Book Title: Punarjanma Siddhant Pramansiddh Satyata
Author(s): Bhagvati Muni
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .० ३७८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थखण्ड +++++++++++++ पुनर्जन्म सिद्धांत: प्रमाणसिद्ध सत्यता * श्री भगवतीमुनि 'निर्मल' सनातन प्रश्न प्रायः सभी सज्ञान सचेतन प्राणधारियों, मनुष्यों के जीवन में किसी न किसी समय यह प्रश्न आये बिना नहीं रहता है कि 'कोऽहं कुतः आयातः मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाऊँगा ? प्रश्न बहुत स्पष्ट है, लेकिन अनभिज्ञ एवं अल्पज्ञ व्यक्ति तो इस प्रश्न को किसी न किसी प्रकार टालने का प्रयास करते हैं और प्रयास करने पर भी जब सफल नहीं होते हैं, स्वयं समाधान के किसी निश्चित केन्द्र बिन्दु पर नहीं आ पाते और दूसरों की जिज्ञासाओं का समाधान नहीं कर पाते तो कह बैठते हैं यावज्जीवेद् सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्यः पुनरागमनं कुतः ॥ जब तक रहो सुख, भोग-विलास में जीवन को बिताओ, सुख के साधन स्वयं के पास न हों तो दूसरों से उधार ले लो और उधार भी न मिलते हों तो येन-केन-प्रकारेण उन पर अधिकार कर लो किन्तु सुखपूर्वक रहो। क्योंकि इस शरीर के नष्ट हो जाने पर पुनः यह शरीर मिले या न मिले कुछ निश्चित नहीं है, अतः वर्तमान की उपेक्षा करके भावी के वात्याचक्र में मटकते रहना कौनसी बुद्धिमानी है ? लेकिन विवेकशील विद्वानों का यह दृष्टिकोण नहीं रहता है। अधिकांश विद्वान् विचार करके थक जाते हैं और उत्तर शायद ही पाते हैं, परन्तु उपेक्षणीय नहीं मानते हैं। क्योंकि ये प्रश्न सनातन हैं और समाधान के प्रयास भी पुरातन हैं। अतीत काल से ही यह खोज सभी देशों, सभी मतों और सभी दर्शनों में की जा रही है। दर्शनों के आविर्भाव, उत्पत्ति का यही प्रश्न मूल आधार है। दार्शनिकों ने विभिन्न रीति से उत्तर दिये हैं और अपने-अपने विचार प्रदर्शित किये हैं । इस प्रश्न पर विचार परामर्श किये बिना उन उन दर्शनों के आध्यात्मिक सिद्धान्त को स्थापित करना असंभव एवं कठिन है । प्रश्न की जटिलता का कारण प्रश्न की जटिलता के रहस्य का अन्वेषण करने पर हमें दो स्थितियाँ दृष्टिगोचर होती हैं पहली, हमारे अन्तर में व्याप्त तत्व जिसे आत्मा कहते हैं उसे सभी आस्तिकवादी दार्शनिकों ने अच्छेद्य, अदाह्य, नित्य, सनातन माना है । दूसरी बात उसका जन्म और मरण के बीच अवस्थान है— जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु व जन्ममृतस्य च । वेद, उपनिषद् आगम, त्रिपिटक, अवेस्ता, बाईबिल आदि से लेकर अधुनातन बाङमय में इन्हीं दो बातों का विचार किया गया है । सभी का बीज प्रश्न यही है । आत्मा की सनातनता स्वानुभाव प्रत्यक्ष सिद्ध होने पर भी भले ही कोई उसे 'प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध नहीं है', यह कहकर उपेक्षा कर दे । पर जन्म और मरण हमारे दैनंदिन अनुभव के विषय हैं, वे प्रत्यक्ष हैं। प्रतिदिन किसी न किसी के जन्म और मरण के दृश्य हम देखते रहते हैं, तथापि यह नहीं कहा जा सकता है कि सभी इनके वास्तविक रहस्य से परिचित हैं । अपरिचित रहने का कारण यह है कि इन्हीं के कार्यरूप पूर्वजन्म-पुनर्जन्म और परलोक तथा इन सबका अन्तिम पर्यवसान जिसमें होता है वह अमृतत्व रूप मोक्ष इत्यादि चाक्षुष प्रत्यक्ष प्रमाण गोचर नहीं हैं । इसीलिये ये विषय अनादि काल से विवादास्पद रहे हैं और जिज्ञासा के निकष पर पुनः पुनः परीक्षणीय रहे हैं । जिसका संकेत मिलता है मुमुक्षु बालक नचिकेता द्वारा यमराज से पूछे गये प्रश्न से कि Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये प्रेते विचिकित्सा मनुष्यतीत्येकेनायमस्तीति पंके। अर्थात् मृत मनुष्यों के विषय में यह संदेह है कि कोई तो कहते हैं, वह रहता है और कोई कहता है नहीं रहता है, इसमें सचाई क्या है ? पुनर्जन्म सिद्धान्त: प्रमाणसिद्ध सत्यता ३७६ प्रस्तुत विषय का महत्व विवादास्पद विषय विचारणीय होते हैं और विवाद सत्य के प्रकाशन एवं असत्य के परिमार्जन के लिये होता है, यह एक सामान्य नियम है । अतएव पुनर्जन्म, परलोक आदि ये विषय विवादास्पद हैं और विवादास्पद इसलिये हैं। कि प्रत्यक्ष प्रमाणसिद्ध नहीं है । लेकिन इस विषय का विचार करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि प्रत्यक्ष प्रमाण ही विवाद के समाधान में एक मात्र प्रमाण नहीं है । प्रमाण विचार में अनुमान, शब्द इत्यादि अन्य प्रमाण और उनके पोषक अनुभव आदि भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनके द्वारा आत्मा की सनातनता, अमरता तथा उसके व्याप्य पूर्वजन्म, पुनर्जन्म तथा परलोक आदि की सिद्धि स्वतः स्वयमेव हो जाती है और उससे निकलने वाले निष्कर्ष व्यष्टि समष्टि पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाले बिना नहीं रहते । इन्हीं के आधार पर हमारे नैतिक, धार्मिक तथा तात्त्विक या एक शब्द में कहें तो हमारे समग्र आध्यात्मिक जीवन और संस्कृति की सिद्धि होती है। इसीलिये अध्यात्मचिन्तकों और पाँवरिय पाश्चात्य दार्शनिकों ने इनका महत्व स्वीकार किया है तथा जीवनव्यापी स्वरूप दिया है । हमारे संस्कार पूर्वजन्म और मरणोत्तर जीवन को मानते हैं। हमें ऐसा कभी अनुभव नहीं होता है कि हम पूर्व में नहीं थे और उत्तरकाल में नहीं रहेंगे। हमारा धर्मं तथा दर्शन इहलोक तक ही सीमित नहीं है किन्तु पग-पग पर जन्मान्तर तथा परलोक को भी दृष्टि पथ में रखे हुए है। इसी प्रकार हमारा जीवन व्यापी साधनरूप धर्म मनुष्य को साक्षात् या परम्परा या आत्म-साक्षात्कार रूप परम निश्रेयस् यानी मोक्ष रूप परम पुरुषार्थ की ओर ही प्रवृत्त करता है । पुनर्जन्म और परलोक की मान्यता को भौतिकवादी पाश्चात्य दार्शनिकों ने कितना महत्व दिया है ? इसका संकेत तो यथाप्रसंग प्रस्तुत किया जायेगा, लेकिन हम भारतीयों के लिये मरणोत्तर जीवन का कितना महत्व है, यह पढ़िये भारतीयदर्शन के अनन्य प्रेमी जर्मन् विद्वान पाल डायसन के 'उपनिषद् दर्शन' नामक ग्रन्थ के निम्नलिखित अवतरण में 'मरणोत्तर मनुष्य की क्या गति होती है ? यह प्रश्न हमें जीवात्मा के पुनर्जन्म के सिद्धान्त की ओर ले जाता है जोकि भारतीय दर्शन का अत्यन्त मौलिक और प्रभावकारी सिद्धान्त है और जो उपनिषद काल से लेकर आज तक भारतीय चिन्तन में प्रमुख स्थान रखता है ।' पाश्चात्य विचारकों का समर्थन पौर्वात्य और विशेषतया भारतीय दार्शनिकों ने सर्वानुमति से पूर्वजन्म और मरणोत्तर जीवन-परलोक का समर्थन किया है। उनकी दृष्टि में तो आत्मा की उन्नति तथा जगत् में धार्मिक माव, सुख-शांति के विस्तार तथा पापों से बचने के लिये परलोक और पुनर्जन्म को मानना आवश्यक है । वे अपने शोधकार्य से यह खोज निकालने में सफल रक्त-माँस के संयोग से ही बना है, किन्तु यह हुए हैं कि मनुष्य का शरीर अस्थि मज्जा का ढाँचा मात्र नहीं है और न अनन्त अक्षय आत्मा का व्यक्तिकरण है । इस दृश्यमान भौतिक शरीर की अनेक बार मृत्यु हो सकती है और पुनरपि प्राप्ति भी। लेकिन सूक्ष्म शरीर अपनी सहज दिव्यता की प्राप्ति तक बना रहता है। यह आत्मा सुख-दुख विजय-पराजय, नामसाम आदि के इन्हों से अनेक अनुभवों को संचित करती है, प्रतिक्षण अच्छी-बुरी शिक्षायें ग्रहण करती है और जब तक कामनाओं का संयोग बना रहता है तथा अपने सुरक्षित स्थान पर नहीं पहुँच जाती तब तक जन्म-मरण के चक्र में भटकती रहती है प्रकार है पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम् । पाश्चात्य विचारों ने भी पुनर्जन्म के बारे में इसी तरह के विचार व्यक्त किये हैं। जिनका सारांश इस सुप्रसिद्ध यूनानी तत्ववेत्ता प्लेटो ने जो दर्शन की व्याख्या की है, उसका केन्द्रबिन्दु पुनर्जन्म माना है। प्लेटो के सुयोग्य शिष्य अरस्तू तो पुनर्जन्म को मानने के लिये इतने आग्रहशील थे कि उन्होंने अपने सम कालीन दार्शनिकों को संबोधित करते हुए कहा - 'हमें इस मत का कदापि आदर नहीं करना चाहिये कि चूंकि हम मानव Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EES ३८० श्री goreमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड हैं, तथा मर्त्य हैं इसलिये हम अपने विचार मानव तथा मृत्युलोक तक ही सीमित रखें। चाहिये तो यह कि हम अपने जीवन के देवी अंश को जाग्रत करके अमरत्व का अनुभव करने में कोई कसर न उठा रखें ।' लूथर के अनुसार मावी जीवन के निषेध का अर्थ होता है - स्वयं के ईश्वरत्व का तथा उच्चतर नैतिक जीवन का निषेध एवं स्वैराचार का स्वीकार । फ्रांसीसी धर्म प्रचारक मेसिलॉ तथा ईसाई संतपाल के अर्थ होता है, विवेकपूर्ण जीवन का अन्त और विकारमय जीवन के फँच विचारक रेनन ने कहा है कि भावी जीवन तथा के भयंकर नैतिक तथा आध्यात्मिक पतन में होना अनिवार्य है । मैकटेगार्ट के मतानुसार आत्मा के अमरत्व की साधक युक्तियों के द्वारा ही हमारे भावी जीवन के साथ ही पूर्वजन्म की भी सिद्धि हो जाती है। एक के बिना दूसरे में विश्वास तर्कसंगत और युक्तियुक्त नहीं है । मानव वंश शास्त्री तो अपने अन्वेषणों से इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मरणोत्तर जीवन में विश्वास सभ्यता के शैशवकाल से ही व्यापक रूप से प्रचलित रहा है जो कल्पना मात्र न होकर एक निश्चयात्मक तथ्य है । आत्मा की अमरता और उसमें व्याप्य पुनर्जन्म को न मानने के कारण होने वाली हानियों की ओर भी ध्यान आकर्षित करते हुए अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं। जिसमें से कुछ इस प्रकार हैं अनुसार- देह के साथ ही आत्मा का नाश मानने का लिये द्वार मुक्त करना । आत्मा के अमरत्व में अविश्वास का पर्यवसान मानव सर हेनरी जोन्स लिखते हैं- " अमरत्व के निषेध का अर्थ होता है पूर्ण नास्तिकता । अमरत्व को स्वीकार करके ही हम पूर्णातिपूर्ण विश्वपति में तथा उसकी सुसंबद्ध एवं अर्थपूर्ण रचना में विश्वास रख सकते हैं अन्यथा यह विश्व यादृच्छिक और अविचारमूलक ही सिद्ध होगा ।" श्री प्रिंगल पेटिसन ने अपने 'अमरत्व विचार' ग्रन्थ में लिखा है- यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि मृत्यु विषयक चिन्तन ने ही मनुष्य को सच्चे अर्थ में मनुष्य बनाया है। उसके दर्शन, उसके धर्म तथा उसके सर्वश्रेष्ठ काव्य के मूल में मृत्यु तथा उसे अन्तिम तथ्य न मानने की प्रेरणा ही रही हैं।" श्री ई० एम० मेलीन के विचारों में तो आत्मा के अमरत्व का भारतीय चिन्तन ही गूंज रहा है । 