Book Title: Rajasthan me Prachin Itihas ki Shodh
Author(s): Devilal Paliwal
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 8
________________ Jain Educatioecomm डॉ० देवीलाल पालीवाल : राजस्थान के प्राचीन इतिहास की शोध : ६३७ आदि पर प्रकाश डाला. अशोक के काल का वैराट (जयपुर राज्य) का लेख, महाराणा कुम्भा के चतुरस्र बड़े सिक्कों एवं राजपूताने के कई पुराने सिक्कों को प्रकाश में लाने का श्रेय आपको है. श्री कार्लाइल ने भी इस प्रदेश के कई शिलालेखों एवं सिक्कों का पता लगाया, मुख्यतः शिवि जनपद की मध्यमिका ( नगरी मेवाड़) के सिक्के और मेवाड़ के प्रथम राजा गुहिल के सिक्के सबसे पहले उन्हीं को मिले थे.श्रीवैरिक ने भी इस प्रदेश का विस्तृत दौरा किया. वे मुख्यतः चित्तौड़ के कीर्तिस्तम्भ की बची हुई दो शिलाओं तथा रावल समरसिंह के समय के वि० सं० १३३० के चित्तौड़ के शिलालेख का चित्र सर्वप्रथम प्रसिद्धि में लाये. जर्मनी के डा० बूल्हर और इटली के डा० तैसीतोरी के अलावा उसी काल में कुछ अन्य विदेशी विद्वानों ने भी इस प्रदेश के ऐतिहासिक शोधकार्य में अपना योगदान दिया. 'पतंजलि के महाभाष्य' का सम्पादन करने वाले जर्मन विद्वान् डा० कीलहान (१०४०-१६०८) अंग्रेज विद्वान पीटर पिटर्सन (१०४०-१८८२) ० वे जिन्होंने १८९३ में "दी करेन्सीज आफ दी हिन्दू स्टेट्स आफ राजपूताना" नामक पुस्तक लिखी, डा० पलीट (१८४७-१९१७) एवं सेसिल बेंडाल नामक विद्वानों ने भी राजपूताना के इतिहास की कई बातों को प्रकाश में लाने का कार्य किया । अन्य भारतीय शोधकर्त्ताओं में श्वेताम्बर समुदाय के जैनाचार्य श्री विजयधर्म सूरि (१८६८-१९२२) का नाम उल्लेखनीय है, जो संस्कृत और प्राकृत के प्रकांड पंडित, दर्शनशास्त्री तथा जैन इतिहास के शोधक विद्वान थे. अपनी चतुर्मात यात्राओं के दौरान में वे स्थान-स्थान पर प्राप्त शिलालेखों का संग्रह किया करते थे. 'देवकुल पाटक' नामक पुस्तिका में उन्होंने उदयपुर के देलवाड़ा नामक स्थान तथा प्राचीन नागदा नामक स्थान से प्राप्त हुए जैन लेखों का संग्रह प्रका शित किया, इसके अतिरिक्त उनके संग्रह किये हुए लगभग ५०० शिलालेखों का एक अलग ग्रन्थ "प्राचीन लेख संग्रह भाग १ " के नाम से मुनिराज श्रीविद्याविजयजी ने १९२९ में प्रकाशित कराया था. एक अन्य विद्वान् एवं शोषक श्री मुंशी देवीप्रसाद (१८४०-१९२३) ने भी राजपूताने के ऐतिहासिक शोष के कार्य में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया. जोधपुर राज्य की सेवा में काम करते हुए उन्होंने मुगलकाल के अनेक फारसी ग्रंथों का हिन्दी में रूपान्तर किया और उदयपुर, जोधपुर, जयपुर, बीकानेर आदि के कई राजाओं के परित्र भी हिन्दी और उर्दू में प्रकाशित कराये. मुंशीजी ने स्थान-स्थान पर जाकर शिलालेखों की छापें तैयार कराई तथा प्रतिहार राजा बाउक और कक्कुक के शिलालेख और दधिमति माता के मन्दिर के गुप्त संवत् २८६ ( ई० सन् ६०८ ) के तथा जालौर आदि के शिलालेखों को पुस्तकाकार प्रकाशित किया. इसी काल में कलकत्ते के इंडियन म्युजियम के पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष श्री खानदास बनर्जी (१०८२-१९२०) ने वेस्टर्न सर्कल से राजपूताने का सम्बन्ध होने से अजमेर, उदयपुर, बीकानेर, भरतपुर आदि राज्यों का दौरा कर अनेक स्थानों तथा वहाँ के शिलालेखों आदि का विवरण लिखा, जो राजपूताने के इतिहास के लिये उपयोगी सिद्ध हुआ. इसी भांति बंगाल एशियाटिक सोसायटी की ओर से डिंगल भाषा के बच्चों का अनुसंधान करने वाले महामहोपाध्याय श्री हरप्रसाद शास्त्री (१८५६-१९३४) ने अपनी रिपोर्ट में गिल साहित्य के अलावा राजस्थान की क्षत्रिय, चारण एवं मोतीसर जातियों तथा शोखावाटी के इतिहास पर अच्छा प्रकाश डाला है. कर्नल टाड के बाद राजपूताने के इतिहास की क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रचना की दृष्टि से जिस दूसरे व्यक्ति ने कार्य अपने हाथों में लिया वह एक भारतीय एवं राजस्थानी था, दधवाड़िया गोत्र के चारण कविराजा श्यामलदास उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंह के विश्वासपात्र व्यक्ति थे. महाराणा सम्भूसिंह ने अपनी मृत्यु के पूर्व मेवाड़ के इतिहास पर एक ग्रन्थ रचना कराने का इरादा जाहिर किया था और योजना भी बनवाई थी, जिसको उनके विद्याप्रेमी उत्तराधिकारी महाराणा सज्जनसिंह ने पूरा किया. उन्होंने इस कार्य के लिये एक लाख रुपया स्वीकृत कर राज्य के वृहद् इतिहास के प्रकाशन का उत्तरदायित्व कविराजा श्यामलदास को दिया. इस महान् कार्य को सम्पन्न करने के लिये उदयपुर में अंग्रेजी, फारसी और संस्कृत जानने वाले विद्वानों को आमन्त्रित किया गया. राज्य एवं राज्य के बाहर के अनेक शिलालेखों को छाप तैयार कर मँगाई गई तथा भाटों एवं चारणों आदि से बहुमूल्य सामग्री एकत्रित की गई. यह बृहद्ग्रन्थ २७०० पृष्ठों का है और चार भागों में प्रकाशित किया गया और उसका नाम "वीरविनोद" रखा गया. Jainenibrary.org

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