Book Title: Rajasthan me Prachin Itihas ki Shodh Author(s): Devilal Paliwal Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 5
________________ Jain Edu ६३४ : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय सिक्कों किया और उदयपुर, जोधपुर, कोटा, बूंदी तथा सिरोही राज्यों में भ्रमण कर वहाँ के अनेक शिलालेख, दानपत्र, आदि का बड़ा संग्रह कर लिया. जहां वे न जा सके वहाँ से इतिहास सम्बन्धित सामग्री प्राप्त की. उनके साथ रहनेवाले एक ब्रिटिश अफसर कप्तान वाघ ने, जो चित्रकला में बड़े निपुण थे, प्राचीन मंदिरों, मूर्तियों आदि के चित्र उनके लिये तैयार किये. राजस्थान के इतिहास के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की सामग्री की प्राप्ति एवं संग्रह में टाइ को सर्वाधिक मार्गदर्शन एवं प्रेरणा यति ज्ञानचन्द्र से मिली, जो निरन्तर उनके साथ रहे. यति ज्ञानचन्द्र को टाड अपना गुरु मानते थे और यति उन्हें पृथ्वीराज रासो आदि भाषाकाव्यों का अर्थ सुनाते एवं शिलालेख आदि पढ़ते थे. कर्नल टाड राजपूताने से संस्कृत और राजस्थानी भाषा के अनेक ग्रंथ ख्यातें २० हजार प्राचीन सिक्के, कई शिलालेख तथा अन्य सामग्री अपने साथ विलायत ले गये. लंदन पहुँचने के बाद सन् १८२९ में जैसी कि आम कहावत हो गई है, उन्होंने 'राजपूताने का कीर्ति स्तम्भ' रूप ग्रंथ 'एनल्स एण्ड एंटिक्विटीज आफ राजथान' प्रकाशित किया, जिसने यूरोप भर में भारतीय सभ्यता की प्राचीनता एवं उच्चता, राजपूतों की वीरता शौर्य एवं उदारता आदि गुणों के सम्बन्ध में शोहरत फैला दी. उनका दूसरा ग्रंथ 'ट्रैवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया' उनकी मृत्यु के बाद सन् १८३९ में प्रकाशित हुआ. जिस काल में टाड ने राजपूताने की इतिहास सम्बन्धी रूप-रेखा तैयार की, उस काल में अंग्रेज पिंडारियों के विनाश एवं मराठों की पराजय में संलग्न थे, जिसमें उनको प्राचीन एवं वीर राजपूत जाति के पूर्ण सहयोग की आवश्यकता थी. इसके अलावा अंग्रेज इस बात के लिये भी सचेष्ट थे कि दिल्ली के मुगल तख्त पर बैठे मराठों के कठपुतली नामधारी मुगल शाहंशाह की बादशाहत का परम्परागत राजनैतिक प्रभाव भारत से उठ जाये, उसके लिए भी मुस्लिम विजेताओं के खिलाफ निरन्तर संघर्ष में लगे रहे. राजपूतों का नैतिक समर्थन जरूरी था. ब्रिटिश साम्राज्य की इस उद्देश्य एवं प्रयोजन की पूर्ति के प्रयत्न की एक स्पष्ट झलक हमें टाड के ग्रन्थ में मिलती है. यह कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि ब्रिटिश साम्राज्य की 'फूट डालो एवं शासन करो' की नीति का रंग भी ग्रन्थ पर चढ़ गया है, जो राजपूतों एवं मराठों, राजपूतों एवं मुगलों आदि के बीच बताये गये सम्बन्धों से प्रकट होता है. किन्तु ध्यान रखने की बात यह है कि टाड एक साम्राज्यवादी शक्ति का सेवक था, जिसके साथ उसकी जिम्मेदारियाँ और कर्त्तव्य जुड़े हुए थे. इसके अलावा उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटेन में उठ रहे साम्राज्यवादी भावनाओं के ज्वार का वह भी स्वाभाविक शिकार था. फिर भी वह उन कतिपय अंग्रेज अफसरों में था, जो भारतीयों को हेठी निगाह से नहीं देखते थे. उसकी मनोवृत्ति एवं धारणाओं पर सर्वाधिक प्रभाव राजपूतों के सम्पर्क में आने पर पड़ा और उदयपुर का सिसोदिया राजवंश तो उसके लिए विश्व इतिहास के महानतम एवं आदर्श राजवंशों में से एक हो गया. निस्संदेह ही जिस काल में, थोड़े समय में और सीमित सामग्री के आधार पर, मुख्यतः ख्यानों के आधार पर, टाड ने ग्रन्थरचना की, अनेक प्रकार की त्रुटियाँ रहना स्वाभाविक था. उन्होंने किम्बदन्तियों एवं अविश्वसनीय जनश्रुतियों का भी अत्यधिक मात्रा में समावेश किया है. फिर भी उनके ग्रंथ की एक और महत्त्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक विशेषता यह है कि उन्होंने ग्रंथ में अंग्रेजों द्वारा राजपूतों के साथ की गई सन्धियों के विपरीत आचरण करने एवं राजपूत राज्यों के आन्तरिक मामलों में मनमानी दखलंदाजी के खिलाफ भी आवाज उठाई और इसके द्वारा होनेवाले राजपूत राज्यों के स्वतंत्रता हरण के दुष्परिणाम की ओर भी स्पष्ट संकेत किया. सम्भवतः उनकी इसी मनोवृत्ति के कारण उन्हें १८२२ में यकायक भारत छोड़कर जाना पड़ा था. टाड के ग्रंथ 'राजस्थान के इतिहास' का भारतीय जन मानस पर व्यापक प्रभाव पड़ा. यह सही है कि इस ग्रंथ की कुछ बातों का ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने अपने हितों के लिये दुरुपयोग किया, किन्तु यह भी सही है कि इस ग्रंथ ने देश के कई भागों में मुख्यतः सुदूर बंगाल जैसे प्रान्त में नवजीवन का संचार किया और परोक्ष रूप से राष्ट्रीय जागृति में बड़ा योगदान दिया. इस ग्रंथ ने विश्व के सन्मुख भारतीय सभ्यता की महानता प्रकट की और मुख्यतः राजस्थान की स्थिति, तथा राजपूतों के शौर्य का यहाँ के साहित्य, कला एवं लोकजीवन के गौरवपूर्ण स्वरूप का दिग्दर्शन कराया. Ubey arendrary.orgPage Navigation
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