'मानव की आत्मा' नामक ग्रन्थ में प्रगट किये गये उनके निम्नलिखित विचार मननीय हैं 'यदि किसी कारणवश मनुष्य जाति के मन से आत्मा के अमरत्व का सिद्धान्त अपहृत हो जाये तो क्या हो ? जिस प्रकार ताश के बड़े सारे बँगले में से नीचे के एक ताश के निकाल लेने पर जैसे सारा बँगला फहराकर गिर पड़ता है, ठीक वैसे ही मनुष्य के सारे धर्म-सिद्धान्त, उसकी पानिक श्रद्धायें, उसकी सारी दार्शनिक प्रक्रियायें इत्यादि की बड़ी-बड़ी इमारतें क्षणार्ध में विनाश के बड़े सारे ढेर में मिल जायें। मानव जाति के मन में इस मर्त्य शरीर में रहने वाली अमर आत्मा में विश्व व्यापक रूप में पाया जाने वाला विश्वास इतना बद्धमूल है कि मानो उसे विधाता ने ही यहाँ निहित किया है।' - उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि विश्व के सामान्य जन से लेकर सम्मान्य विद्वान विचारकों ने आत्मा की अमरता तथा पूर्वजन्म व मरणोत्तर जीवन में विश्वास व्यक्त किया है । स्वानुभव से भी इसी सिद्धान्त की पुष्टि होती है । इसीलिए विश्व के सभी आस्तिक दर्शनों ने आत्मा के अतीत, वर्तमान और अनागत में धारावाहिक अस्तित्व एवं अमरता का बोध कराने के लिये पुनर्जन्म सिद्धान्त का एक स्वर से समर्थन किया है। उन्होंने कहा है कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। क्योंकि आत्मा अमर है और यह अमर आत्मा मृत्यु के द्वारा पूर्व शरीर का परित्याग कर नवीन शरीर वैसे ही धारण कर लेती है जैसे कि हम आप जीर्ण-शीर्ण वस्त्र का त्याग कर यथासमय नवीन वस्त्र धारण करते हैं । पुनर्जन्म का कारण क्या है ? आत्मा स्वभावतः अजर, अमर, अविनाशी है और उसकी अमरता का बोध करने के साथ-साथ पुनर्जन्म के आधार जन्म-मरण का निषेध करने के लिये कहा गया है न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ इसके साथ ही दूसरी जगह यह संकेत भी देखने में आता है- ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मत्र्त्यलोकं विशन्ति । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्जन्म सिद्धान्त : प्रमाणसिद्ध सत्यता __ अर्थात् यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मती है और न मरती ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाली है। क्योंकि यह अजन्मा है, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारी जाती है। वह स्वर्गलोक के सुखों को भोगने के अनन्तर पुण्य के क्षीण होने पर मर्त्यलोक में आती है। इस प्रकार आत्मा को अजर, अमर, अविनाशी मानकर भी जन्म-मरणधर्मा मानना एक दूसरे के विपरीत कथन है और उस स्थिति में पुनर्जन्म का आधार क्या है ? इस जिज्ञासा का समाधान करने एवं अजर आत्मा के पुनजन्म के आधार को स्पष्ट करने के लिए उत्तर होगा कि पुनर्जन्म का कारण कर्म हैं। उसका फल भोगने के लिए ही पुनर्जन्म लेना पड़ता है। वैसे तो कर्म शब्द का सामान्य अर्थ क्रिया, कर्म, व्यापार आदि है लेकिन इतने मात्र से ही कर्म का वास्तविक आशय स्पष्ट नहीं होता है। अतः कर्म शब्द में गर्मित अन्तर्रहस्य को समझने के लिए हमें इस दृश्यमान जागतिक व्यवस्था पर दृष्टिपात करना होगा। हमारा यह दृश्यमान जगत परस्पर विरुद्ध गुणधर्म वाले दो प्रकार के पदार्थों की संरचना का परिणाम है । एक प्रकार के पदार्थ वे हैं-जिनमें ज्ञान है, इच्छाएँ हैं और सुख-दुःख का अनुभव करने की क्षमता है और दूसरे प्रकार के पदार्थ वे हैं जिनमें प्रथम प्रकार के बताये गये पदार्थों का कोई गुण धर्म नहीं है । इन दोनों प्रकार के पदार्थों में से प्रथम को सचेतन (जीव) और द्वितीय को अचेतन (अजीव) कहते हैं । जीव की प्रवृत्ति में जीव स्वयं भावात्मक और क्रियात्मक पुरुषार्थ करता है और अजीव की प्रवृत्ति साहजिक रूप से बिना किसी प्रयत्न पुरुषार्थ के होती रहती है। दोनों का शुद्ध रूप तो हमें दिखाई नहीं देता है किन्तु विविध स्कन्धों से मिश्रित अजीव अथवा अजीव संश्लिष्ट जीव को ही देखते हैं। उनके यह दृश्यमान रूप विकारजन्य हैं । विभिन्न चिन्तकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से इसका विचार किया है। सचेतन और अचेतन दोनों प्रकार के पदार्थ सक्रिय हैं। उनमें अपनी-अपनी क्रिया होती है । उनके अपने अपने स्वभाव हैं । स्वभाव को वे दोनों अतिक्रमण नहीं करते हैं । अतः स्वभाव से मेल खाने वाली क्रिया और समान गुण धर्म वाला पदार्थ सजातीय कहलाता है और उससे भिन्न विजातीय । जब समान गुण-धर्म वाले पदार्थ का संयोग होता है तो उनमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता है किन्तु विरुद्ध गुण-धर्म वाले पदार्थ के मिलते ही विकार पैदा हो जाता है और उस स्थिति में वे विकारी कहलाने लगते हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि अचेतन और सचेतन दोनों प्रकार के पदार्थ सक्रिय हैं, क्रियाशील हैं अतः क्रिया के फलस्वरूप अचेतन में विजातीय द्रव्य के मिलने से विकार तो उत्पन्न होता है किन्तु वह अपनी ओर से प्रतिक्रिया नहीं करता है । जबकि सचेतन की यह अपनी विशेषता है कि विजातीय द्रव्य के साथ संयोग होने पर प्रतिक्रिया करता है। यह प्रतिक्रिया दो प्रकार की होती है-ग्रहण और त्याग रूप। ग्रहणात्मक क्रिया से विकृत और त्याग रूप क्रिया से अविकृत-शुद्ध बनता है । त्याग क्रिया से स्वभावस्थ और ग्रहण क्रिया से विकारग्रस्त होता है। इस कथन का फलितार्थ यह हुआ कि सचेतन के लिए अचेतन विजातीय पदार्थ है और जब सचेतन के साथ अचेतन का संयोग होता है तब उसमें विकार उत्पन्न हो जाता है । इस संयोग और तज्जन्य विकार रूप कार्य को दार्शनिक भाषा में कर्म या अन्य समानार्थक शब्दों से कह सकते हैं। कर्म शब्द के सामान्य अर्थ कार्य आदि का ऊपर संकेत किया जा चुका है। लेकिन इतने मात्र से ही कर्म का वास्तविक अर्थ स्पष्ट नहीं हो जाता है। इसीलिए दार्शनिकों ने कर्म शब्द का विलक्षण ही अर्थ किया है जिसमें क्रिया की प्रधानता तो है ही, लेकिन वह क्रिया किसकी और उससे क्या उपलब्धि होती है, इसको स्पष्ट करने के लिए बताया है कि राग-द्वेष से संयुक्त संसारी आत्मा के अन्दर प्रति समय परिस्पन्दनात्मक क्रिया होती है और उसके निमित्त से आत्मा के साथ एक प्रकार का अचेतन द्रव्य आकर्षित होता है और वह रागद्वेष का निमित्त पाकर आत्मा के साथ बँध जाता है। वह संबद्ध द्रव्य समय पाकर अपना विपाकदर्शन कराता है, सुख-दुःख रूप फल देने लगता है, उसे कर्म कहते हैं। कर्म शब्द का आशय अभिव्यक्त करने के लिए दार्शनिक जगत में विभिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है । जैसे माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, भाग्य आदि । इनका मूल अर्थ करीब-करीब वही है जो कर्म में अन्तनिहित भाव है। आत्मा स्वभावतः यद्यपि शुद्ध-बुद्ध है और यह स्थिति संसारातीत आत्मा को होती है, लेकिन जब तक संसार में है, शरीर इन्द्रियों आदि का संयोग बना हुआ है तब तक उसमें राग-द्वेष रूप परिणति करने का भी स्वभाव है। इस Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ++++rammeruporn-stamirmireonimurturerimi.mmmm...saree.. LAN रागद्वेषात्मक स्वभाव के कारण वह कर्मबद्ध हो जाती है और उसके फलस्वरूप कितनी ही आत्मायें शरीर धारण करने के लिए देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों को प्राप्त होती हैं और कितनी ही स्थावर (वृक्षादि) योनियों को प्राप्त होती हैं । संसारी आत्माओं को शरीर आदि की प्राप्ति की एक क्रमबद्ध परम्परा है जिसको निम्न प्रकार से स्पष्ट समझा जा सकता है जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गवि सुगदि । गविमधगदस्स देहो देहादो इन्द्रियाणि जायन्ते । तेवि दुवि सयग्गहणं तत्तो रागो व बोसो वा। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि ॥ परलोक और पुनर्जन्म का प्रश्न संसारी आत्मा के साथ जुड़ा हुआ है। वह गति से गत्यन्तर कैसे होता है, वहां वह क्या प्राप्त करता है ? आदि का संक्षेप में ऊपर संकेत किया गया है कि जो जीव संसार में स्थित है उसके राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं इन परिणामों के होने में निमित्त बनता है उनके मन, वचन, काया का परिस्पन्दन। इन परिस्पन्दन से कर्मों का आस्रव होता है और कर्मास्रव होने से परभव सम्बन्धी गति आदि का बंध हो जाता है। जब वर्तमान भव को समाप्त करने के बाद यानी मृत्यु के उपरांत उस गति को प्राप्त करता है तो तदनुकूल शरीर की प्राप्ति होती है, उस शरीर में अंगोपांग इन्द्रियों का सुयोग बनता है। इन्द्रियों से अपने योग्य विषयों का ग्रहण होता है। यदि मनोज्ञ विषयों का ग्रहण हो गया तो राग और अमनोज्ञ विषयों का ग्रहण हुआ तो द्वेष, इस प्रकार रागद्वेष का क्रम चलता रहता है और इन राग-द्वेष रूप भावों से पुनरपि जननं पुनरपि मरणम् इस प्रकार जन्म-मरण रूप संसार का चक्र अपनी अबाधगति से चलता है। - इसी बात को विभिन्न दार्शनिकों ने अपने-अपने शब्दों में स्पष्ट किया है। जैसे कि सांख्य दार्शनिकों ने कहा है कि आत्मनो भोगायतनं शरीरम्-इस जीव को सुख-दुःख के भोगों के लिए बार-बार एक शरीर से दूसरे शरीर में भटकना पड़ता है । यदि जन्म-जन्मान्तर नहीं होते तो जीव की अनेक अवस्थाएं देखने में क्यों आतीं ? जन्मादि की व्यवस्था से ही यह सिद्ध होता है कि पुरुष (जीव, आत्मा) बहुत हैं। जन्मना कर्म और कर्मणा जन्म शृखलाएं चलती रहती हैं । ये सिलसिले मोक्ष तक बने रहते हैं । यह अनेकत्व बद्ध-पुरुषों की अपेक्षा होता है मुक्त-पुरुषों की अपेक्षा नहीं। महर्षि पतंजलि ने भी कर्म को पुनर्जन्म का कारण मानते हुए कहा है कि 'सतिमूले तद्विपाको जात्यायु गाः' अर्थात् अविद्या आदि क्लेशों की जड़ रहने तक उस कर्माशय का परिणाम जन्म, आयु और भोग होता है । निश्चित काल तक किसी जीवात्मा का एक शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहना आयु कहलाती है और इन्द्रियों के विषय रूप, रस, गंध शब्द और स्पर्श ये भोग हैं । क्लेश जड़ हैं और उन जड़ों से कर्माशय वृक्ष वृद्धिंगत होता है । उस वृक्ष में जन्म, आयु और भोग यह तीन प्रकार के फल लगते हैं। यह वृक्ष तभी तक फल देता रहता है जब तक अविद्या आदि जड़ें विद्यमान रहती हैं। उनसे संस्कार उत्पन्न होते हैं । इन संस्कारों के फलस्वरूप जन्म, आयु, भोगरूप फल भोगने के लिए विभिन्न योनियों में जाना पड़ता है। __ अन्य दार्शनिकों ने भी इसी प्रकार पुनर्जन्म के लिए कारण रूप में कर्म को मान्यता दी है और जन-साधारण की धारणा को सन्त तुलसीदास के शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं करम प्रधान विश्व रचि रखा । जो जस करहि सो तस फल चाखा। पूर्वोक्त समग्र कथन का सारांश यह है कि आत्मा का यथार्थ स्वभाव चिन्मय है, न किसी का कार्य है और न कारण, न विकार है और न विकारी । लेकिन अनादिकालीन राग द्वेष-रूप परिणति के कारण जन्म-मरण के निमित्तभूत कर्मों को करती हुई जन्म-मरण के चक्र में पड़ी रहती है। इसके फलस्वरूप कभी सुख भोगती है तो कभी दुःख, कभी राजा तो कभी रंक की स्थिति में पहुंचती है, कभी देव योनि तो कभी कीट पतंग आदि क्षुद्र पशु योनियों, कभी ब्राह्मण तो कभी शूद्र, कभी बलवान तो कभी निर्बल, कभी सुरूप तो कभी कुरूप आदि न जाने कितनी-कितनी विविध उच्च-नीच योनियों और स्थितियों को प्राप्त करती रहती है। इन स्थितियों के अनुभव से पुनर्जन्म के कारणभूत शुभाशुभ कर्मों की स्थिति स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। पुनर्जन्म मानने का कारण मान लिया कि कर्म फलभोग के लिए इन शरीर-इन्द्रियों आदि की प्राप्ति होती है । लेकिन प्रश्न होता है Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्जन्म सिद्धान्त: प्रमाणसिद्ध सत्यता ३८३ ++++++++ कि पुनर्जन्म क्यों मानना चाहिए ? क्योंकि कर्म किया और उसका उसी समय फल मिल गया तो यह कैसे माना जा सकता है कि कर्मफल-भोग के लिए जन्मान्तर होना भी आवश्यक है ? और यदि जन्मान्तर, पुनर्जन्म मान भी लिया तो उससे क्या लाभ ? अनात्मवादियों, प्रकृतिवादियों या विकासवादियों के पास इसका कोई उत्तर नहीं है । यदि हम पूर्वजन्म और उत्तरजन्म से निरपेक्ष वर्तमान जीवन को ही जीवन का प्रथम प्रवेश मान लें तो हमारी चेतना परिमित हो जाती है । परन्तु यह सभी स्वीकार करते हैं कि आध्यात्मिक तथा बुद्धिजीवी प्राणी होने के कारण मनुष्य को अपनी सीमितताओं का अतिक्रमण करना चाहिए। वह ससीम में कभी सन्तुष्ट नहीं हुआ है और अतिक्रमण ही उसके जीवन की सच्ची महत्ता है । हमारे अन्तर में व्याप्त चेतना अनावृत्त चेतना का अंश नहीं है । किन्तु उतनी ही परिपूर्ण और क्षमता वाली है । वह भी उसी के समकक्ष है । विश्वव्यापकता की धारणा एक नया उन्मेष, उत्साह अभिव्यक्त करती है और उस अदम्य आकांक्षा के साथ आगे बढ़ती है कि व्यक्ति के रूप में हमारे इस वर्तमान भौतिक प्राकट्य से पूर्व मी हमारा अस्तित्व था एवं इसके उत्तरवर्ती काल में भी रहेगा । पूर्वजन्म और पुनर्जन्म न मानने का अर्थ होता है कि हमारा वर्तमान जीवन आकस्मिक है, वह यहछा से, बिना किसी कारण के और बिना किसी उद्देश्य के होता है और वैसे ही उसका अन्त हो जाता है। इसका आशय यह हुआ कि यहाँ कार्यकारण भाव संबंध ने विराम ले लिया । किन्तु यह विश्व यदृच्छा परिणाम नहीं है, बल्कि सुसम्बद्ध, सुव्यवस्थित अतएव कार्यकारणभाव से बद्ध है । यदि यह जन्म है तो इसका कोई कारण होना चाहिए और वह इस जन्म से पूर्व ही होना चाहिए। क्योंकि कारण का स्वरूप ही यह है कि वह कार्य के नियत क्षण से पूर्ववर्ती हो। इसी प्रकार यदि यह जन्म है तो भावी जन्म भी अवश्य होना चाहिए क्योंकि वर्तमान जन्म में भावी जन्म के बीज बोये जाते हैं और यह अज्ञानमूलक भवचक्र तब तक चलता रहता है, जब तक यथार्थ ज्ञान के द्वारा उसका आत्यन्तिक उच्छेद नहीं हो जाता है । हमारा वर्तमान जन्म ही हमारे पूर्व जीवन और मरणोत्तर अस्तित्व को सिद्ध करता है और उसके लिए यह अबाधित सिद्धान्त पर्याप्त प्रमाण है—'नासतो विद्यतेभावो नाभावो विद्यते सतः' असत् का कभी भाव (उत्पाद) नहीं होता है और सत् का कभी अभाव (विनाश) नहीं हो सकता है। पाश्चात्य विचारकों ने भी इस सिद्धान्त को स्वीकार किया है तथा भौतिक विज्ञान के अनुसार जगत् में किसी भी पदार्थ का नाश नहीं होता है किन्तु रूपान्तर मात्र होता है । विज्ञान शक्ति के संरक्षण सिद्धान्त में और पदार्थ की अनश्वरता के सिद्धान्त में विश्वास करता है। जब जगत के जड़ पदार्थों की यह स्थिति है तब आत्मा के भी पदार्थ होने से उसकी धारावाहिक अनश्वरता स्वयमेव सिद्ध होनी चाहिए । पूर्वजन्म और पुनर्जन्म तो उसके रूपान्तर मात्र हैं । प्राणिमात्र में जिजीविषा की उत्कट आकांक्षा के दर्शन होते हैं । लेकिन इसके साथ मरणभय का भी उनसे सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । संसार के समस्त भयों में यदि कोई सबसे बड़ा भय है तो वह मरण का भय हो सकता है । कोई मी प्राणी नहीं चाहता कि मेरा मरण हो । लेकिन इसके अस्तित्व को नकारा नहीं जाता है । फिर भी आज जो हम विकास, कला, संस्कृति, स्थापत्य आदि के प्रांजल रूप का दर्शन करते हैं तो उसके पीछे यह विश्वास है कि मरण शरीर का होता है । मरण शरीर को नष्ट कर सकता है और मैं तो सदैव रहने वाला हूँ-सम्भवामि युगे युगे । यह विश्वास बना कैसे ? यदि इसके कारण की मीमांसा करने जायें तो स्पष्ट हो जायेगा कि पुनर्जन्म के अवलम्बन से जीवितेच्छा की पूर्ति होती रहती है । समय पड़ने पर शरीरोत्सर्ग करने में भी हिचकिचाहट नहीं होती है । विश्व के सभी धर्मों और धर्माचार्यो, चिन्तकों ने हमें यही आस्था यह हमारा वार्तमानिक जीवन अतीत के अनेक जीवनों के पश्चात् हमें इसके तैयार करने वाला एक पड़ाव है। हमने यदि इस उपदेश पर ध्यान दिया तो हमें जन्मों और अवसानों की निरन्तरता रखने का उपदेश दिया है कि पृथ्वी का बाद के अनन्त और उच्च जीवन के लिए पर विश्वास करना ही पड़ेगा। क्या इस शरीर में हमारे अस्तित्व के केवल एक सीमित दायरे के कुछ एक अनुभवों पर हमारे अनन्त जीवन को निर्भर किया जा सकता है ? और ऐसा करना क्या युक्तिसंगत भी होगा ? अमरता का कोई भी सिद्धान्त प्राक् अस्तित्व को अनिवार्य मानकर ही आगे बढ़ सकता है। वैयक्तिक अमरता पर आस्था रखने वाले यदि पुनर्जन्म को स्वीकार कर लें तो उनके विश्वास का युक्तिसंगत आधार अधिक पुष्ट हो सकता है। उस स्थिति में शरीर से भिन्न दीर्घकालव्यापी आत्मा का अस्तित्व मानना ही होगा जो एक ऐसी विकासमान प्रक्रिया में संलग्न है जिसे अनेक जन्मगत शरीरों की आवश्यकता है । 90 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : चतुर्थ खण्ड marrrrrrrrrrrrrrrrrrrormirmirmirrrrrrrrrrrrrrrr+++++ हमारे जन्म को एक आकस्मिक घटना मात्र मानने वाली धारणा से अपने आपको उन्मुक्त करना एक बौद्धिक आवश्यकता है। इसी कारण अनेक अस्तित्वों की आधारभूत धारणा का यह सिद्धान्त कि आत्मा का अस्तित्व सदैव रहेगा, हमारी विचार-शक्ति को बहुत उच्च एवं उत्साहप्रद प्रतीत होता है। यदि हमारे पूर्वजन्मों के हमारे अपने किये हुए कर्मों से ही हमारे वर्तमान जीवन की स्थितियों का निर्धारण होता है तो यह हमारे दुर्भाग्य-जनित दुखों से त्राण करने के साथ भावी को सुखद बनाने के पुरुषार्थ को करने की प्रेरणा देता है और यह चिन्तन करने को अवसर देता है कि यह अवसर प्रच्छन्न सौभाग्य को अनावृत करने वाला हो। यदि हमारे भाग्य निर्माण में हमारा अपना कोई हाथ नहीं है, किन्तु सब कुछ नियति पर निर्भर है तो भलाई, बुराई, नैतिकता, अनैतिकता आदि की सभी संहितायें व्यर्थ हैं और तब आशा का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि सम्पूर्ण सुख का मूल आशा ही है । आशा के सहारे ही मनुष्य वर्तमान की विकट से विकट परिस्थिति में भी अपने प्रयत्नों से विराम नहीं लेता है। पुनर्जन्म के सिद्धान्त ने न केवल हमारे बीच पाई जाने वाली व्यापक विषमताओं की एक न्याययुक्त व्याख्या हमारे सामने प्रस्तुत की है किन्तु हमारे लिए भावी विकास एवं उन्नति का मार्ग भी खुला रखा है कि यद्यपि आज की स्थिति हमारे पूर्वजन्मों का परिणाम है किन्तु भावी परिस्थितियों का निर्माण हमारे अपने कर्मों पर निर्भर है । भले ही अतीत में हम प्रमादवश अपने जीवन को संवार न पाये हों, लेकिन वर्तमान हमारा है। इसको हम जैसा बनायेंगे, उससे वर्तमान सुखद होने के साथ अनागत भी स्वर्णिम होगा । इसलिए ज्योंही इस पुनर्जन्म को स्वीकार कर लेते हैं त्योंही हमारे सम्पूर्ण सुख-दुःख का कारण हमारी समझ में आ जाता है और हम अपने भविष्य के बारे में आश्वस्त हो सकते हैं। यह सत्य है कि शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप अच्छी-बुरी योनियों में