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इहलोक के व्यवहार में तो उन्हें लौकिक ही कहा ।।२६९।। यदि चाहते हो मुक्त होना दुखों से तो जान लो। गुणाधिक या समान गुण से युक्त की संगति करो।।२७०।।
पंचरत्न अधिकार अयथार्थग्राही तत्त्व के हों भले ही जिनमार्ग में। कर्मफल से आभरित भवभ्रमे भावीकाल में ।।२७१।। यथार्थग्राही तत्त्व के अर रहित अयथाचार से। प्रशान्तात्मा श्रमण वे ना भवभ्रमे चिरकाल तक।।२७२।। यथार्थ जाने अर्थ दो विध परिग्रह को छोड़कर। ना विषय में आसक्त वे ही श्रमण शुद्ध कहे गये ।।२७३।। है ज्ञान-दर्शन शुद्धता निज शद्धता श्रामण्य है।
हो शुद्ध को निर्वाण शत-शत बार उनको नमन है।।२७४।। --नोश्रमण-श्रावक-जानते जिनवचन के इस स्मार-को+---
वे प्राप्त करते शीघ्र ही निज आत्मा के सार को ।।२७५।।
(मनहरण कवित्त) जिसने किये हैं निर्मूल घातिकर्म सब।
अनंत सुख वीर्य दर्श ज्ञान धारी आतमा ।। भूत भावी वर्तमान पर्याय युक्त सब ।
द्रव्य जाने एक ही समय में शुद्धातमा ।। मोह का अभाव पररूप परिणमें नहीं।
सभी ज्ञेय पीके बैठा ज्ञानमूर्ति आतमा ।। पृथक्-पृथक् सब जानते हुए भी ये।
सदा मुक्त रहें अरिहंत परमातमा ।।४।।
प्रवचनसार कलश पद्यानुवाद
(दोहा) स्वानुभूति से जो प्रगट सर्वव्यापि चिद्रूप। ज्ञान और आनन्दमय नमो परात्मस्वरूप ॥१॥ महामोहतम को करे क्रीड़ा में निस्तेज । सब जग आलोकित करे अनेकान्तमय तेज ।।२।। प्यासे परमानन्द के भव्यों के हित हेतु । वृत्ति प्रवचनसार की करता हूँ भवसेतु ।।३।।
विलीन मोह-राग-द्वेष मेघ चहुं ओर के,
चेतना के गुणगण कहाँ तक बखानिये। अविचल जोत निष्कंप रत्नदीप सम,
विलसत सहजानन्द मय जानिये ।। नित्य आनंद के प्रशमरस में मगन,
शुद्ध उपयोग का महत्त्व पहिचानिये । नित्य ज्ञानतत्त्व में विलीन यह आतमा,
स्वयं धर्मरूप परिणत पहिचानिये ।।५।। आतमा में विद्यमान ज्ञानतत्त्व पहिचान, पूर्णज्ञान प्राप्त करने के शुद्धभाव से।
(६७)
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