Book Title: Rajasthani Sahitya ko Jain Sant Kaviyo ki Den
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 1
________________ राजस्थानी साहित्य को जैन संत कवियों की देन डॉ० नरेन्द्र भानावत राजस्थान : वीरभूमि, धर्मभूमि राजस्थान वीरभूमि होने के साथ-साथ धर्मभूमि भी है । शक्ति और भक्ति का सामंजस्य इस प्रदेश की मूल विशेषता है । यहाँ के वीर भक्तिभावना से प्रेरित होकर अपनी प्रद्भुत शौर्य वृत्ति का प्रदर्शन करते रहे तो यहाँ के भक्त अपने पुरुषार्थ, पर धर्म का तेज निखारते रहे । यहाँ शैव, फलने-फूलने का अवसर और आदर मिला । साधना और शक्ति के बल वैष्णव, जैन प्रादि सभी धर्मों को समान रूप से जैन मान्यता के अनुसार इस अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकर हुए जिनमें अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर का समय ईस्वी पू० छठी शती है । भगवान् महावीर का निर्वाण हुए आज पच्चीस सौ तेरह वर्ष हो गये हैं । इनके निर्वाण के साथ ही तीर्थंकरों की परम्परा समाप्त हो गई। महावीर के बाद उनके धर्म - शासन को श्रार्य सुधर्मा और जम्बूस्वामी जैसे केवलियों, प्रभवस्वामी और भद्रबाहु जैसे श्रुतकेवलियों तथा स्थूलभद्र, महागिरी, सुहस्ती देवद्धगणि क्षमा-श्रमण, कुन्दकुन्द जैसे प्राचार्यों ने श्रागे बढ़ाया । राजस्थान में जैनधर्म राजस्थान में जैन धर्म की विद्यमानता का संकेत ईस्वी पू० पांचवी शती से मिलता है । अजमेर जिले के बड़ली नामक गांव से प्राप्त शिलालेख में भगवान् महावीर के निर्वाण के ८४ वें वर्ष का तथा चितौड़ के समीप स्थित मध्यमिका नामक स्थान का उल्लेख है । इससे सूचित होता है कि सम्राट् अशोक से पूर्व राजस्थान में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार था । अशोक के पौत्र राजा सम्प्रति ने जैन धर्म के उन्नयन और विकास में महत्त्वपूर्ण योग दिया । उसने राजस्थान में कई जैन मन्दिर बनाये । यह भी कहा जाता है कि वीर निर्वाण संवत् २०३ में श्रार्य सुहस्ती के द्वारा उसने घांवणी में पद्मप्रभ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करायी थी । विक्रम की दूसरी शती में बने मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से प्रति प्राचीन स्तूप और जैनमन्दिर के ध्वंसावशेष मिले हैं जिनसे ज्ञात होता है कि राजस्थान में उस समय जैनधर्म का अस्तित्व था । केशोरायपाटन में गुप्तकालीन एक जैनमन्दिर के अवशेष से, सिरोही क्षेत्र के बसन्तगढ़ में प्राप्त भगवान् ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा से जोधपुर क्षेत्र के श्रोसियाँ नामक गांव के महावीर मन्दिर के शिलालेख से, कोटा की समीपवर्ती जैन गुफाओं से, उदयपुर के पास स्थित आयड़ के पार्श्वनाथ मन्दिर और जैसलमेर के लोदरवा स्थित जिनेश्वर सूरि की प्रेरणा से निर्मित पार्श्वनाथ के मन्दिर से यह स्पष्ट होता है कि राजस्थान में जैनधर्म का प्रचार ही नहीं था, वरन् सभी क्षेत्रों में उसका अच्छा प्रभाव भी था । Jain Education International For Private & Personal Use Only धम्मो दीवो संसार समुद्र धर्म ही दीय है www.jainelibrary.org

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