जन्म होता है । यदि शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप अच्छी-बुरी योनियों में जन्म होना न माना जाये तो इस जैविक सृष्टि में विविधतायें ही नहीं होती और उसी स्थिति में या तो सभी प्राणियों को मनुष्य ही होना चाहिये था या अन्य कोई शरीरधारी। लेकिन विविधतायें दृष्टिपोचर हो रही हैं और यह प्राणी कभी क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण या कभी चाण्डाल कुल में जन्म लेता है। कभी देव, नारक, वर्णसंकर आदि कहलाता है। इतना ही क्यों? कभी कीट, पतंगा, कुंथुआ या चींटी तक होता है और इस प्रकार कृतकर्मों के अनुसार योनि, शरीर आदि प्राप्त करके कर्मविपाक को भोगता रहता है। इस मान्यता से व्यक्ति और समाज दोनों को लाभ होता है और वह लाभ है व्यक्ति की बुरे कार्यों की ओर प्रवृत्ति न होना और अच्छे कार्यों में प्रवृत्त होना-असुहादोविणवित्ति सुहे पवित्ती। यह स्थिति तभी बनेगी जब पुनर्जन्म माना जायेगा । पुनर्जन्म में आस्था रखने वाला तो प्रत्येक स्थिति में यही अनुभूति करता है-मेरी जैसी ही आत्मा सबकी है और उनकी जैसी ही मेरी आत्मा है । उनकी और मेरी आत्मा के गुणों, शक्ति आदि में समानता है, किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। वे भी अपने अध्यवसाय द्वारा नर से नारायण बन सकते हैं । मेरी आत्मा की वर्तमान स्थिति कैसी भी हो लेकिन भूतकाल में अन्य जीवों जैसी हुई है और भविष्य में भी हो सकती है। जीव मात्र किसी न किसी समय परस्पर निकट सम्बन्धी रहे हैं और भविष्य में भी बन सकते हैं। लेकिन ये संसार के नाते-रिश्ते ठीक उसी प्रकार के हैं, जिस प्रकार समुद्र में तरंगों से टकराकर आये हुए दो काष्ठ कभी एक-दूसरे से मिल जाते हैं । इसलिये किससे द्वेष करू और किससे राग करूं? मेरे लिये तो सभी प्राणी आत्मीय हैं और उनके साथ प्रेम सौहार्द है। इस प्रकार जो मनुष्य सब प्राणियों में अपने को और स्वयं में सब प्राणियों को देखता है-आत्मवत् सर्वभूतेषु, वह कभी भी किसी से घृणा, द्वेष, बुरा, बर्ताव नहीं करता है। क्योंकि आत्मतुल्य मानने वाले व्यक्ति के लिये सभी प्राणी अपने आत्मस्वरूप ही हो जाते हैं। यह मान्यता और विश्वास तभी बनता है जब आत्मा की अजरता, अमरता में आस्था होने के साथ पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की शृङ्खलाबद्ध धारा में निष्ठा हो। परलोक तथा पुनर्जन्म के प्रति आस्था रखने के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति यह समझता है कि उसका सुखदुःख, श्रेष्ठत्व, कनिष्ठत्व, सद्गुणों का सद्भाव-असद्भाव आदि सब उसी के पूर्वजन्मों में किये गये कर्मों के परिणाम हैं और इस जन्म में यदि वह अपने कर्मों में और अधिक सुधार करले तो इह व पर जन्म में और अधिक श्रेष्ठ एवं सुखी बन सकता है । इसके साथ उसे यह भी विश्वास हो सकता है कि जीवन का चरम लक्ष्य-मोक्ष इस जन्म में प्राप्त नहीं हो रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है कि उसे मैं प्राप्त न कर सकूँ । उचित प्रयत्न में रत रहने से वह आने वाले जन्मों में अवश्य प्राप्त होगा। पुनर्जन्म को मानने के लाभों का यदि संक्षेप में संकेत करें तो यह होगा कि किसी भी एक वर्तमान जन्म में Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राणी कर्म करता हुआ जब थक जाता है तो वह कर्मों के भार से थकित होकर हीनता का अनुभव करने लगता है और उस अवस्था में उसके सामने घोर निराशा छा जाती है। लेकिन पुनर्जन्म होने से जीव इस आशा में रहता है कि हमें वर्तमान शुभ कर्मानुसार पुनः सुखोपभोग का अवसर मिलेगा और आत्मबल का संचार होते रहने से वह निरंतर कर्मयोगी की भांति कर्म करता रहता है। वह अपने बारे में विश्वास रखता है कि तू तो अमृत का पुत्र है -अमृतस्य पुत्रा: और उसका लक्ष्य रहता है-उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत तू उठ ! अपनी अनादि अविद्याजन्य मोहनिद्रा को छोड़ और अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान; आत्मज्ञान प्राप्त कर । पुनर्जन्म सिद्धान्त: प्रमाणसिद्ध सत्यता ३८५ मरणभय का कारण जब यह निश्चित है कि नित्य स्वयं प्रकाश ज्ञान ही आत्मा का स्वभाव है, परमानन्द उसका स्वभाव है । मैं सदैव बना रहने वाला हूँ। तब यह प्रश्न होता है कि यदि स्वरूपतः अमर हैं तो हमें मरने से भय क्यों लगता है और सदैव बने रहने की इच्छा क्यों होती है ? प्रियजन के जन्म पर खुशियाँ और मरण होने पर विलाप क्यों किया जाता है ? इसका उत्तर यह है कि अज्ञान, अविद्या, मोह, माया के प्रभाव से हम अपने अजर, अमर, सच्चिदानन्द स्वरूप को स्वप्नवत् समझ कर भूल जाते हैं और दृश्यमान जगत् में सत्यबुद्धि रख कर देहादि अनात्म-पदार्थों के साथ मिथ्या तादात्म्य स्थापित कर बैठे हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि हम अपने अमरत्व को अनात्म-पदार्थों पर आरोपित करके उनको शाश्वत और उनके विनश्वर स्वरूप को स्वयं पर आरोपित करके अपने आपको मरणशील समझने लगते हैं । अज्ञान का तो यह स्वभाव ही होता है । लेकिन स्वानुभव और शास्त्र इस आत्मस्वरूप विषयक अज्ञान को दूर करके सदैव यह आह्वान करते हैं कि हे मानव ! तू न तो मर्त्य है और न जड़ है एवं न निर्यात परतन्त्र है । आत्मस्वरूप सत्यानी त्रिकालाबाधित है। इसीलिये ज्ञानीजनों ने मृत्यु को महोत्सव की संज्ञा दी है और वे मृत्युजयी होकर शाश्वत अमरता को प्राप्त करते हैं । अब प्रश्न होता है कि मृत्यु पर विजय प्राप्ति के अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं। लेकिन उन सभी के परित्याग और निराकरण सत्ता की उपलब्धि होने पर मृत्यु और न प्रलय है । साधन क्या हैं ? इसके साधन के रूप में विभिन्न विचारकों ने कथन का सारांश यह है कि अनात्मा में आत्मबुद्धि का पर विजय प्राप्त हो जाती है । उस स्थिति में न तो जन्म है पुनर्जन्म के साधक प्रमाण उपर्युक्त कथन से अभी तक हम यह समझ चुके हैं कि आत्मा सनातन है, लेकिन जन्म और मरण रूप उसकी स्थिति कर्मकृत है । जब तक निःशेष रूप से कर्मक्षय नहीं हो जाता है तब तक जन्म और मरण का चक्र चलता रहेगा । अब यहाँ कुछ ऐसे प्रमाण व प्रश्न प्रस्तुत किये जाते हैं जिनका समाधान पुनर्जन्म माने बिना नहीं हो सकता है। । १. हम देखते हैं कि माता-पिता के आचार, विचार, व्यवहार, पारिवारिक वातावरण आदि से भी कभीकभी बालक के आचार-विचार विलक्षण ही होते हैं। माता-पिता सरल, धर्मात्मा, न्याय-नीति से जीवन-व्यवहार चलाते हैं, लेकिन उनकी संतान क्रूरता, हिंसा, बेईमानी में आनन्द मानने वाली होती है। माता-पिता बिलकुल अपढ़ होते हैं, लेकिन बालक इतना कुशाग्र बुद्धि कि बड़े-बड़े विद्वानों में उसकी गणना की जाती है । किन्हीं - किन्हीं माता-पिताओं की रुचि जिस बात पर बिलकुल नहीं होती है, किन्तु बालक उसमें सिद्धहस्त बन जाता है यह सब कैसे होता है और इस प्रकार की विभिन्नता का कारण क्या है ? इसके लिये आस-पास की परिस्थिति ही कारण नहीं मानी जा सकती है । क्योंकि समान परिस्थिति और देखभाल बराबर होते रहने पर भी अनेक विद्यार्थियों में विचार और व्यवहार की भिन्नता देखी जाती है । यह भी देखने में आता है कि माता-पिता की योग्यता बहुत बढ़ी चढ़ी होती है और चाहते हैं कि वैसी ही योग्यता सन्तान में भी आये, लेकिन उनके लाख प्रयत्न करने पर भी पुत्र-पुत्री आदि संतान निरी गंवार रह जाती हैं। २. यह तो प्रत्यक्ष है कि एक साथ युगल रूप से जन्मे हुए दो बालक भी समान नहीं होते हैं। दोनों की समान रूप से बराबर देखभाल होने, शिक्षा-दीक्षा के संस्कार सिंचन करने पर भी एक साधारण रहता है और दूसरे की विद्वत्ता एवं प्रतिभा को संसार सम्मानित करता है। एक को देखकर खुशी होती है और दूसरे को देखना भी लोग पसंद नहीं करते हैं, घृणा करते हैं । एक दीर्घजीवी होता है और दूसरा प्रयत्न करने पर भी यम का अतिथि बनने से नहीं बचाया जाता । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ 200-09-19 श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड 1 एक स्वस्थ और बलिष्ठ होता है तो दूसरे का रोग से पीछा नहीं छूटता है जो शक्तिप्रतिमा और विलक्षणता महावीर, बुद्ध आदि में थी वह उनके माता-पिता में नहीं थी । इसी प्रकार के और दूसरे भी उदाहरण दिये जा सकते हैं, जिन पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सब विलक्षणतायें न तो वर्तमान जीवन की कृति का परिणाम हैं और न वातावरण, परिस्थिति आदि का और न माता-पिता के संस्कारों का । यह सब तो गर्भ के समय से भी पूर्व मानने की ओर संकेत करती हैं । वही वर्तमान की अपेक्षा पूर्वजन्म है । पूर्वजन्म में इच्छा या प्रवृत्ति द्वारा जो संस्कार अर्जित किये हैं, उन्हीं के आधार पर इन सब प्रश्नों और विलक्षणताओं का सही समाधान प्राप्त किया जा सकता है। जिस युक्ति से एक पूर्वजन्म सिद्ध हो जाता है तो उसी से अनेक पूर्वजन्मों की परंपरा भी सिद्ध हो जाती है। ३. यह नियम तो सभी जानते हैं और अनुभूत स्थिति है कि क्रिया की प्रतिक्रिया अनिवार्यतः होती है। हमें यह प्रत्यक्ष रूप से अनुभव होता है कि जो जैसा करेगा, वैसा फल उसे भोगना पड़ेगा - 'कर्मायत्त फलं पुंसाम् ' प्रत्येक कर्म का तदनुरूप फल भोगना ही पड़ता है। हमारे जीवन व्यवहार में अनेक प्रकार के कर्म होते रहते हैं, मन, वाणी, शरीर द्वारा निरंतर कर्म प्रवृत्ति होती रहती है । जिनमें से कुछ तत्काल फल देने वाली और कुछ विलंब से और कुछ प्रवृत्तियां ऐसी होती हैं जिनका फलभोग इसी जन्म में नहीं किया जाता है किन्तु जन्मान्तरों में किया जा सकता है। जिसके लिये प्रमाण है तथागत बुद्ध का यह कथन इत एकनवते कल्पे शक्त्या मे पुरुषो हतः । तस्य कर्म विपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ॥ - अब से इक्यानवे कल्प पहले मेरी शक्ति ( शस्त्र) द्वारा एक पुरुष मारा गया था। उसके कर्म विपाक से है। भिक्षुओ ! मेरा पैर काँटे से बींधा गया है। ४. यह बात तो अनुभव विरुद्ध है कि इह जीवन समाप्त हो जाने के साथ समस्त कर्म भी समाप्त हो जाते हैं, किंतु उसके बदले यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि कर्म कभी निष्फल नहीं होता है और न किए हुए कर्मों का फलभोग किये बिना मुक्ति होती है । इस स्थिति में अभुक्त कर्मों का फलभोग जीव कब करेगा या कर सकता है ? तो उत्तर होगा कि जन्मान्तर में उनका फलभोग करेगा । चाहे फिर वह जन्मान्तर निकट भविष्य का हो या उसके बाद का या सुदूर अनागत का और फलभोग के लिये जो भी जन्मान्तर होगा, उसी का दूसरा नाम पुनर्जन्म है । ५. कोई भी संतान माता-पिता के बिना उत्पन्न नहीं हो सकती है, ऐसा कार्यकारण, जन्य-जनक भाव प्रत्यक्ष सिद्ध है । यदि किसी के माता-पिता जन्मते ही काल-कवलित हो गये हों तो उनके प्रत्यक्ष न होने के कारण क्या उनका अस्तित्व न माना जायेगा ? यदि इसका उत्तर हाँ में दिया जाये तो संतान आयी कहाँ से ? उसका जन्म हो कैसे गया ? यही तर्क पितामह प्रपितामह आदि के संबंध में भी दिया जा सकता है। केवल प्रत्यक्ष से समस्त विश्व के वर्तमान पदार्थ सिद्ध नहीं होते हैं, उनकी सिद्धि के लिये भी जब अनुमान आदि प्रमाण माने जाते हैं तो अतीत अनागत तत्त्वों को सिद्ध करने के लिये अनुमान आदि को मानना ही पड़ेगा । ६. शरीर की तरह, आत्मा का परिवर्तन नहीं होता है। शरीर में अवस्थानुसार परिवर्तन देखा जाता है। बाल्यावस्था में हमारे सभी शरीरावयव कोमल और छोटे होते हैं, कद भी छोटा होता है, स्वर भी मीठा होता है, वजन भी कम होता है। लेकिन जब युवावस्था आती है तथा हमारे अंग पहले से कठोर और बड़े हो जाते हैं, आवाज भारी हो जाती है, कद लंबा हो जाता है, वजन बढ़ जाता है, दाढ़ी मूंछ आ जाती है। इसी प्रकार बुढ़ापे में हमारे अंग शिथिल हो जाते हैं, शरीर की सुन्दरता नष्ट हो जाती है । बाल काले से सफेद हो जाते हैं, दांत गिर जाते हैं शारीरिक और ऐन्द्रियक शक्ति क्षीण हो जाती है । परन्तु शरीर में होने वाले इन परिवर्तनों के बाद भी आत्मा नहीं बदलती है । जो आरमा पूर्व में थी वही इस समय भी रहती है, उसमें परिवर्तन नहीं होता है और इसका प्रमाण है कि आज से दस बीस वर्ष पहले हमारे जीवन में घटी घटनाओं का भी हमें स्मरण रहता है । यदि आत्मा में भी परिवर्तन हो जाता है तो उनका स्मरण नहीं रहना चाहिये था। इससे मालूम पड़ता है कि स्मरण करने वाले दो अलग-अलग व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि एक ही व्यक्ति है । अतः जिस प्रकार वर्तमान शरीर में परिवर्तन होने पर भी आत्मा नहीं बदली, उसी प्रकार मरने के बाद दूसरा शरीर मिलने पर भी आत्मा नहीं बदली है । इससे भी परलोक और पुनर्जन्म होने की क्रमबद्धता सिद्ध होती है। ७. बालक जन्मते ही कभी भयभीत होते देखा जाता है। रोने लगता है और जन्मने के बाद कभी हँसता है, कभी रोता है, कभी सोता है और जब माता उसे मुख में स्तन देती है तो उससे दूध खींचने लगता है | बालक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L पुनर्जन्म सिद्धान्त: प्रमाणसिद्ध सत्यता सब क्रियाकलाप पूर्वजन्म की सूचना देते हैं। क्योंकि इस जन्म में तो तत्काल उसने ये सब बातें सीखी नहीं । पूर्वजन्म के अभ्यास से ही ये सब बातें उसमें स्वाभाविक ही होने लगती हैं । पूर्वजन्म में अनुभूत सुख-दुःखों का स्मरण करके ही वह हँसता और रोता व भयभीत होता है। पूर्व में अनुभव किये हुए मृत्यु भय के कारण ही वह कांपने लगता है तथा पूर्वजन्म में किये हुए स्तन्यपान के अभ्यास से ही माता के स्तन का दूध खींचने लगता है। इन सब प्रवृत्तियों से पूर्वजन्म की ही सिद्धि होती है । पूर्वोक्त प्रमाणों से पुनर्जन्म की सिद्धि हो जाती है तथा आये दिन सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में पुनर्जन्म सम्बन्धी समाचार पढ़ने में आते हैं । जो पुनर्जन्म के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । फिर भी वर्तमान शरीर तक ही आत्मा का अस्तित्व स्वीकार किया जाये तो अनेक नये-नये प्रश्न पैदा हो जाते हैं, जिनका समाधान पुनर्जन्म न मानने पर व्यक्ति का उद्देश्य इतना संकुचित और कार्यक्षेत्र इतना सीमित हो जायेगा कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। चेतना की मर्यादा वर्तमान शरीर के अन्तिम क्षण तक मान लेने से व्यक्ति को महत्वाकांक्षा तो एक तरह से छोड़ देनी पड़ती है। क्योंकि मैं सदा कायम रहूँगा, इस जन्म में न सही, लेकिन अगले जन्म में अपना उद्देश्य अवश्य सिद्ध करूंगा - यह भावना मनुष्य के हृदय में जितना बल व उत्साह प्रगट करती है, उतना बल व उत्साह अन्य कोई भावना प्रकट नहीं कर सकती है । इस भावना को मिथ्या नहीं कहा जा सकता है और न यह मिथ्या है । उसका आविर्भाव स्वाभाविक एवं विदित है। ३८७ पुनर्जन्म विभिन्न दर्शनों का दृष्टिकोण पुनर्जन्म है, पुनर्जन्म होने का क्या कारण है और पुनर्जन्म मानने से क्या लाभ है आदि की संक्षेप में जानकारी कराने के बाद अब विभिन्न दर्शनों व धर्मों का पुनर्जन्म संबंधी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। सभी आत्मवादी दर्शनों ने पुनर्जन्म को निर्विवाद सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया है अतः उनके विचारों को संक्षेप में और एक जन्मवादी होकर भी पुनर्जन्म मानने के लिये प्रेरित हुए दर्शनों के दृष्टिकोण का कुछ विशेष रूप में उल्लेख किया जा रहा है । पौर्वात्य दर्शनों और धर्मों में वैदिक, बौद्ध और जैन ये तीन प्रमुख हैं। सांख्य योग- वैशेषिक आदि वैदिक दर्शन के उपभेद हैं । इनके मूल आधार वेद, ब्राह्मण और उपनिषद् ग्रन्थ हैं । उपनिषदों में जो कुछ भी वर्णन किया गया है, उसका लक्ष्य आत्मा और उसकी विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान करना है। उनमें आगत चिन्तन और कथानक आत्म विचार के चित्र हैं, जिनसे पुनर्जन्म सिद्धांत की ही पुष्टि होती है। लेकिन वेदों में भी ऐसी ऋचायें हैं, जिनसे पुनर्जन्म सिद्धांत की पुष्टि हो जाती है। जैसे कि ऋग्वेद १०५६।६७ में बताया गया है कि परमात्मा प्राण रूप जीव को भोग के लिये एक देह से दूसरी देह तक ले जाता है । अतः प्रार्थना है कि वह हमें अगले जन्मों में सुख दे, ऐसी कृपा करे कि सूर्यचन्द्र आदि हमारे लिये कल्याणकारी सिद्ध हों। अथर्ववेद तो ऐसे मन्त्रों से भरा पड़ा है कि जिनसे पुनर्जन्म सिद्धांत पर किसी न किसी रूप में प्रकाश पड़ता है। उनमें कहीं तो आगामी जन्म में विशिष्ट वस्तुएँ पाने की प्रार्थना की गई तो कहीं यह कहा गया है कि पूर्वजन्म के श्रेष्ठ कनिष्ठ कर्मों के अनुसार ही जीवात्मा नवीन योनियों को धारण करती है । इसके लिये देखिये अथर्ववेद ७ ६७३१, ५११।२ । यजुर्वेद ४१५, १९४७ आदि मन्त्रों में जीवात्मा के आगमन की बात कही गई है । वहाँ कहा गया है कि जीवात्मा न केवल मानव या पशु योनियों में जन्म लेती है, किंतु जल, वनस्पति, औषधि आदि नाना स्थानों में भ्रमण और निवास करती हुई बार-बार जन्म धारण करती है । - सांख्यदर्शन में बताया है कि जो रसादि की अनुभूति करता है, पूर्वकृत को भोगता है और जो अतीत में था एवं वर्तमान में भी है, वही आत्मा है । उसके किए हुए कर्म नष्ट नहीं होते हैं और वे बाद में भी फल देते रहते हैं । सभी कर्मों का फल तत्काल नहीं मिल जाता है, इस जगत में जो कर्म किये हैं उनका भोग यहीं समाप्त नहीं हो जाता है । इसीलिये शेष कर्म फलभोग के लिये दूसरा जन्म होता है और लिंग शरीर (सूक्ष्म शरीर) ही एक दृश्य देह को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है। न्यायदर्शन भी यही कहता है कि आत्मा के नित्य होने से जन्मान्तर की सिद्धि हो जाती है । अथवा यों भी कह सकते हैं कि जन्मान्तर होने से आत्मा की नित्यता सिद्ध है- आत्मनित्यत्वं प्रेत्य भाव सिद्धि (न्यायसूत्र ४।१।१० ) और जन्मान्तर का कारण है पूर्वकृत कर्मों के भोग के लिये जन्मान्तर, पुनर्जन्म मानना ही पड़ेगा पूर्व फलानुबंधनात् तदुत्पत्तिः (३२०६४) जब मनुष्य शरीर का त्याग करता है, तब इस जन्म की विद्या, कर्म, पूर्व प्रज्ञा या वासना आत्मा के साथ जाती है और इसी ज्ञान एवं कर्म के अनुसार दर्शन की पुनर्जन्म विषयक दृष्टि का पूर्व में संकेत किया जा चुका है तथा यह आत्मा, व्यापक मानता है और अहंकारादि से युक्त वासनाओं के कारण ही फलोपभोग के लिये नवीन जन्म होता है । योग इन्द्रियों और अहंकार तीनों को पुनर्जन्म होता है । ० 0 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O ·0 ३८८ श्री पुष्करमूनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड मीमांसादर्शन में पुनर्जन्म का समर्थन करते हुए जीवात्मा के स्थान पर अतिवाहिक अर्थात् एक शरीर से दूसरे शरीर तक ले जाने वाले देहाभिमानी-देवता का संकेत किया है। वैशेषिक दर्शन आत्मा को सर्वव्यापी मानता है लेकिन पुनर्जन्म के संबंध में उसकी मान्यता है कि मन के द्वारा जो अणु रूप है, एक शरीर से शरीरान्तर की प्राप्ति होती है। गीता में अनेक प्रसंगों पर परलोक और पुनर्जन्म का प्रतिपादन किया गया है जैसे कि श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः । न चैव न भविष्यायः सर्व वयमतः परम् ॥ देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कोमरं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिः धीरस्तत्र मुह्यति ॥" न - न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं या अथवां ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे जैसे जीवात्मा की इस देह में बाल्य, युवा और बृद्धावस्थायें होती हैं, वैसे ही अन्य शरीर की भी प्राप्ति होती है। अतएव इस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होते हैं । वेदान्तदर्शन के प्रमुख आचार्य निम्बार्क ने पुनर्जन्म और उसके कारण को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जीवात्मा अजर, अमर और अविनाशी है । किन्तु उसे अपने अनादि कर्मों के अनुसार शरीर प्राप्त होते हैं । उनके द्वारा वह शुभाशुभ कर्मों के फल भोगती है और पूर्व कर्मों के अनुसार कर्म करती है। समय पाकर उनका वियोग हो जाता है । इस प्रकार जब तक जीवों के कर्म एवं उनके संस्कार बने रहते हैं तब तक जन्म-मरण रूपी संसृति चक्र चलता रहता है | पराभक्ति द्वारा कर्मों की निवृत्ति और मुक्ति हो जाने पर पुनर्जन्म नहीं होता है । पुनर्जन्म के समय जीवात्मा अपने पूर्व शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर को इस प्रकार धारण करता है जिस प्रकार कोई जीवित व्यक्ति फटे-पुराने वस्त्रों को त्याग कर नवीन वस्त्र धारण करता है। इस नवीन शरीर को धारण करने के दो मार्ग हैं - १. धूमपान (कृष्ण गति) २. देवयान (शुक्ल गति अाँच मार्ग )ज्ञानी जन तो जाँच मार्ग से देहान्तर प्राप्ति के लिये जाकर मुक्त हो जाते हैं। उनके कर्मबन्धन समाप्त हो जाते हैं, जिससे उनका पुनर्जन्म नहीं होता है । इष्ट-पूतादि सकाम कर्मों में निरत रहने वाले जीव धूमयान (कृष्णगति) से जाते हैं और पुण्य पाप का फल भोग कर पुनः लौट आते हैं। इन दोनों मार्गों के अतिरिक्त एक तीसरा मार्ग और है— जायस्व प्रियस्व-अर्थात् प्रतिदिन जन्मना और मरना । यह मार्ग क्षुद्र जन्तुओं का होता है । उनका उत्क्रमण न देवयान से होता है और न पितृयान से । जीवात्मा जब अपने पूर्व स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करती है, तब सूक्ष्म शरीर के साथ जाती है और उसके सहयोग से प्राप्त शरीर आदि के योग्य सामग्री का संचयन करने की ओर अग्रसर हो जाती है । वैष्णवाचार्यो का मन्तव्य है कि अजर, अमर, अविनाशी आत्मा को अनादि अविद्या के कारण होने वाले पुण्यपाप कर्म प्रवाह के फलों को भोगने के लिये देव, मानव, तिर्यक् और स्थावर इन चार प्रकार के शरीरों में प्रवेश करना पड़ता है । उन-उन देहों में प्रविष्ट होते ही जीवात्मा को देहाभिमानी अविद्या और पर वस्तुओं में स्वकीयत्वाभिमानी अविद्या अज्ञान मिथ्याभास होने लगता है । उससे कर्म कर्म से देहप्रवेश और देहप्रवेश से अविद्या इस प्रकार का चक्र अनादि काल से चला आ रहा है। इस चक्र के कारण जीवात्मा को सांसारिकता, दुख आदि भोगने पड़ते हैं । , इन्हीं वैदिक दर्शनों और धर्मों पर आधारित वार्तमानिक विभिन्न पंथों मतों में भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है। जैसे कि रामस्नेही मत में बताया गया है कि जीवात्मा के पुनर्जन्म लेने के साधारणतया निम्नलिखित कारण हैं-१ भगवान की आज्ञा से २ पुण्य क्षय हो जाने पर, ३-४ पुण्य-पाप का फल भोगने के लिये ५-६ बदला लेने और चुकाने के लिये ७, अकाल मृत्यु हो जाने पर, ८ अपूर्ण साधना को पूर्ण करने के लिये । सिख गुरु गोविन्द सिंह ने अपने दसवें ग्रन्थ में पुनर्जन्म के बारे में बताया है- जीवात्मा अपने कर्मों का फल भोगने के लिए बार-बार जन्म लेती है । पुनर्जन्म का मूल कारण यही है कि जो जैसे कर्म करते हैं वे वैसी योनि प्राप्त करते हैं। मानव योनि प्राप्त कर उत्तम कार्यों के द्वारा आवागमन के बन्धनों से मुक्त होना ही जीव का मुख्य धर्म है । जीव के आवागमन से छूटने का एक ही उपाय है— सांसारिक विषय-वासनाओं से मुक्त होकर शुभ कार्यों को निष्काम भाव से सम्पन्न करना । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ पुनर्जन्म सिद्धान्त: प्रमाणसिद्ध सत्यता ३८६ बौद्धदर्शन यद्यपि अनात्मवादी दर्शन माना जाता है और वह अनात्मवादी इस अर्थ में है कि उसने आत्मा को एक स्वतन्त्र मौलिक तत्त्व न मानकर संतति प्रवाह के रूप में उसका अस्तित्व स्वीकार किया है । फिर भी उसमें पुनजन्म सिद्धान्त को मान्यता दी गई है। इसीलिए त्रिपिटकों में यथाप्रसंग यत्र-तत्र स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, सद्गति-दुर्गति आदि शब्दों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है । जातक कथाओं से तो यह पूर्णरूपेण प्रमाणित हो जाता है कि पुनर्जन्म होता है और कर्म फलभोग भी निश्चित है। कर्मों के संस्कार से अधिवासित होकर रूप वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार इन पंच स्कन्ध समूह रूप जीव संसृति में घूमता हुआ सुख-दुख भोगता है तथा स्वर्ग-नरकादि के सुख-दुख को भोगने के लिए उन-उन लोकों में आ जाता है । ******** जैनदर्शन तो कर्म सिद्धान्तवादी है अतः उसके शास्त्रों में कर्म फलभोग के लिए पुनर्जन्म होने का स्पष्ट रूप से दिग्दर्शन कराया है। जैसे कि- अत्थि मे आया उबवाइए से आयावादी लोयावादी कम्मावादी किरियावादी । - आचारांग १।१।१ यह मेरी आत्मा औपपातिक है, कर्मानुसार पुनर्जन्म ग्रहण करती है आत्मा के पुनर्जन्म सम्बन्धी सिद्धान्त को स्वीकार करने वाला ही वस्तुतः आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी एवं क्रियावादी है । यह जीवात्मा अनेकवार उच्च गोत्र में और अनेकबार नीच गोत्र में जन्म ले चुकी है-से असई उच्चागोए असई नीआगोए (आचारांग १ | २|३) मायावी और प्रमादी बार-बार गर्भ में अवतरित होता है और जन्म-मरण करता है -- माई पमाई पुण एक गब्र्भ --- आचारांग १|३|१७| इस प्रकार सभी पौर्वात्य दर्शनों और धर्मों ने आत्मा के अमरत्व, अस्तित्व और पुनर्जन्म के बारे में अपनेअपने दृष्टिकोण के अनुसार आस्था व्यक्त करते हुए समर्थन किया है। लेकिन इसके विपरीत पाश्चात्य दर्शनों में एक जन्मवाद को स्वीकार करके भी किसी न किसी रूप में पुनर्जन्म की मान्यता को भी स्थान दिया है । इस्लाम, ईसाई और यहूदी मत एक जन्म-वादी हैं । इनका सामूहिक नाम सेमिटिक है। उनकी ताएँ इस प्रकार हैं यहूदी पुराण या शास्त्र में परलोक का कोई उल्लेख नहीं है । इस जन्म के कृतकर्मों का फलभोग इसी जन्म में होता है। यहूदी मत के अनुसार भविष्य में ईश्वर प्रेरित व्रत मसीहा पृथ्वी पर आयेंगे। ईसाइयों के मतानुसार वह मसीहा ईसा हैं, वे ईश्वर के पुत्र हैं, और पृथ्वी पर अवतीर्ण हो गये हैं । इस्लाम के मत से मुहम्मद ईश्वर केत है। कुछ विशेष ईसाई और इस्लाम के मत से आत्मा और देह का सम्बन्ध प्रायः अविच्छेद्य है । इसीलिए मिस्र देशवासी 'ममी' का अनुसरण करके मृत देह का दाह न करके शव देह को उपयुक्त आकार की शव पेटिका में सुरक्षित कर उसे भूमि में दफना देते हैं । ये देह सुदूर भविष्यत् काल में अन्तिम विचार के दिन ईश्वर के सिहासन के दोनों ओर उठकर खड़े हो जायेंगे । उनमें से दाहिनी ओर रहेंगे धर्मात्मा और बायीं ओर रहेंगे पापात्मा । मनुष्य जाति के पुरुषों के अलावा अन्य किसी जीव की यहाँ तक कि नारी की भी आत्मा नहीं होती है । मनुष्य का इस लोक में केवल एक बार जन्म होता है । सर्वव्यापी ब्रह्म की कोई कल्पना भी नहीं है । यहूदी के 'यहोवा' ईसाई के 'गॉड' और इस्लाम के 'अल्लाह' ईश्वर हैं। वे पुरुष हैं और स्वर्ग में रहते हैं । उनका अवतार नहीं होता है । स्वर्ग में और कोई देवता नहीं है और न देवी है। सेमिटिक धर्म-ग्रन्थों के अनुसार अनुमानतः ४००४ ई० पूर्व अर्थात् केवल छह हजार वर्ष पहले जगत की सृष्टि हुई थी। इन सेमिटिक मतों की इस प्रकार की मान्यताएं है। अतएव इनमें पुर्तग्म के विचारों को नहीं होना चाहिए था। लेकिन कुरान, बाईबिल आदि में कुछ ऐसे वर्णन हैं जो पुनर्जन्म को स्वीकार किये बिना युक्तिसंगत नहीं माने जा सकते हैं । उनमें आगत कथनों का सारांश इस प्रकार है ईसाई मत --- बाइबिल में राजाओं की दूसरी पुस्तक पर्व २, आयत ८, १५ में वर्णन है कि एलियाह नवी की आत्मा मरने के बाद एलोशा में आ गई। इसी प्रकार मलकी पर्व ४ आयत ४, ५, ६ में परमेश्वर द्वारा इसी एलियाह नवी को भेजने की बात कही गई है । मती पर्व ११ आयत १० - १३ में यूहन्ना वपतिस्मा देने वालों को ही पूर्वजन्म का एलियाह नवी बताया है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ओ पुष्करमूनि अभिनन्दन ग्रन्थ चतुर्थखण्ड Bah se pahiy aa6 ট০ प्रारम्भिक काल में ईसाइयों के कुछ गुप्त सिद्धान्त थे, जिनमें पुनर्जन्म भी सम्मिलित था । पाल और ईसाई धर्मगुरुओं के लेखों में इसका संकेत है । ओरिजन में इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है । ईसाई धर्म का एक सम्प्रदाय 'नास्टीसिज्म' इस सिद्धान्त को प्रकट रूप में मानता था । जिससे अन्य ईसाई सम्प्रदाय इसके अनुयायियों को कष्ट पहुँचाते थे । इसी प्रकार साइमेनिस्ट, वैसीलियन, वैलेन्टीनय, माशीनिस्ट तथा मैनीचियन आदि अन्य ईसाई सम्प्रदाय भी पुनर्जन्म को मानते थे । ईसा की छठी शताब्दी में चर्च की समिति ने कुछ सिद्धान्तों को मानना पाप घोषित कर दिया था, जिसमें पुनर्जन्म भी एक था और सम्राट जस्टीनियन ने राजाज्ञा द्वारा इनके मानने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । प्रतिबन्धित सम्प्रदायों की मान्यता थी कि शरीर पतन के पश्चात् जीवात्मा का न्याय निर्णय भगवान ईश्वर गॉड के समक्ष होता है तब वह स्वर्ग या नरक में भेजा जाता है। सुख-दुःख का अनुभव कराने वाला शरीर यद्यपि यहाँ पेटी में पड़ा रहता है, फिर भी जीव को इस शरीर के निमित्त से किये गये कर्मों के कारण सुख या दुखस्वर्ग या नरक भोगना पड़ता है । इस्लाम मत — जैसा कि ऊपर में ऐसी बहुत सी आयतें हैं, जिससे पुनर्जन्म संकेत है कि इसे पुनर्जन्म का सिद्धान्त मान्य नहीं है । लेकिन कुरान शरीफ की धारणा सिद्ध होती है । जैसे कुरान में उल्लेख है " अय इन्सान ! तुझे फिर अपने रब की तरफ जाना है। वही तेरा अल्लाह है। तुझे मेहनत और तकलीफ के साथ दरजे व दरजे चढ़कर उस तक पहुँचना है। हमने तुम्हें जमीन में से पैदा किया है और हम तुम्हें फिर उसी जमीन में भेज देंगे और उसी में से पैदा करेंगे फिर आखिर तक कर्मों पर पकड़ करने के लिए आखिरत (पुनर्जन्म) की जरूरत है और कर्मों पर पकड़ इन्साफ का तकाजा है । जिस प्रकार उसने तुम्हें अब पैदा किया है, वैसे ही तुम फिर पैदा किये जाओगे । पुनर्जन्म के बारे में इसी प्रकार की और भी आयतें कुरान में हैं । पुनर्जन्म मानने वालों के लिए कुरान में कहा गया है - 'आखिरत न मानने से तमाम कार्य व्यर्थ हो जायेंगे (७।