Book Title: Punarjanma Siddhant Pramansiddh Satyata
Author(s): Bhagvati Muni
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 3
________________ EES Jain Education International ३८० श्री goreमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड हैं, तथा मर्त्य हैं इसलिये हम अपने विचार मानव तथा मृत्युलोक तक ही सीमित रखें। चाहिये तो यह कि हम अपने जीवन के देवी अंश को जाग्रत करके अमरत्व का अनुभव करने में कोई कसर न उठा रखें ।' लूथर के अनुसार मावी जीवन के निषेध का अर्थ होता है - स्वयं के ईश्वरत्व का तथा उच्चतर नैतिक जीवन का निषेध एवं स्वैराचार का स्वीकार । फ्रांसीसी धर्म प्रचारक मेसिलॉ तथा ईसाई संतपाल के अर्थ होता है, विवेकपूर्ण जीवन का अन्त और विकारमय जीवन के फँच विचारक रेनन ने कहा है कि भावी जीवन तथा के भयंकर नैतिक तथा आध्यात्मिक पतन में होना अनिवार्य है । मैकटेगार्ट के मतानुसार आत्मा के अमरत्व की साधक युक्तियों के द्वारा ही हमारे भावी जीवन के साथ ही पूर्वजन्म की भी सिद्धि हो जाती है। एक के बिना दूसरे में विश्वास तर्कसंगत और युक्तियुक्त नहीं है । मानव वंश शास्त्री तो अपने अन्वेषणों से इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मरणोत्तर जीवन में विश्वास सभ्यता के शैशवकाल से ही व्यापक रूप से प्रचलित रहा है जो कल्पना मात्र न होकर एक निश्चयात्मक तथ्य है । आत्मा की अमरता और उसमें व्याप्य पुनर्जन्म को न मानने के कारण होने वाली हानियों की ओर भी ध्यान आकर्षित करते हुए अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं। जिसमें से कुछ इस प्रकार हैं अनुसार- देह के साथ ही आत्मा का नाश मानने का लिये द्वार मुक्त करना । आत्मा के अमरत्व में अविश्वास का पर्यवसान मानव सर हेनरी जोन्स लिखते हैं- " अमरत्व के निषेध का अर्थ होता है पूर्ण नास्तिकता । अमरत्व को स्वीकार करके ही हम पूर्णातिपूर्ण विश्वपति में तथा उसकी सुसंबद्ध एवं अर्थपूर्ण रचना में विश्वास रख सकते हैं अन्यथा यह विश्व यादृच्छिक और अविचारमूलक ही सिद्ध होगा ।" श्री प्रिंगल पेटिसन ने अपने 'अमरत्व विचार' ग्रन्थ में लिखा है- यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि मृत्यु विषयक चिन्तन ने ही मनुष्य को सच्चे अर्थ में मनुष्य बनाया है। उसके दर्शन, उसके धर्म तथा उसके सर्वश्रेष्ठ काव्य के मूल में मृत्यु तथा उसे अन्तिम तथ्य न मानने की प्रेरणा ही रही हैं।" श्री ई० एम० मेलीन के विचारों में तो आत्मा के अमरत्व का भारतीय चिन्तन ही गूंज रहा है । 'मानव की आत्मा' नामक ग्रन्थ में प्रगट किये गये उनके निम्नलिखित विचार मननीय हैं 'यदि किसी कारणवश मनुष्य जाति के मन से आत्मा के अमरत्व का सिद्धान्त अपहृत हो जाये तो क्या हो ? जिस प्रकार ताश के बड़े सारे बँगले में से नीचे के एक ताश के निकाल लेने पर जैसे सारा बँगला फहराकर गिर पड़ता है, ठीक वैसे ही मनुष्य के सारे धर्म-सिद्धान्त, उसकी पानिक श्रद्धायें, उसकी सारी दार्शनिक प्रक्रियायें इत्यादि की बड़ी-बड़ी इमारतें क्षणार्ध में विनाश के बड़े सारे ढेर में मिल जायें। मानव जाति के मन में इस मर्त्य शरीर में रहने वाली अमर आत्मा में विश्व व्यापक रूप में पाया जाने वाला विश्वास इतना बद्धमूल है कि मानो उसे विधाता ने ही यहाँ निहित किया है।' - उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि विश्व के सामान्य जन से लेकर सम्मान्य विद्वान विचारकों ने आत्मा की अमरता तथा पूर्वजन्म व मरणोत्तर जीवन में विश्वास व्यक्त किया है । स्वानुभव से भी इसी सिद्धान्त की पुष्टि होती है । इसीलिए विश्व के सभी आस्तिक दर्शनों ने आत्मा के अतीत, वर्तमान और अनागत में धारावाहिक अस्तित्व एवं अमरता का बोध कराने के लिये पुनर्जन्म सिद्धान्त का एक स्वर से समर्थन किया है। उन्होंने कहा है कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। क्योंकि आत्मा अमर है और यह अमर आत्मा मृत्यु के द्वारा पूर्व शरीर का परित्याग कर नवीन शरीर वैसे ही धारण कर लेती है जैसे कि हम आप जीर्ण-शीर्ण वस्त्र का त्याग कर यथासमय नवीन वस्त्र धारण करते हैं । पुनर्जन्म का कारण क्या है ? आत्मा स्वभावतः अजर, अमर, अविनाशी है और उसकी अमरता का बोध करने के साथ-साथ पुनर्जन्म के आधार जन्म-मरण का निषेध करने के लिये कहा गया है न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ इसके साथ ही दूसरी जगह यह संकेत भी देखने में आता है- ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मत्र्त्यलोकं विशन्ति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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