Book Title: Rajasthani Sahitya ko Jain Sant Kaviyo ki Den Author(s): Narendra Bhanavat Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 2
________________ चतुर्थ खण्ड / २०८ अजमेर क्षेत्र में भी जैनधर्म का व्यापक प्रभाव रहा। यहाँ के राजा वीराज के मन में श्री जिनदत्त सूरि के प्रति विशेष सम्मान का भाव था। जिनदत्त सूरि मरुधरा के कल्पवृक्ष माने गये हैं। उनका स्वर्गवास अजमेर में हुआ । दादाबाड़ियों का निर्माण उन्हीं से शुरु हुआ। कुमारपाल के समय में हेमचन्द्र की प्रेरणा से जैनधर्म का विशेष प्रचार हुना। प्राबू के . जैनमन्दिर जो अपनी स्थापत्यकला के लिए विश्वविख्यात हैं, उसी काल में बने । पन्द्रहवीं शती में निर्मित राणकपुर का जैनमन्दिर भी भव्य और दर्शनीय है। इसके स्तम्भ अपने शिल्प और कलात्मकता के लिए प्रसिद्ध हैं। जयपुरक्षेत्रीय श्री महावीरजी और उदयपुर क्षेत्रीय श्री केसरियानाथजी के मन्दिर ने जैनधर्म की प्रभावना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। ये तीर्थस्थल सभी धर्मों व वर्गों के लिए श्रद्धाकेन्द्र बने हुए हैं। इस क्षेत्र के मीणा और गूजर लोग भगवान महावीर और ऋषभदेव को अपना परम आराध्य मानते हैं। यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि महावीर के निर्वाण के लगभग ६०० वर्ष बाद जैनधर्म दो मतों में विभक्त हो गया-दिगम्बर और श्वेताम्बर । जो मत साधुनों की नग्नता का पक्षधर था और उसे ही महावीर का मूल प्राचार मानता था, वह दिगम्बर कहलाया । यह मूल संघ नाम से भी जाना जाता है। और जो मत साथुओं के वस्त्र, पात्र का समर्थन करता था, वह श्वेताम्बर कहलाया। आगे चलकर दिगम्बर सम्प्रदाय कई संघों में विभक्त हो गया, जिनमें मुख्य हैं--- द्राविड़संघ, काष्ठासंघ और माथुरसंघ। कालान्तर में शुद्धाचारी, तपस्वी दिगम्बर मुनियों की संख्या कम हो गई और नये भट्टारक वर्ग का उदय हुआ जिसकी साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सेवायें रही हैं। जब भट्टारकों में शिथिलाचार पनपा तो उसके विरुद्ध सत्रहवीं शती में एक नये पंथ का उदय हुआ जो तेरहपंथ कहलाया। इस पंथ में टोडरमल जैसे विद्वान् दार्शनिक हुए । श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी आगे चलकर दो भागों में बंट गयाचैत्यवासी और वनवासी। चैत्यवासी उग्रविहार छोड़कर मन्दिरों में रहने लगे। कालान्तर में श्वेताम्बर सम्प्रदाय कई गच्छों में विभक्त हो गया। इनकी संख्या ८४ कही जाती है। इनमें खरतरगच्छ व तपागच्छ प्रमुख हैं। कहा जाता है कि वर्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि ने गुजरात के अणहिलपुर पट्टण के राजा दुर्लभदेव की सभा में जब चैत्यवासियों को परास्त किया तो राजा ने उन्हें 'खरतर' नाम दिया और इस प्रकार खरतरगच्छ नाम चल पड़ा। तपागच्छ के संस्थापक श्री जगतचन्द्र सूरि माने जाते हैं। संवत् १२८५ में उन्होंने उग्रतप किया । इस उपलक्ष्य में मेवाड़ के महाराणा ने इन्हें 'तपा' उपाधि से विभूषित किया। तब से यह गच्छ 'तपागच्छ' नाम से प्रसिद्ध हुआ। खरतरगच्छ और तपागच्छ दोनों ही मूर्ति-पूजा में विश्वास करते हैं। चौदहवीं-पन्द्रहवीं शती में संतों ने धर्म के नाम पर पनपने वाले बाह्य प्राडम्बर का विरोध किया, इससे भगवान् की निराकार उपासना को बल मिला। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानकवासी और तेरापंथ प्रमूर्तिपूजक हैं। ये मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते । स्थानकवासियों का सम्बन्ध गुजरात की लोकागच्छ परम्परा से रहा है। राजस्थान में यह परम्परा शीघ्र ही फैल गयी और जालौर, सिरोही, जैतारण, नागौर, बीकानेर आदि स्थानों पर इसकी गद्दियाँ प्रतिष्ठापित हो गयीं। इस परम्परा में जब आडम्बर बढ़ा तब जीवराजजी, हरजी, धन्नाजी पृथ्वीचन्दजी, मनोहरजी आदि पूज्य मुनियों ने तप-त्याग मूलक सद्धर्म का प्रचार किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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