Book Title: Punarjanma Siddhant Pramansiddh Satyata
Author(s): Bhagvati Muni
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 14
________________ पुनर्जन्म सिद्धान्त: प्रमाणसिद्ध सत्यता अल्लाह प्रत्येक नये जन्म में अधिकाधिक मारफत (आत्मज्ञान) और अपने ऊपर अधिकाधिक काबू देता है और जो आदमी नेकी के स्थान पर वदी करता है, उसे अल्लाह हर एक नये जन्म में अधिक बुरी परिस्थिति में पैदा करता है जब तक कि वह पुन: लौटकर नेकी की तरफ न मुड़े । ३६१ इस प्रकार हम देखते हैं कि विश्व के सभी दर्शनों, धर्मों और प्रचलित मत-मतान्तरों ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है । पुनर्जन्म और आदिम युग का मानव भारतीय महाद्वीप में तो पुनर्जन्म का सिद्धान्त वर्तमान के सभ्यता युग से भी प्रागतिहासिक है। आयों के आगमन से पूर्व भी भारत के मूल निवासियों का यह विश्वास था कि मनुष्य मरकर वनस्पति आदि अन्य योनियों में जन्म लेता है और अन्य योनिस्थ जीव मनुष्य शरीर प्राप्त करते हैं । इन्हीं का अनुसरण करके नवागत आर्यों ने अपने धर्म-ग्रन्थों में पुनर्जन्म के व उसके कारण कर्म सिद्धान्त को स्थान दिया और उससे उनकी तार्किक एवं नैतिक चेतना को सन्तोष मिला जो उपनिषदों के चिन्तन से स्पष्ट हो जाता है । चीनी साहित्य के प्राचीन ग्रन्थों को देखने से ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि बौद्ध धर्म के प्रचार से पूर्व वहाँ के निवासी परलोक और पुनर्जन्म सिद्धांत पर विश्वास करते थे । अफ्रीका और अमेरिका के आदि निवासियों को भी पुनजन्म का सिद्धांत मान्य वा यूरोप के जिन यात्रियों ने पहले अफ्रीका की यात्रा की उन्होंने लिखा है कि कई स्थानों के लोग पुनर्जन्म को मानते थे । इसी प्रकार प्रारम्भ में जो लोग अमेरिका गये उन्हें ज्ञात हुआ कि वहाँ के मूल निवासी इस सिद्धांत पर पूर्ण विश्वास रखते थे और अभी भी उनमें यह विश्वास पाया जाता है। मौल्डी नामक एक पुरातत्ववेत्ता ने इन जन-जातियों द्वारा लकड़ी और पत्थरों पर बनाये चित्रों के आधार से लिखा है कि इन लोगों का यह विश्वास सार्वजनिक था कि आत्मा मृत्यु होने पर शरीर से पृथक् हो जाती है । कुछ जातियों का विश्वास था कि आत्मा मरकर पुन: उसी शरीर में आ जाती है, इसीलिए वे शव में मसाला लगाकर देर तक सुरक्षित रखते थे । किन्तु कई जातियाँ ऐसी भी थीं जो मृत्यूपरांत आत्मा का नये नये शरीर में जन्म लेना मानती थीं। पुनर्जन्म और पाश्चात्य मनीषी पूर्व की तरह पश्चिम जगत में भी पुनर्जन्म सिद्धांत के बारे में विचार होता रहा है। प्रत्येक देश के मूल निवासियों में पुनर्जन्म सिद्धांत सर्वमान्य था । लेकिन बहुत से अर्वाचीन पाश्चात्य विद्वानों का यह मत है कि पुनर्जन्म का सिद्धांत वास्तविक नहीं है । परन्तु उन लोगों का यह मत सर्वथा भ्रान्त है । क्योंकि स्वयं पाश्चात्य विश्व के दार्शनिकों, लेखकों व वैज्ञानिकों ने अपने अनुसन्धानों द्वारा पुनर्जन्म के सिद्धांत का समर्थन किया है । प्राचीन यूनान के महान दार्शनिक तथा वैज्ञानिक पाइथागोरस का विचार था कि 'साधुता की पालना करने पर आत्मा का जन्म उच्चतर लोकों में होता है और दुष्कृत आत्मायें निम्न पशु आदि योनियों में जाती हैं । यदि मनुष्य अनियन्त्रित इन्द्रियों की दासता से छुटकारा पा सके तो वह बुद्धिमान बन जाता है और जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा पा जाता है । सुकरात का मन्तव्य था कि मृत्यु स्वप्नविहीन निद्रा है और पुनर्जन्म जाग्रत लोक के दर्शन करने का द्वार । प्लेटो भी यही मानते थे और उनका विचार था कि कामना ही पुनर्जन्म का कारण है । मनुष्य अपने पूर्वजन्मों का स्मरण कर सकता है तथा उसे यदि जीवन के बन्धन को काटना है तो उसे सब प्रकार के भोग-विलासों को तिलांजलि देनी होगी । ओरिजेन ने कहा है - देवी भगवद् विधान हरएक के बारे में उसकी प्रवृत्ति, मन तथा स्वभाव के अनुसार ही निर्णय करता है । मानवीय मानस कभी तो अच्छाई से और कभी बुराई से प्रभावित हो जाता है । इस कारण परम्परा भौतिक शरीर के जन्म से भी अधिक पुरानी है । Jain Education International दार्शनिक महात्मा आर्फ्यूस के मतानुसार पापमय जीवन बिताने पर आत्मा घोर नरक में जाती है और पुनर्जन्म के बाद उसे मनुष्य कीट, पशु, पक्षी आदि के शरीर में रहता पड़ता है। पवित्र जीवन बिताने पर आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पा जाती है और स्वर्ग में जाती है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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