Book Title: Pratikraman Sutra Ek Vivechan Author(s): Saubhagyamal Jain Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 8
________________ 58 | 58 | जिनवाणी || ||15,17 नवम्बर 2006|| नहीं चाहते हुए भी होने वाली भूलें। इनमें से चौथे प्रकार की भूलें पूर्वधरों, छद्मस्थ संतों, श्रावकों अथवा किसी भी जीव से हो सकती हैं और होती हैं। भूल करने की भावना नहीं है, फिर भी भूल हो जाती है। उसका 'मिच्छा मि दुक्कडं' या सामान्य ‘पश्चात्ताप' के रूप में दोष का परिमार्जन किया जा सकता है। अनजाने में या अज्ञानवश अथवा भोलेपन की भूलें क्षम्य हैं- जैसे बच्चे द्वारा पिताजी की मूंछे खींच लेना, पागल व्यक्ति द्वारा माता को बहिन और पत्नी को माता कह देना, ये अज्ञानजन्य भूलें हैं। कभी नहीं चाहते हुए भी जीव को कष्ट पहुँच सकता है. जीव का अंग-भंग हो सकता है अथवा अंत भी हो सकता है। अनजाने में इस तरह की होने वाली भूलें क्षम्य हैं, जिनका सामान्य पश्चात्ताप से शुद्धीकरण हो सकता है। किन्तु ऐसी भूलों के शुद्धीकरण के लिए भी देवसिक, राइय प्रतिक्रमण आवश्यक है तो फिर आवेग पूर्ण और योजनाबद्ध भूलों के परिमार्जन के लिए तो प्रतिक्रमण करना ही चाहिए। जानने के लिए स्वाध्याय की साधना आवश्यक है और आत्मशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण कौन, किसका करे? आचार्य भद्रबाहु ने साधक को उत्प्रेरित किया है कि वह प्रतिक्रमण में प्रमुख रूप से चार विषयों पर गहराई से अनुचिन्तन करे- १. श्रमण और श्रावक के लिए क्रमशः महाव्रतों और अणुव्रतों का विधान है। उसमें दोष न लगे, इसके लिए सतत सावधानी आवश्यक है। यद्यपि श्रमण और श्रावक सतत सावधान रहता है, फिर भी कभी-कभी असावधानीवश अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह में स्खलना हो गई हो तो श्रमण और श्रावक को उसकी शुद्धि हेतु प्रतिक्रमण करना चाहिए। २. श्रमण और श्रावकों के लिए एक आचार-संहिता आगमसाहित्य में निरूपित की गई है। श्रमण के लिए स्वाध्याय, ध्यान, प्रतिलेखन आदि अनेक विधान हैं तो श्रावक के लिए भी दैनन्दिन साधना का विधान है। यदि उन विधानों की पालना में स्खलना हो जाये तो उस संबंध में प्रतिक्रमण करना चाहिए। कर्त्तव्यों के प्रति जरा सी असावधानी भी साधक के लिए उचित नहीं है। ३. आत्मा आदि अमूर्त पदार्थों को प्रत्यक्ष-प्रमाण के द्वारा सिद्ध करना संभव नहीं है। वे तो आगम आदि प्रमाणों के द्वारा सिद्ध किये जा सकते हैं। उन अमूर्त तत्त्वों के संबंध में मन में यह सोचना कि वे हैं या नहीं, यदि इस प्रकार मन में अश्रद्धा उत्पन्न हुई हो तो उसकी शुद्धि के लिए साधक को प्रतिक्रमण करना चाहिए। ४. हिंसा आदि दुष्कृत्य जिनका महान् आत्माओं ने निषेध किया है, साधक उन दुष्कृत्यों का प्रतिपादन न करे। यदि असावधानी वश कभी प्रतिपादन कर दिया हो तो उसकी प्रतिक्रमण द्वारा शुद्धि करे और भविष्य में पुनरावर्तन न हो इसका संकल्प करे। जिनका प्रतिक्रमण करना आवश्यक है, उनका संक्षेप में वर्गीकरण निम्न प्रकार से परिचय हेतु प्रस्तुत है. १. २५ मिथ्यात्व, १४ ज्ञानातिचार, १८ पापस्थानों का प्रतिक्रमण सभी साधकों के लिए आवश्यक है। २. ५ महाव्रत, ३ योगों का असंयम, गमन, भाषण, याचना, ग्रहण-निक्षेप, मल-मूत्र विसर्जन श्रमण साधकों के लिए है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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