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जो श्रमण वैयावृत्ति में छहकाय को पीड़ित करें। वे गृही ही है क्योंकि यह तो श्रावकों का धर्म है।।२५०॥ दया से सेवा सदा जो श्रमण-श्रावकजनों की। करे वह भी अल्पलेपी कहा है जिनमार्ग में।।२५१।। भूखे-प्यासे दुःखीजन लख दुखित मन से जो पुरुष। दया से हो द्रवित बस वह भाव अनुकंपा कहा ।।३६।। श्रम रोग भूखरु प्यास से आक्रान्त हैं जो श्रमणजन। उन्हें लखकर शक्ति के अनुसार वैयावृत करो।।२५२।। ग्लान गुरु अर वृद्ध बालक श्रमण सेवा निमित्त से। निंदित नहीं शुभभावमय संवाद लौकिकजनों से ।।२५३।। -प्रशस्त चर्वा श्रमण के हो गौण किन्तु गृहीजन । .आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा ३६
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सन्मार्गगामी वे श्रमण परमार्थ मग में मगन हैं।।२५९।। शुद्ध अथवा शुभ सहित अर अशुभ से जो रहित हैं। वे तार देते लोक उनकी भक्ति से पुणबंध हो ।।२६०।। जब दिखें मुनिराज पहले विनय से वर्तन करो। भेद करना गुणों से पश्चात् यह उपदेश है।।२६१।। गुणाधिक में खड़े होकर अंजलि को बाँधकर। ग्रहण-पोषण-उपासन-सत्कार कर करना नमन ।।२६२।। विशारद सूत्रार्थ संयम-ज्ञान-तप में आय हों। उन श्रमणजन को श्रमणजन अति विनय से प्रणमन करें।।२६३।। सूत्र संयम और तप से युक्त हों पर जिनकथित ।
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------- तत्त्वार्थ को ना श्रद्धहैं तो श्रमण ना जिनवर कहें।।२६४।। जो श्रमणजन को देखकर विद्वेष से वर्तन करें। अपवाद उनका करें तो चारित्र उनका नष्ट हो।।२६५।। स्वयं गुण से हीन हों पर जो गुणों से अधिक हों। चाहे उनसे नमन तो फिर अनंतसंसारी हैं वे॥२६६।। । जो स्वयं गुणवान हों पर हीन को वंदन करें। द्रगमोह में उपयुक्त वे चारित्र से भी भ्रष्ट हैं।।२६७।। सूत्रार्थविद जितकषायी अर तपस्वी हैं किन्तु यदि। लौकिकजनों की संगति न तजे तो संयत नहीं ।।२६८।। । निर्ग्रन्थ हों तपयुक्त संयमयुक्त हों पर व्यस्त हों।
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के मुख्य होती है सदा अर वे उसी से सुखी हों ।।२५४।। एकविध का बीज विध-विध भूमि के संयोग से। विपरीत फल शुभभाव दे बस पात्र के संयोग से ।।२५५।। अज्ञानियों से मान्य व्रत-तप देव-गुरु-धर्मादि में। रत जीव बाँधे पुण्यहीनरु मोक्ष पद को ना लहें ।।२५६।। जाना नहीं परमार्थ अर रत रहें विषय-कषाय में। उपकार सेवादान दें तो जाय कुनर-कुदेव में।।२५७।। शास्त्र में ऐसा कहा कि पाप विषय-कषाय हैं। जो पुरुष उनमें लीन वे कल्याणकारक किसतरह ।।२५८।। समभाव धार्मिकजनों में निष्पाप अर गुणवान हैं।
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