Book Title: Rajasthan ke Prakrit Swetambar Sahityakar Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 3
________________ ४५८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 भारतीय कथा साहित्य में शैली की दृष्टि से इसका मूर्धन्य स्थान है। लाक्षणिक शैली में इस प्रकार की अन्य कोई भी रचना उपलब्ध नहीं होती, यह साधिकार कहा जा सकता है कि व्यङ्गोपहास की इतनी श्रेष्ठ रचना किसी भी भाषा में नहीं है । धूर्तों का व्यंग्य प्रहार ध्वंसात्मक नहीं अपितु निर्माणात्मक है। कहा जाता है कि आचार्य हरिभद्र में १४४४ ग्रन्थों की रचना की थी। किन्तु वे सभी ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं। डॉ. हर्मन जेकोबी, लायमान विन्टनित्स, प्रो० सुवाली और सुबिग प्रभति अनेक पाश्चात्य विचारकों ने हरिभद्र के ग्रन्थों का सम्पादन और अनुवाद भी किया है । १२ उनके सम्बन्ध में प्रकाश भी डाला है। जिससे भी उनकी महानता का सहज ही पता लग सकता है। उद्योतनसूरि उद्योतनसूरि श्वेताम्बर परम्परा के एक विशिष्ट मेधावी सन्त थे। उनका जीवनवृत्त विस्तार से नहीं मिलताउन्होंने वीरभद्रसूरि से सिद्धान्त की शिक्षा प्राप्त की थी और हरिभद्र सूरि से युक्ति शास्त्र की । कुवलयमाला प्राकृत साहित्य का उनका एक अनुपम ग्रन्थ है। १३ गद्य-पद्य मिश्रित महाराष्ट्री प्राकृत की यह प्रसाद पूर्ण रचना चम्पू शैली में लिखी गई है। महाराष्ट्री प्राकृत के साथ इसमें पैशाची अपभ्रश व देशी भाषाओं के साथ कहीं-कहीं पर संस्कृत भाषा का भी प्रयोग हुआ है । प्रेम और शृगार के साथ वैराग्य का भी प्रयोग हुआ है । सुभाषित मार्मिक प्रश्नोत्तर प्रहेलिका आदि भी यत्र-तत्र दिखलाई देती है। जिससे लेखक के विशाल अध्ययन व सूक्ष्म दर्शन का पता लगता है। ग्रन्थ पर बाण की कादम्बरी, त्रिबिक्रम की दमयन्ती कथा और हरिभद्रसूरि के 'समराइच्च कहा' का स्पष्ट प्रभाव है। प्रस्तुत ग्रन्थ लेखक ने ई० सन् ७७६ में जावालिपुर जिसका वर्तमान में 'जालोर' नाम है, वहां पर पूर्ण किया है ।१४ जिनेश्वरसूरि जिनेश्वर सूरि के नाम से जैन सम्प्रदाय में अनेक प्रतिभा-सम्पन्न आचार्य हुए हैं। प्रस्तुत आचार्य का उल्लेख धनेश्वरसूरि १५ अभयदेव१६ और गुणचन्द्र१७ ने युगप्रधान के रूप में किया है । जिनेश्वर सूरि का मुख्य रूप से विहार स्थल राजस्थान, गुजरात और मालवा रहा है। इन्होंने संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में रचनाएँ की। उसमें हरिभद्रकृत अष्टक पर वृत्ति, पंचलिंगी प्रकरण, वीरचरित्र, निर्वाण लीलावती कथा, षट्स्थानक प्रकरण और कहाणय कोष मुख्य है । कहाणय कोष में ३० गाथाएँ हैं और प्राकृत में टीका हैं। जिसमें छत्तीस प्रमुख कथाएँ हैं। कथाओं में उस युग की समाज, राजनीति और आचार-विचार का सरस चित्रण किया गया है। समासयुक्त पदावली अनावश्यक शब्दआडम्बर और अलंकारों की भरमार नहीं है । कहीं-कहीं पर अपभ्रंश भाषा का प्रयोग हुआ है। उनकी निर्वाण लीलावती कथा भी प्राकृत भाषा की श्रेष्ठ रचना है। उन्होंने यह कथा स० १०८२ और १०६५ के मध्य में बनाई है । पदलालित्य, श्लेष और अलंकारों से यह विभूषित है। प्रस्तुत ग्रन्थ का श्लोकबद्ध संस्कृत भाषान्तर जैसलमेर के भण्डार में उपलब्ध हुआ है । मूलकृति अभी तक अनुपलब्ध है। प्राकृत भाषा में उनकी एक अन्य रचना 'गाथाकोष' भी मिलती है। महेश्वरसूरि महेश्वर सूरि प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । वे संस्कृत-प्राकृत के प्रकाण्ड पंडित थे। इनका समय ई० सन् १०५२ से पूर्व माना गया है । ‘णाणपञ्चमी कहा१८ इनकी एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसमें देशी शब्दों का अभाव है। भाषा में लालित्य है यह प्राकृत भाषा का श्रेष्ठ काव्य है । महेश्वर सूरि सज्जन उपाध्याय के शिष्य थे ।१६ जिनदत्तसूरि जिनचन्द्र जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे । अपने लघु गुरुबन्धु अभयदेव की अभ्यर्थना को सम्मान देकर संवेग रंगशाला नामक ग्रन्थ की रचना की । रचना का समय वि० सं० ११२५ है। नवाङ्गी टीकाकार अभयदेव के शिष्य जिन वल्लमसूरि ने प्रस्तुत ग्रन्थ का संशोधन किया। संवेगभाव का प्रतिपादन करना ही ग्रन्थ का उद्देश्य रहा है। ग्रन्थ में सर्वत्र शाम्तरस छलक रहा है । EMAmy ..... - PATRA 6906 Jain Education International OE Private Personal use only reliuary.orgPage Navigation
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