Book Title: Pratikraman Sutra Ek Vivechan
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 11
________________ 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 61 नष्ट करने के लिए कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग शरीर से ममता घटाने का अमोघ साधन है। कायोत्सर्ग शब्द के विन्यास में यही तो भाव निहित है। कायोत्सर्ग 'काय + उत्सर्ग' दो शब्दों के मेल से बना है। जिसका अर्थ है शरीर से ममत्व का त्याग करना । कायोत्सर्ग में चिन्तन का विषय ग्रंथि भेद एवं भेद विज्ञान होना चाहिए तभी उसका व्यावहारिक रूप, शरीर से ममता कम होने का प्रत्यक्ष दृग्गोचर हो सकता है। कायोत्सर्ग का मूल उद्देश्य समाधि प्राप्त करना है, जो संसार से ममता / आसक्ति घटने या हटने पर ही संभव है । योत्सर्ग की मुद्रा में साधक की शारीरिक स्थिति पूर्ण निश्चल और निष्पंद होती है। साधक आत्माओं ने कायोत्सर्ग की विभिन्न मुद्राओं का निरूपण किया है, जिनमें ३ का उल्लेख ग्रंथों में उपलब्ध होता है। खड़े होकर, बैठकर और लेटकर तीन अवस्थाओं में कायोत्सर्ग किया जा सकता है, किन्तु हमारे यहाँ खड़े होकर कायोत्सर्ग करने की एक विशेष परम्परा रही है, क्योंकि तीर्थंकर भगवंतों ने प्रायः इसी मुद्रा में कायोत्सर्ग किया है। विभिन्न परम्पराओं में आसन, मुद्रा, चिन्तनीय पाठ आदि विषयों को लेकर विविधता रही हुई है। कायोत्सर्ग प्रकरण का क्षेत्र काफी व्यापक है और विवेचन की दृष्टि से विशदता लिए हुए है। आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग के अनेक सुफल बताये हैं, जिनमें कतिपय का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है- १. देह जाड्य बुद्धि- श्लेष्म आदि से देह आने वाली जड़ता समाप्त होना। २. मति जाड्य बुद्धिबौद्धिक जड़ता समाप्त होना ३ सुख-दुःख तितिक्षा - सुख-दुःख सहन करने की क्षमता प्राप्त होना । ४. अनुप्रेक्षा- भावना का स्थिरता पूर्वक अभ्यास ५. ध्यान- शुभ ध्यान का सहज अभ्यास होना ! कायोत्सर्ग में शारीरिक चंचलता के विसर्जन के साथ ही शारीरिक ममत्व का भी विसर्जन होता है, जिससे शरीर और मन में तनाव उत्पन्न नहीं होता। मन-मस्तिष्क और शरीर का गहरा संबंध होने से स्वास्थ्यदृष्टि भी कायोत्सर्ग का अत्यधिक महत्त्व है। कायोत्सर्ग की योग्यता प्रतिक्रमण के पश्चात् आती है। प्रतिक्रमण में पापों की आलोचना हो जाने से चित्त पूर्ण रूप से निर्मल बन जाता है। प्रवचनसारोद्धार प्रभृति ग्रंथों में कायोत्सर्ग के १९ दोष वर्णित हैं- जिनसे कायोत्सर्ग के साधक को बचने का निर्देश किया है। कायोत्सर्ग ध्यान-साधना का ही एक प्रकार बताया है। उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी अध्ययन में कहा है"काउसग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं" अर्थात् कायोत्सर्ग सब दुःखों का क्षय करने वाला है। षडावश्यक में जो कायोत्सर्ग है, उसमें चतुर्विंशतिस्तव का ध्यान किया जाता है। प्रत्याख्यान : छठा आवश्यक प्रत्याख्यान का अर्थ है - त्याग करना । भविष्य में लगने वाले पापों से निवृत्त होने के लिए गुरु साक्षी या आत्मसाक्षी से हेय वस्तु के त्याग करने को प्रत्याख्यान कहते हैं । प्रत्याख्यान शब्द की रचना प्रति + आ + आख्यान, इन तीनों के संयोग से हुई है। जिसका भावार्थ है- “भविष्यकाल के प्रति आ मर्यादा के साथ अशुभ योग से निवृत्ति और शुभ योग में प्रवृत्ति का आख्यान करना प्रत्याख्यान है ।" इस विराट विश्व में पदार्थों का इतना आधिक्य है कि जिसकी गणना करना संभव नहीं। मानव की इच्छाएँ असीम हैं। वह सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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