Book Title: Rajasthani Sahitya ko Jain Sant Kaviyo ki Den Author(s): Narendra Bhanavat Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 4
________________ चतुर्थ खण्ड | २१० न किसी के प्रति इनका राग होता है न द्वेष । प्राणिमात्र के प्रति मंत्री भाव रखते हुए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का ये कठोरता के साथ पालन करते हैं । इनका अधिकांश समय ध्यान, स्वाध्याय, साधना और लोकोपदेशना में ही व्यतीत होता है। प्राचारगत पवित्रता और मर्यादा के परिणामस्वरूप जैनसन्तों द्वारा सृजित साहित्य शब्दों का विलास न होकर आत्मा का उल्लास और नैतिक जागरण का माध्यम होता है। मानव अपने विकारों पर विजय प्राप्त कर सके, इस प्रक्रिया को विभिन्न रूपों और प्रकारों से जनसामान्य को समझाना, जैन साहित्य का मूल उद्देश्य है। यह 'समझ' जन-सामान्य के हृदय को छू सके, इस प्रयोजन को ध्यान में रख कर ये सन्त अपनी बात लोकभाषा में लोककथाओं और लोक-विश्वासों को आधार बनाकर कहने के विशेष अभ्यासी रहे हैं। लोक जीवन से इतना निकट उतर कर भी ये शास्त्रीय ज्ञान से अनभिज्ञ नहीं हैं। शास्त्रीयता और सहजता, पण्डितता और सरलता, धार्मिकता और लौकिकता का जो सामंजस्य इनकी साहित्यप्रक्रिया में दृष्टिगत होता है, वह अत्यन्त दुर्लभ है। अपने प्राचार-नियमों के प्रति अत्यन्त कठोर होते हुए भी ये कवि युग की नब्ज को पहचानने में विशेष दक्ष व संवेदनशील रहे हैं। एक अमुक धर्मविशेष का प्रास्था में पलकर भी ये विचारों में उदार मानववादी रहे हैं। पदयात्रा इनके धर्म का अंग होने से इनका जन-जीवन से निकट का सम्पर्क सधता चलता है । विभिन्न क्षेत्रों और अनुभवों के लोगों का सम्पर्क इन्हें समय की वर्तमानता और जीवन की यथार्थ स्थितियों से बराबर जोड़े रखता है। परिणामस्वरूप इनके साहित्य में एक विशेषप्रकार की ताजगी और आत्मीयतापूर्ण संबंधों की गन्ध मिलती है । कथ्यगत शालीनता और शिल्पगत वैविध्य इसका प्रतीक है । जैन सन्त जीवन और शास्त्रों के गूढ़ अध्येता रहे हैं । व्यक्ति की गरिमा, स्वतन्त्रता और समानता के ये जबरदस्त समर्थक रहे हैं। इनकी चिन्तना का मूल प्राधार यह रहा है कि व्यक्ति का विकास किसी परोक्ष सत्ता द्वारा नियन्त्रित न होकर, व्यक्ति के स्वयं के पुरुषार्थ द्वारा संचालित है। व्यक्ति जैसा कर्म करता है, उसीके अनुरूप उसे सुख-दुःखात्मक फल भोगने पड़ते हैं। कर्मवाद का यह सिद्धान्त व्यक्ति को तथाकथित ईश्वरीय निरंकुशता के चंगुल से मुक्त कर व्यक्ति को स्वतः कर्म करने और उसे भोगने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है और इस बात पर बल देता है कि व्यक्ति अपने पुरुषार्थ और साधना के बल पर उदीरणा, उद्वर्तन, अपवर्तन और संक्रमण के जरिये अपने कर्मों की अवधि को घटा-बढ़ा सकता है, कर्म फल की शक्ति को मन्द अथवा तीव्र कर सकता है और एक कर्मप्रकृति को दूसरी कर्मप्रकृति में संक्रमित भी कर सकता है। प्रमुख जैन सन्त कवि राजस्थान के जैन सन्त संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, राजस्थानी और हिन्दी सभी भाषामों में समान रूप से साहित्य-सर्जन करते रहे हैं। हरिभद्र सूरि, उद्योतन सूरि, जयसिंह सूरि, पद्मनन्दी, जिनेश्वर सूरि, जिनचन्द्र सूरि, जिनवल्लभ सूरि, जिनकुशल सूरि, समयसुन्दर, भट्टारक शुभचन्द्र आदि प्राकृत साहित्य के, ऐलाचार्य अमृतचन्द्र, हेमचन्द्र, प्राशाधर, प्रभाचन्द्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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