Book Title: Rajasthan me Prachin Itihas ki Shodh Author(s): Devilal Paliwal Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 2
________________ डॉ. देवीलाल पालीवाल : राजस्थान के प्राचीन इतिहास की शोध : ६३१ पाह. भारतीय इतिहास की खोज करने लगे. समय समय पर कतिपय जर्मन, अंग्रेज, इटालियन पुरातत्त्ववेत्ता एवं विद्वान् भारतवर्ष आये और उन्होंने राजस्थान के विभिन्न स्थानों में भ्रमण किया और उस बहुमूल्य सामग्री का संग्रह किया, जिसे सामान्यतः भारतीय महत्त्वहीन मानते थे. शोध के इन प्रयत्नों से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात जो प्रकाश में आई, वह यह कि प्राचीन साहित्य सामग्री को संग्रहीत करने तथा समकालीन साहित्य की रचना करने की दृष्टि से जैन-सम्प्रदाय ने लम्बे काल तक इस प्रदेश की भारी सेवा की. राजस्थान एवं राजस्थान के बाहर मध्ययुग के दौरान में जो भी पुस्तकालय बनाये गये एवं रक्षित किये गये, उनका सर्वाधिक श्रेय जैन विद्वानों को है. अंग्रेजों द्वारा प्रारम्भ में प्रायः राजस्थान को शौर्य, सभ्यता एवं ज्ञान की दृष्टि से एक महत्त्वहीन प्रदेश माना जाता रहा. मराठों की शक्ति के अभ्युदय ने राजपूतों की शक्ति को क्षीण एवं तहस-नहस कर दिया था, इसलिए राजपूतों की शक्ति, शौर्य एवं प्रभाव के महत्त्व को समझ नहीं पाये थे. उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उत्तरी भारत के अपने विजय-प्रयाण के दौरान में जब वे राजपूतों के सम्पर्क में आये तो उनका एक नवीन प्रकार की शक्ति से सम्पर्क हुआ. टाड ने सहसा कहा : 'राजस्थान में कोई छोटा राज्य भी ऐसा नहीं है, जिसमें थर्मोपोली जैसी रणभूमि न हो और शायद ही कोई ऐसा नगर मिले जहाँ सियोनिडास जैसा वीर पुरुष उत्पन्न न हुआ हो.' विदेशी अंग्रेज जाति के लिये यह बात एक बड़ा रहस्योद्घाटन थी. राजस्थान के प्राचीन इतिहास की उत्कट वीरता, त्याग और बलिदान की बातों को सुनकर वे चकाचौंध-से हो गये और आगे वे राजपूत जाति को अपना मित्र एवं हमदर्द बनाये रखने की आकांक्षा रखने लगे. पांचवीं शताब्दी से लेकर १२ वीं शताब्दी का काल राजस्थान के इतिहास का बहुत महत्त्वपूर्ण युग रहा. इसी काल में बाह्य जातियाँ हूण, गूजर आदि बलूचिस्तान और सिन्ध के मार्ग से उत्तरी और पश्चिमी भारत में आयीं. ऐसा माना जाता है कि उनमें से गूजर, सर्वप्रथम, जब कि वे दक्षिणी पंजाब से खदेड़े गये, राजस्थान में आये. यहाँ आने पर इन लोगों ने कई भागों में बँटकर दक्षिणी राजस्थान के मारवाड़ प्रदेश के नागौर व भिन्नमाल तथा मेवाड़, अजमेर आदि में अपने राज्यों की स्थापना की. गूजरों के बाद प्रतिहार, चालुक्य, चौहान, परमार, कछवाहा आदि इसी प्रकार अस्तित्व में आये. इन जातियों ने इस प्रदेश में आबाद होने के बाद धीरे-धीरे अपने क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की कलाओं एवं साहित्य आदि का विकास किया, इस प्रदेश का प्राचीन इतिहास इस बात का साक्षी है कि यह प्रदेश प्राचीन काल में न राजस्थान कहलाता था, न रायथान, न रजवाड़ा और न राजपूताना. ८ वीं से १० वीं शताब्दी में तो राजस्थान का समूचा या यों कहा जाय इसका अधिकांश भाग गूर्जरत्रा कहलाता था, जैसा कि चीनी यात्री ह्वानसांग के वर्णन से प्रतीत होता है. वास्तव में राजस्थान अथवा गुजरात नाम से पुकारे जाने वाले भू-क्षेत्र बाद में बने, इसके पूर्व के गूर्जरत्रा प्रदेश में राजस्थान का दक्षिणी भाग, मेवाड़, मारवाड़, वर्तमान मालवा तथा गुजरात क्षेत्र सम्मिलित थे. यद्यपि राजपूताना अथवा राजस्थान का नाम प्राचीन नहीं है और वह नाम भारत में मुसलमानों के प्रवेश के बाद में ही धीरे-धीरे प्रचलित हुआ, पर यह स्पष्ट है इस प्रदेश में तब कई ऐसी जातियाँ बसी हुई थीं जो बाद में राजपूत कहलाईं, जिनमें प्रतिहार, गुहिलोत, चापोत्कट तथा चाहमाण प्रमुख थीं. गूर्जरत्रा काल में इस क्षेत्र में साहित्य एवं कला का जो विकास हुआ उसका भारी ऐतिहासिक महत्त्व है. गूर्जर प्रतिहारों द्वारा मूर्तिकला एवं चित्रकला को प्रचुर मात्रा में प्रोत्साहन दिया गया था. मेवाड़ के जगत, डूंगरपुर के अमझारा तथा गुजरात की शामलाजी की प्रतिमाएँ और हर्षनाथ सीकर व मारवाड़ के कई क्षेत्रों से प्राप्त मूर्तियाँ गुप्त, पूर्व मध्यकाल तथा मध्यकाल की सुन्दर कला की परिचायिका हैं. इस युग में ताड़पत्र पर चित्रमय ग्रंथों की रचना की गई, जिनको ऊपर और नीचे ढंकने के लिए चित्रित लकड़ी की 'पटलियाँ' लगाई जाती थीं. इस प्रकार का वि० सं० १२१६ का भद्र बाहु स्वामी रचित सचित्र कल्पसूत्र जो ताड़पत्र पर 'जैन ग्रंथ भण्डार जैसलमेर' की निधि है,भारतवर्ष के पश्चिमी भाग का प्राचीन कलात्मक ग्रंथ है. इसी ग्रथभंडार की वि० सं० १२६६ की लिखी सचित्र कालकाचार्य कथा एक दूसरा ताड़पत्र ग्रंथ है. नेमिचन्दसूरिकृत वि० सं० १२६५ का प्रवचनसारोद्धार वृत्ति भी तत्कालीन चित्रकला का एक अमूल्य ग्रंथ है. यही नहीं, राजस्थान के Jan E. BUNARENENUNENENOSONEENINENESESESORIS ry.orgPage Navigation
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