Book Title: Rajasthan ke Madhyakalin Prabhavaka Jain Acharya
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Z_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf

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Page 5
________________ I साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ T LE "..."Hiiiiiiiiiiiiiiii iiiiiiiiiiiiiiIIIIIIIII जैनियों का योगदान लेख से उपलब्ध होता है । उन सभी आचार्यों ने राजस्थान में जिनशासन को बहुत गौरवान्वित किया । भट्टारक प्रभाचन्द्र ने तो अपनी गद्दी ही दिल्ली से चित्तौड़ स्थानान्तरित कर दी। पन्द्रहवीं शती के महानतम आचार्यों में सोमसुन्दरसूरि का नाम भी बहुत ऊँचा है। ये तपागच्छ के प्रमुख आचार्य थे। इन्हें रणकपुर में १४५० में वाचक पद प्रदान किया गया। बाद में ये देलवाड़ा आ गये । कल्याण स्तव आदि इनकी अनेक रचनाएँ हैं । ___ गुरु गुण रत्नाकर इनकी कृति है । उसमें मेवाड़ के सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक जीवन पर प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध होती है।' सोमसुन्दर के शिष्य मुनिसुन्दर भी विद्वान संत थे। इन्होंने देलवाड़ा में शान्तिकर स्तोत्र आदि की रचना की। ___ इन्हीं के दूसरे शिष्य सोमदेव वाचक थे। इन्हें महाराणा कुंभा ने कविराज की उपाधि से मंडित किया। महामहोपाध्याय चरित्ररत्नराशि महान आचार्य थे। १४६६ में इन्होंने दान प्रदीप ग्रन्थ चित्तौड़ में लिखा जो एक अच्छी रचना है। कविराज समयसुन्दर अपने समय के विद्वान महापुरुष थे। १६२० का इनका जन्म माना जाता है । इनका जन्म क्षेत्र और विकास क्षेत्र चित्तौड़ रहा। ये अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। इनकी रचनाए अत्यन्त लोकप्रिय हुईं। एक कहावत चल पड़ी कि समयसुन्दर का गीतड़ा और कुम्भे राणे का भींतड़ा अर्थात् ये दोनों अमर हैं । बेजोड़ हैं । प्रद्युम्न चरित्र, सीताराम चोपई, नलदमयन्ती रास आदि इनके अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। जिनशासन के गौरवशाली आचार्य परम्परा में आचार्य श्रीरघुनाथ जी म० सा० भी बड़े प्रभावक थे। यह आ० भूधरजी के शिष्य थे। इनका एक कन्या रत्नवती से सम्बन्ध भी हुआ किन्तु मित्र की मृत्यु से खिन्न हो ये मुनि बन गये । इन्होंने ५२५ मुमुक्षुओं को जैन दीक्षा प्रदान की। ये अस्सी वर्ष जिए। १७ दिन के अनशन के साथ पाली में १८४६ की माघ शुक्ला एकादशी को इनका स्वर्गवास हुआ।' जैनाचार्य जयमल्ल जी ने १७८६ में दीक्षा ग्रहण की। १३ वर्ष एकान्तर तप किया और २५ वर्ष रात में बिना सोये जप-तप करते रहे। इनकी सैकड़ों पद्य बन्ध रचनाएँ बड़ी प्रसिद्ध हैं । लगभग सारी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इनका १८५३ वैशाख शुक्ला १३ को 'नागोर' में स्वर्गवास हुआ। अठारहवीं शताब्दी में एक और प्रसिद्ध आचार्य हो गये-भिक्षु गणी। ये रघुनाथ जी म० के शिष्य थे। इनकी दीक्षा १८०८ में हुई। इनकी अनेक ढालें लिखी हुई हैं जो बड़ी प्रसिद्ध हैं ओर भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर के नाम से प्रकाशित हो चुकी हैं। ::::::::::: 1. जोहरापुरकृत भट्टारक सम्प्रदाय लेखांकन 2651 2. सोम सौभाग्य काव्य पृ० 75 श्लोक 14। 3. शोध पत्रिका भाग 6 अंक 2-3 पु. 55। 4. राणा कुम्भा पृ० 212 । 5. राणा कुम्भा पृष्ठ 212 6. राजस्ानी जैन इतिहास-अ० नु० अभि० ग्र० पृ० 464 । 7. मिश्रीमल जी म. लिखित रघुनाथ चरित्र । राजस्थान के मध्यकालीन प्रभावक जैन आचार्य : सौ

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