Book Title: Pravachansara Padyanuwada
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 12
________________ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - बस उसतरह ही जीव बाँधे मूर्त पुद्गलकर्म को ।।१७४।। प्राप्त कर उपयोगमय जिय विषय विविध प्रकार के। रुष-तुष्ट होकर मुग्ध होकर विविधविध बंधन करे ।।१७५।। जिस भाव से आगत विषय को देखे-जाने जीव यह। उसी से अनुरक्त हो जिय विविधविध बंधन करे ।।१७६।। स्पर्श से पुद्गल बंधे अर जिय बंधे रागादि से। जीव-पुद्गल बंधे नित ही परस्पर अवगाह से ।।१७७।। आतमा सप्रदेश है उन प्रदेशों में पुद्गला । परविष्ट हों अर बंधे अर वे यथायोग्य रहा करें ।।१७८।। रागी बाँधे कर्म छुटे राग से जो रहित है। और पुद्गल द्रव्यमय सब भाव का कर्ता नहीं ।।१८४।। जीव पुद्गल मध्य रहते हुए पुद्गलकर्म को। जिनवर कहें सब काल में ना ग्रहे-छोड़े-परिणमे ।।१८५।। भवदशा में रागादि को करता हुआ यह आतमा। रे कर्मरज से कदाचित् यह ग्रहण होता छूटता ।।१८६।। रागादियुत जब आतमा परिणमे अशुभ-शुभ भाव में। तब कर्मरज से आवरित हो विविध बंधन में पड़े ।।१८७।। विशुद्धतम परिणाम से शुभतम करम का बंध हो। संक्लेशतम से अशुभतम अर जघन हो विपरीत से ।।१३।। सप्रदेशी आतमा रुस-राग-मोह कषाययुत । •आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा १३ ---________(४०) (४२)____--- यह बंध का संक्षेप है बस नियतनय का कथन यह ।।१७९।। राग-रुष अर मोह ये परिणाम इनसे बंध हो। राग है शुभ-अशुभ किन्तु मोह-रुष तो अशुभ ही ।।१८०।। पर के प्रति शुभभाव पुण पर अशुभ तो बस पाप है। पर दुःखक्षय का हेतु तो बस अनन्यगत परिणाम है।।१८१॥ पृथ्वी आदि थावरा त्रस कहे जीव निकाय हैं। वे जीव से हैं अन्य एवं जीव उनसे अन्य है।।१८२।। जो न जाने इसतरह स्व और पर को स्वभाव से। वे मोह से मोहित रहे 'ये मैं हूँ' अथवा 'मेरा यह' ।।१८३।। निज भाव को करता हआ निजभाव का कर्ता कहा। हो कर्मरज से लिप्त यह ही बंध है जिनवर कहा ।।१८८।। यह बंध का संक्षेप जिनवरदेव ने यतिवृन्द से। नियतनय से कहा है व्यवहार इससे अन्य है।।१८९।। तन-धनादि में 'मैं हूँ यह' अथवा 'ये मेरे हैं' सही। ममता न छोड़े वह श्रमण उनमार्गी जिनवर कहें ।।१९०।। पर का नहीं ना मेरे पर मैं एक ही ज्ञानात्मा। जो ध्यान में इस भाँति ध्यावे है वही शुद्धात्मा ।।१९।। । इसतरह मैं आतमा को ज्ञानमय दर्शनमयी। ध्रुव अचल अवलंबन रहित इन्द्रियरहित शुध मानता ।।१९२।। अरि-मित्रजन धन्य-धान्यसुख-दुखदेह कुछभी ध्रुव नहीं। - - - - - - - - - - ------__(४३) - - - -

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