका, फिर भी उसमें अनेक तत्त्वमीमांसीय सिद्धांत बीज रूप में उपस्थित है। ऋषिभाषित में जिन तत्त्वमीमांसीय सिद्धांतों का विवेचन उपलब्ध होता है उनमें पंचमहाभूतवाद, आत्म कर्तृत्त्ववाद, पञ्चस्कन्धवाद, सन्ततिवाद, उच्छेदवाद, शून्यतावाद, पंचास्तिकायवाद आदि प्रमुख है। यद्यपि इसमें शून्यवाद का संकेतमात्र इसी रूप में मिलता है कि कोई भी ऐसा तत्त्व नहीं है जो सर्वथा सर्वकाल में अस्तित्त्ववान हो। इसलिए ऋषिभाषित का शून्यतावाद, उच्छेदवाद और बौद्धों के विकसित शून्यतावाद के बीच ही एक कड़ी है। 5 यद्यपि ऋषिभाषित में नैतिक, और धार्मिक उपदेश तो विपुलता से मिलते है, किन्तु उमनें भी कोई सैद्धांतिक दार्शनिक गंभीर चर्चा उठायी गई हो ऐसा परिलक्षित नहीं होता। यद्यपि उसमें नैतिक और धार्मिक जीवन के लिए आधारभूत कर्म सिद्धांत का अधिक विस्तृत विवेचन हुआ है और उसमें कर्मसन्ततिवाद की चर्चा भी आई है। कर्म सन्ततिवाद के साथ-साथ इस ग्रंथ में जैन कर्म सिद्धांत में उल्लेखित अष्टकर्म ग्रंथियों और कर्म की कुछ अवस्थाओं जैसे बद्ध, स्पृष्ट आदि की भी चर्चा करता है । जहाँ तक नैतिक दार्शनिक सिद्धांतों का प्रश्न है, ऋषिभाषित उनका कोई विशेष उल्लेख न करके मात्र उपदेशात्मक शैली में नैतिक उपदेश उपस्थित करता है। चूँकि ग्रंथ दर्शनकाल का ग्रंथ न होकर औपनिषदिक युग का एक ग्रंथ है और इसलिए ग्रंथ में उपलब्ध सामग्री को ध्यान में रखते हुए हमारे लिए भी अधिक गहराई से दार्शनिक समस्याओं में प्रवेश करना संभव नहीं हो सका है, क्योंकि ऐसा करने हेतु हमें ग्रंथ के प्रतिपाद्य मन्तव्यों से इधर-उधर ही भागना होता। कुछ ग्रंथ की सीमाएँ और कुछ मेरी अपनी सीमाएँ थी, जिसके कारण प्रस्तुत शोध प्रबंध में बहुत अधिक दार्शनिक गहराइयों का दावा नहीं किया जा सकता, किन्तु जो कोई भी संकेत सूत्र हमें उपलब्ध हुए हैं, उन्हें प्रस्तुत करने का प्रयत्न अवश्य किया गया है। विद्वानों से संकेत या सूचनाएँ प्राप्त होने पर हम भविश्य में इसे और अधिक विकसित कर सकेंगे, ऐसी आशा है। प्रस्तुत शोध प्रबंध नौ अध्यायों में विभक्त है। विषय प्रवेश नामक प्रथम अध्याय में मैंने ग्रंथ परिचय के साथ-साथ इसके ऋषियों का भी परिचय दिया है। इस परिचय को यथासंभव तुलनात्मक और समीक्षात्मक बनाया गया है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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