१४७) अन्तिम स्थान जहन्नम होगा ( १०1७ ) मनुष्य हैवान बन जाता है (१०।११) । इस्लाम मत का एक सम्प्रदाय सूफी मत कहलाता है। सूफी लोग आमतौर पर तना सुख ( पुनर्जन्म) को मानते हैं । वे पुनर्जन्म को इतरका या रिजन भी कहते हैं। उन्होंने पुनर्जन्म के बारे में काफी सूक्ष्मता से विचार किया है । वे आत्मा को मनुष्य शरीर में पुनः उत्पन्न होने को नस्ख ( मनुष्य गति), पशु शरीर में फिर पैदा होने को मस्त ( तिर्यच गति), वनस्पति में पुनः पैदा होने को फल (वनस्पतिकाय) और मिट्टी, पत्थर आदि में पुनः पैदा होने के रस्टन (पृथ्वीकाय) कहते हैं। जिन सूफी विद्वानों सन्तों ने पुनर्जन्म को माना है, उनमें अहमद बिन साबित, अहमद विन यवस, अक मुस्लिम खुराशानी और शैखुल इशशख के नाम मुख्य हैं । इन सभी ने कुरान की आयतों और उनमें भी सुरतुल बरक आयत ६२ से ६२ और सुरतुल भागदा आयत ५५ पर अपनी युक्तियों को केन्द्रित किया है । इसका फलितार्थ यह है कि इस्लाम धर्म में भी तनासुख ( पुनर्जन्म ) के सम्बन्ध में काफी विचार किया गया है । इस्लाम के प्रचार के पूर्व अरब निवासी पुनर्जन्म के सिद्धान्त में विश्वास रखते थे। वीकर लिखते हैं कि अरब दार्शनिकों को यह सिद्धान्त बहुत प्रिय था और कई मुस्लिम विद्वानों की लिखी पुस्तकों में अब भी इसके उल्लेख देखने में आते हैं। यहूदी मत- - कब्बाला में लिखा है कि पत्थर पौधा हो जाता है, पौधा जानवर हो जाता है, जानवर आदमी बन जाता है । आदमी रूह (आत्मा) और रूह खुदा हो जाती हैं। एक और यहूदी ग्रन्थ 'जुहर' में कहा है— उसे बारबार जन्म लेने की अजमाइशों और नये-नये जन्मों में से निकालना है। सभी रूहों को उसी अल्लाह में लौटकर मिल जाना है जिससे वे निकली हैं। लेकिन इस कार्य को करने के लिए सभी रूहों को अपने अन्दर कमाल पैदा करने होंगे । जिनके बीज उनके अन्दर छिपे हुए हैं। अगर यह बात एक जिन्दगी में पूरी नहीं होती है तो उन्हें फिर दूसरी जिन्दगी शुरु करनी होगी और फिर तीसरी, इसी प्रकार से आगे-आगे सिलसिला चलता रहेगा, जब तक कि वह इस काबिल न हो जाये कि फिर से अल्लाह में मिल सके । पारसी धर्म ग्रन्थ 'गाथा' में उल्लेख है कि जो आदमी नेक कार्य करके अल्लाह को खुश करता है, उसे Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्जन्म सिद्धान्त: प्रमाणसिद्ध सत्यता अल्लाह प्रत्येक नये जन्म में अधिकाधिक मारफत (आत्मज्ञान) और अपने ऊपर अधिकाधिक काबू देता है और जो आदमी नेकी के स्थान पर वदी करता है, उसे अल्लाह हर एक नये जन्म में अधिक बुरी परिस्थिति में पैदा करता है जब तक कि वह पुन: लौटकर नेकी की तरफ न मुड़े । ३६१ इस प्रकार हम देखते हैं कि विश्व के सभी दर्शनों, धर्मों और प्रचलित मत-मतान्तरों ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है । पुनर्जन्म और आदिम युग का मानव भारतीय महाद्वीप में तो पुनर्जन्म का सिद्धान्त वर्तमान के सभ्यता युग से भी प्रागतिहासिक है। आयों के आगमन से पूर्व भी भारत के मूल निवासियों का यह विश्वास था कि मनुष्य मरकर वनस्पति आदि अन्य योनियों में जन्म लेता है और अन्य योनिस्थ जीव मनुष्य शरीर प्राप्त करते हैं । इन्हीं का अनुसरण करके नवागत आर्यों ने अपने धर्म-ग्रन्थों में पुनर्जन्म के व उसके कारण कर्म सिद्धान्त को स्थान दिया और उससे उनकी तार्किक एवं नैतिक चेतना को सन्तोष मिला जो उपनिषदों के चिन्तन से स्पष्ट हो जाता है । चीनी साहित्य के प्राचीन ग्रन्थों को देखने से ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि बौद्ध धर्म के प्रचार से पूर्व वहाँ के निवासी परलोक और पुनर्जन्म सिद्धांत पर विश्वास करते थे । अफ्रीका और अमेरिका के आदि निवासियों को भी पुनजन्म का सिद्धांत मान्य वा यूरोप के जिन यात्रियों ने पहले अफ्रीका की यात्रा की उन्होंने लिखा है कि कई स्थानों के लोग पुनर्जन्म को मानते थे । इसी प्रकार प्रारम्भ में जो लोग अमेरिका गये उन्हें ज्ञात हुआ कि वहाँ के मूल निवासी इस सिद्धांत पर पूर्ण विश्वास रखते थे और अभी भी उनमें यह विश्वास पाया जाता है। मौल्डी नामक एक पुरातत्ववेत्ता ने इन जन-जातियों द्वारा लकड़ी और पत्थरों पर बनाये चित्रों के आधार से लिखा है कि इन लोगों का यह विश्वास सार्वजनिक था कि आत्मा मृत्यु होने पर शरीर से पृथक् हो जाती है । कुछ जातियों का विश्वास था कि आत्मा मरकर पुन: उसी शरीर में आ जाती है, इसीलिए वे शव में मसाला लगाकर देर तक सुरक्षित रखते थे । किन्तु कई जातियाँ ऐसी भी थीं जो मृत्यूपरांत आत्मा का नये नये शरीर में जन्म लेना मानती थीं। पुनर्जन्म और पाश्चात्य मनीषी पूर्व की तरह पश्चिम जगत में भी पुनर्जन्म सिद्धांत के बारे में विचार होता रहा है। प्रत्येक देश के मूल निवासियों में पुनर्जन्म सिद्धांत सर्वमान्य था । लेकिन बहुत से अर्वाचीन पाश्चात्य विद्वानों का यह मत है कि पुनर्जन्म का सिद्धांत वास्तविक नहीं है । परन्तु उन लोगों का यह मत सर्वथा भ्रान्त है । क्योंकि स्वयं पाश्चात्य विश्व के दार्शनिकों, लेखकों व वैज्ञानिकों ने अपने अनुसन्धानों द्वारा पुनर्जन्म के सिद्धांत का समर्थन किया है । प्राचीन यूनान के महान दार्शनिक तथा वैज्ञानिक पाइथागोरस का विचार था कि 'साधुता की पालना करने पर आत्मा का जन्म उच्चतर लोकों में होता है और दुष्कृत आत्मायें निम्न पशु आदि योनियों में जाती हैं । यदि मनुष्य अनियन्त्रित इन्द्रियों की दासता से छुटकारा पा सके तो वह बुद्धिमान बन जाता है और जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा पा जाता है । सुकरात का मन्तव्य था कि मृत्यु स्वप्नविहीन निद्रा है और पुनर्जन्म जाग्रत लोक के दर्शन करने का द्वार । प्लेटो भी यही मानते थे और उनका विचार था कि कामना ही पुनर्जन्म का कारण है । मनुष्य अपने पूर्वजन्मों का स्मरण कर सकता है तथा उसे यदि जीवन के बन्धन को काटना है तो उसे सब प्रकार के भोग-विलासों को तिलांजलि देनी होगी । ओरिजेन ने कहा है - देवी भगवद् विधान हरएक के बारे में उसकी प्रवृत्ति, मन तथा स्वभाव के अनुसार ही निर्णय करता है । मानवीय मानस कभी तो अच्छाई से और कभी बुराई से प्रभावित हो जाता है । इस कारण परम्परा भौतिक शरीर के जन्म से भी अधिक पुरानी है । दार्शनिक महात्मा आर्फ्यूस के मतानुसार पापमय जीवन बिताने पर आत्मा घोर नरक में जाती है और पुनर्जन्म के बाद उसे मनुष्य कीट, पशु, पक्षी आदि के शरीर में रहता पड़ता है। पवित्र जीवन बिताने पर आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पा जाती है और स्वर्ग में जाती है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : चतुर्थ खण्ड क्रिस्टन बुल्फे के कथनानुसार आत्मा सूक्ष्म होती है और हमारे गुप्त कर्म ही हमारे वर्तमान जीवन के कारण हैं। लेसिंग के विचारों में प्रत्येक आत्मा पूर्णता के लिए सचेष्ट है और उद्देश्य पूर्ति के लिए इस धरती पर उसे अनेक जन्म लेने पड़ते हैं। पिकटे और नोवालिस की दृष्टि में मृत्यु आत्माओं के जीवन प्रवाह में एक विश्राम स्थिति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । जीवन है कामना और कर्म उसके परिणाम हैं । जीवन और मृत्यु एक ही वस्तु हैं और इनमें से पोर होती हुई आत्मा अमरता को प्राप्त करती है। हेगल ने कहा है कि सभी आत्माएँ पूर्णता की ओर बढ़ रही हैं तथा जीवन व मृत्यु उनकी अवस्थाएँ हैं। महान् दार्शनिक वैज्ञानिक लीपनिज ने लिखा है-प्रत्येक जीवित वस्तु अविनाशी है-उसके ह्रास तथा अन्तरावर्तन का नाम मृत्यु है और उसकी बुद्धि तथा विकास का नाम जीवन । मरने वाला प्राणी अपने शरीर यन्त्र का केवल एक अंश मात्र लेता है और विकास की उस तनु अवस्था अथवा उद्भव स्थिति में लौट जाता है, जिसमें जन्म के पूर्व था। पशुओं और मनुष्यों का उनके वर्तमान जीवन से पहले कोई अस्तित्व था और इस जीवन के बाद भी कोई अस्तित्व होगा, इस बात को स्वीकार करना ही होगा। पाश्चात्य दार्शनिकों की तरह आधुनिक काल के कवियों, लेखकों, आदि ने भी आत्माओं के देहान्तरवाद तथा पुनर्जन्म की धारणा को अभिव्यक्त किया है । पाश्चात्य दार्शनिक कवियों में एमर्सन, ड्राइटन, वर्डस, मेथ्यू अरनोल्ड, शैली ब्राउनिंग आदि के नाम प्रमुख हैं । ड्राइटन ने लिखा है कि इस अमर आत्मा का वध करने की सामर्थ्य मृत्यु में नहीं है । जब मृत्यु आत्मा के वर्तमान शरीर का वध करने चलती है तो आत्मा अपनी अक्षुण्ण शक्ति से नया आवास खोज निकालती है और जो दूसरे शरीर को जीवन व प्रकाश से भर देती है। एमर्सन ने लिखा है कि यदि मृत्यु यह सोचे कि वह आत्मा का विनाश कर रही है और आत्मा यह सोचे कि उसे नष्ट किया जा रहा है तो दोनों ही उस सूक्ष्म तत्त्वज्ञान से अनभिज्ञ है, जिसके अनुसार आत्मा स्थित रहती है और आवागमन के चक्र में घूमती है।। प्राध्यापक हक्सले का कथन है-केवल बिना ठीक से सोचे-समझे निर्णय लेने वाले विचारक ही पुनर्जन्म के सिद्धांत को मूर्खता की बात समझकर उसका