Book Title: Rajasthani Sahitya ko Jain Sant Kaviyo ki Den Author(s): Narendra Bhanavat Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 5
________________ राजस्थानी साहित्य को जैन संत कवियों की देन | २११ सकलकीर्ति, ब्रह्मजिनदास प्रादि संस्कृत साहित्य के प्रमुख साहित्यकार हुए हैं। प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश की ही परम्परा आगे चलकर राजस्थानी साहित्य में विस्तार को प्राप्त हुई। राजस्थानी साहित्य को समृद्ध करने वाले प्रमुख कवियों के नाम इस प्रकार हैं:-शालिभद्र सुरि, आसिग, सुमतिगणि, देल्हण, जय सागर, देपाल, ऋषिवर्धन सूरि, मतिशेखर, पद्मनाभ, धर्मसुन्दरगणि, सहजसुन्दर, पार्श्वनाथ सूरि, ठक्कुरसी, बुचराज, छीहल, विजयसमुद्र, राजशील, पुण्यसागर, कुशललाभ, मालदेव, हीरकलश, कनकसोम, हेमरत्न सूरि, रायमल्ल, हर्षकीर्ति, ब्रह्मजिनदास, विद्याभूषण, रत्नकीर्ति, गुणविनय, समयसुन्दर, सहजकीर्ति, श्रीसार, जिनराजसूरि, जिनहर्ष, लब्धोदय, धर्मवर्धन, कीर्तिसुन्दर, कुशलधीर, जिनसमुद्र सूरि, जयमल्ल, संत भीसणजी, रायचन्द्र, प्रासकरण, सबलदास, दुर्गादास, लालचन्द, रतनचन्द्र, चौथमल, जयाचार्य, मनीराम, मुजानमल, नेमिचन्द्र, माधवमुनि आदि ।। जैन सन्तों की तरह जैन साध्वियों का भी साहित्त्य-निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। प्रमुख कवयित्रियों के नाम इस प्रकार हैं:-विनयचुला, पद्मश्री, हेमश्री, हेमसिद्धि, विवेकसिद्धि, विद्यासिद्धि, हरकवाई, हुलासा, सरूपां बाई, जड़ावजी, भूरसुन्दरी आदि । नैनकाव्य की विशेषताएं - जैनकाव्य विविध और विशाल है। यद्यपि इसका मूल स्वर शान्त रसात्मक है पर जीवन के सभी पक्षों को इसने स्पर्श किया है। रसात्मक साहित्य के साथ-साथ ज्ञानात्मक साहित्य भी विपुल परिमाण में रचा गया है । यथा ज्योतिष, गणित, वैद्यक, योग सम्बन्धी साहित्य । __ जैन काव्य की यह विशेषता विषय तक ही सीमित नहीं है, रूप और शैली में भी महाकाव्य तथा खण्ड काव्य के बीच कई स्तरों पर शताधिक नवीन काव्य रूप खड़े किये गये। पद्य के क्षेत्र में जो काव्यरूप उभरे, उन्हें इस प्रकार विभक्त किया जा सकता है: (क) चरित काव्य _इनमें सामान्यत: जैन तीर्थंकरों, प्राचार्यों और विशिष्ट महापुरुषों के जीवन पाख्यान को पद्य में बांधा गया है। ये पाख्यान विशेषत: प्रबंधात्मक और गौणत: मुक्तक हैं। इनमें चरित्रनायक का पूर्वभव, जन्म, माता-पिता, शैशवकाल, विवाह, वैराग्य, संयमधारण, कठोर साधना, मृत्यु प्रादि का वर्णन है। ये चरित प्रायः विभिन्न सों, अध्यायों या ढालों में विभक्त हैं। इस वर्ग में रास, रासो, चौपाई, चौपई, सन्धि, चर्चरी, ढाल, प्रबन्ध, चरित, पाख्यान, कथा, पवाड़ा, आदि काव्यरूप पाते हैं। (ख) ऋतु काव्य इनमें सामान्यतः ऋतुओं एवं लौकिक उत्सवों पर लिखे गये काव्य रूप सम्मिलित किये जा सकते हैं। फागु, धमाल, बारहमासा, धवल, मंगल आदि ऐसे ही काव्य हैं। फागु काव्य मूलतः वसंतोत्सव से सम्बन्धित है। धमाल में किसी उत्सवविशेष की चहलपहल, उत्साहवर्द्धकता, मस्ती और मादकता चित्रित की जाती है। बारहमासा में नायिका की विरह-व्यथा प्रत्येक मास के ऋतुपरिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में व्यं जित की जाती है। धवल और मंगल काव्य विवाहादि मांगलिक उत्सवों और तत्सम्बन्धी गीतों से सम्बन्धित हैं । | धम्मो दीवो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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