विरोध करेंगे। विकासवाद के सिद्धांत की तरह देहान्तरवाद का सिद्धांत भी वास्तविक है। कवि टेनीसन ने अपनी प्रसिद्ध रचना 'टू वॉइस' में अपनी भावना व्यक्त की है कि यदि मेरे पिछले जन्म निम्न स्तर के रहे हैं और मेरे मस्तिष्क में इन जन्मों के अनुभव एकत्रित हो गये हैं तो भी मैं अपने दुर्भाग्य को विस्मृत कर सकता है। इसका कारण यह है कि हम अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों को भूल जाया करते हैं। पुरानी स्मृतियाँ हमारे कानों में नहीं गूंजती हैं। कट्टर नास्तिक जर्मन विद्वान नीट्शे ने भी अपने उत्तरार्ध जीवन में यह स्वीकार किया था कि जब तक मनुष्य कर्मबन्धन में पड़ा है तब तक एक नाम रूपात्मक देह का नाश होने पर कर्म के परिणामस्वरूप उसे इस सृष्टि में भिन्न-भिन्न नाम-रूपों का मिलना कभी नहीं छुटता है । दार्शनिक ल्यूमिंग का कहना है कि जब तक हर बार नया ज्ञान, नया अनुभव अर्जित करने की क्षमता मुझ में है, तब तक मैं पुनः-पुनः क्यों न लौटूं ? क्या मैं एक बार इतना कुछ लेकर आता हूँ कि मुझे पुनः लौटने का कष्ट उठाने की कोई आवश्यकता ही न रहे। मरणोत्तर जीवन के सम्बन्ध में पाश्चात्य जगत के चिंतन का ऊपर संकेत किया गया है और वैज्ञानिकों ने अपने दृष्टिकोण से शोध करके जो परिणाम निकाले, उनसे वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भोगासक्त आत्मायें मरने के बाद बहुत कष्ट भोगती हैं। वे यहाँ तक अनुभव करने में अक्षम होती हैं कि वे मृत हो चुकी हैं, पूर्व शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं रहा है । साधारणतया मरणोपरान्त वे निद्राच्छन्न अवस्था को प्राप्त होती हैं, परन्तु वे उसमें शांति से सो भी नहीं सकती हैं। भौतिक आसक्तियों के उनके पूर्व-संस्कार उन्हें संसार में अपने चाहने वालों से मिलने के लिए आने को बाध्य करते हैं, परन्तु जब कोई उन्हें निमंत्रित करने वाला नहीं दिखता तो वे बहुत दुखी हो जाती हैं । अनेक Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनर्जन्म सिद्धान्त: प्रमाणसिद्ध सत्यता वैज्ञानिकों ने छायाचित्र खींचने के विशेष कैमरों से मृत आत्माओं के चित्र खींचने की चेष्टा की और उसमें वे सफल भी हुए हैं । स्वामी अभेदानन्द ने अपनी पुस्तक 'लाईफ बियोन्ड डेथ' में मृत आत्माओं के बहुत से चित्र भी दिये हैं । पाश्चात्य देशों में मरणोत्तर जीवन के बारे में शोधकार्य चल रहे हैं और उनके इन कार्यों के परिणामस्वरूप नये नये तथ्य प्रगट हो रहे हैं । ३६३ पुनर्जन्म और मनोविज्ञान की दृष्टि मनोविज्ञान मानव जीवन के अन्तर्बाह्य समस्त व्यापारों का विचार करता है । इन व्यापारों को चरम परिति क्या है ? यह विषय आधुनिक मनोविज्ञान का विषय नहीं है, वह इसके विचार क्षेत्र से बाहर है । मानसिक व्यापार मानव स्वभाव का निर्देश करते हैं। जैसा स्वभाव वैसा जीवन - यह स्वभाववादी मनोविज्ञान का सिद्धांत है । इसकी दृष्टि में चेतना, मन, आत्मा आदि तत्वों का कोई अस्तित्व ही नहीं है । सब कुछ स्वभाव से होता है । अर्थात् स्वभाववादी मनोविज्ञान ने पहले आत्मा को उड़ा दिया, उसके बाद मन को और उसके बाद चेतना को उड़ा दिया । अब उसका क्षेत्र सिर्फ स्वभाव या व्यवहारयुक्त शरीर तक रह गया है । भौतिकवादी मनोविज्ञान के अनुसार तो यह माना जाता है कि मृत्यु व्यक्ति और व्यक्तित्व दोनों का नाश कर देती है । उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्व तक यूरोप का मनोविज्ञान जाग्रत अवस्था तक ही सीमित था । फ्रायड ने अपने अनुसंधान से स्वप्न की अनुभूतियों के आधार पर उपचेतन और अचेतन मन का पता लगाया था और सुषुप्ति की प्रेरणा तथा स्वरूप पर भी कुछ प्रकाश डाला । ब्रिटेन के मनोवैज्ञानिक डा० जोड ने प्रार्थना, प्राणायाम, उपवास, और ध्यान, धारणा के द्वारा चित्तवृत्ति को संस्कृत बनाने का संकेत दिया। थियोसोफिस्ट लोगों ने भारतीय अध्यात्म को स्पर्श करने का प्रयत्न किया । मनोविज्ञान की भारतीय परम्परा में पुनर्जन्म का सिद्धान्त पूर्णतया कर्मवाद पर आधारित है। अध्यात्म प्रधान मनोविज्ञान की यह नवीन शाखा परामनोविज्ञान के नाम से जानी जाती है । उसके अनुसंधान के मुख्य निष्कर्ष यह हैं मनुष्य भौतिक शरीर के अतिरिक्त और इसके द्वारा कार्य करने वाला एक आध्यात्मिक प्राणी है । जिसमें अनेक अद्भुत मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियाँ- जैसे दिव्य दृष्टि, अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष, मनःप्रत्यय ज्ञान, दूरक्रिया, प्रच्छन्न संवेदन, पूर्वबोध आदि हैं । मृत्यु केवल स्थूल शरीर को समाप्त कर पाती है। मरने के बाद भी मृत व्यक्ति की आत्मा इस संसार के व्यक्तियों पर प्रभाव डालती रहती है। उसका अस्तित्व किसी अन्य सूक्ष्म लोक में सूक्ष्म रूप से रहता है जहाँ रहते हुए वह इस लोक में रहने वाले प्राणियों के सम्पर्क में आ सकती है। स्थूल शरीर को ही व्यक्तित्व मानना तथा यह कहना कि स्थूल शरीर के नष्ट होने पर व्यक्तित्व ही समाप्त हो जाता है, ठीक उसी प्रकार से है जिस प्रकार से यह कथन कि बिजली के बल्व के फूट जाने पर या फ्यूज हो जाने पर बिजली ही नहीं रह जाती तथा उस बल्ब के स्थल पर कोई बल्ब ही नहीं जल सकता । व्यक्तित्व के बारे में इस प्रकार की धारणा मूर्खतापूर्ण धारणा है । सारांश यह है कि व्यक्तित्व में भौतिक तत्वों से परे की शक्ति विद्यमान है जो मृत्यु द्वारा समाप्त नहीं होती किन्तु वह उस रूप में या रूपान्तरित होकर अपना प्रदर्शन कर सकती है । मनोवैज्ञानिक डा० क्रूकाल ने हजारों घटनाओं का निरीक्षण करके इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है कि प्रत्येक प्राणी के अन्दर सूक्ष्म शरीर होता है जो कुछ अवसरों पर विशेषतः मृत्यु के अवसर पर इस भौतिक शरीर को छोड़कर बाहर निकलता है। परलोक में प्राणी इस सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही वहाँ के जीवन और भोगों को भोगता है । उन्होंने अपनी पुस्तक 'सुप्रीम एडवेन्चर्स' में जो मृत्यु, परलोक और पुनर्जन्म का वर्णन किया है, वह भारतीय दर्शनों के ग्रन्थों में किये गये मृत्यु व परलोक के वर्णन से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। इस प्रकार पाश्चात्य आध्यात्मिक अनुसंधान (परा-मनोविज्ञान) के अध्ययन से यह निश्चित होता जा रहा है। कि परलोक और पुनर्जन्म के सिद्धांत वैज्ञानिक एवं सर्वथा सत्य पर आधारित हैं । पुनर्जन्म : जन्म-मरण का सेतु पुनर्जन्म शब्द का आशय है जीवन का तिरोभाव होने के अनन्तर होने वाला आविर्भाव । तिरोभाव का नाम है मरण और आविर्भाव का नाम है जन्म। दोनों प्रत्यक्ष हैं और दोनों शब्द सही अर्थ को सम्भवतः कुछ व्यक्ति ही समझते होंगे। अतः इनका आशय यहाँ स्पष्ट परस्पर विरोधी हैं। लेकिन इनके करते हैं । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : चतुर्थ खण्ड जीवन और मृत्यु दोनों ही संस्कृत भाषा के शब्द हैं / 'जीव प्राणधारणे' धातु से जीवन और मृड् प्राण त्यागने से मृत्यु शब्द की निष्पत्ति होती है। प्राण धारण व प्राण त्याग बिल्कुल विपरीतार्थक हैं और इनका सीधा-सा अभिप्राय यह है कि जब तक प्राणवायु का संचार होता रहता है तब तक जीवन और जब प्राणवायु का गतागत समाप्त हो जाता है तब मृत्यु शब्द का व्यपदेश होने लगता है। इस प्रकार प्राणवायु के धारण और प्राणवायु के परित्याग द्वारा जो जीवन और मरण ये दो अवस्थायें बनती हैं वे शरीर की हैं या शरीर के अन्तर में निवास करने वाले जीव की अथवा केवल वायु की ? इन सबका विचार किया जाये तो जीवन और मृत्यु का व्यपदेश शरीर से सम्बन्ध रखता है अर्थात् जब तक शरीर में प्राणवायु का संचार रहता है तब तक शरीर की कैसी भी अवस्था बन जाये, जीवित ही कहा जाता है और उसका सम्बन्ध हट जाने पर मृत माना जाता है, लेकिन इसके आगे का विचार करते हैं तो मानना पड़ेगा कि हमारे जीवन व मृत्यु के साथ न केवल प्राण का संसर्ग जुड़ा हुआ है किन्तु उसके अतिरिक्त कोई इस प्रकार का तत्त्व अवश्य है जो प्राण का सहकारी है / प्राण की सत्ता उसके आधार पर ही टिकी हुई है / वह तत्त्व जैसे इस शरीर को धारण किये हुए है ठीक उसी प्रकार से शरीरान्तर धारण करने की भी क्षमता रखता है / वह शरीर से भिन्न, प्राण से भिन्न तथा इन्द्रियों से भिन्न एक तत्व हैं जो शरीरान्तरों मे गतागत करता है और जीवन तथा मृत्यु उसकी ये दो गतियां हैं। यह दोनों गतियां उस समय तक चलती रहती हैं जब तक कर्म फलभोग का क्रम चालू है। उपसंहार यहाँ संक्षिप्त रूप में पुनर्जन्म और उसके कारण आदि का परिचय दिया गया है / सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में ऐसे अनेक वृत्तान्त पढ़ने को मिलते हैं। जिनसे परलोक और पुनर्जन्म सिद्धांत की सिद्धि होती है। सभी आस्तिक दर्शनों का यह एक प्रमुख विषय है तथा आत्मा के अनादि अनन्तत्व को सिद्ध करने वाला होने से यह सिद्धांत स्वाभाविक है। किसी भी ताकिक में इस सिद्धांत को झुठलाने की क्षमता नहीं है, चाहे वह कैसी भी आलोचना करता रहे / क्योंकि जन्म है तो मृत्यु भी है और मृत्यु है तब तो पुनर्जन्म भी है। 6-0--0-पुष्क र वाणी --------------------------------------- मुख्य चिन्ह मुखवस्त्रिका, जैन सन्त का जान / बचा रही है प्रेम से, वायुकाय के प्राण // यह गिरने देती नहीं, सम्मुखस्थित पर थूक / कहती अपने वचन से, कभी न जाना चूक / देखो दूषित वायू का, मूख में हो न प्रवेश / देती है मुखवस्त्रिका, हमें नव्य' सन्देश / / जिस नर का हो मुख बँधा, वह रहता है स्वस्थ / पैणा पी सकता नहीं, नियम नेक अत्रस्त / / -o---------------------------- 0 8-0--0--0-0--0-0-0--0--0-0--0--0--0--0--0--0-0-0--0-0-----------