Book Title: Pratikraman Sutra Ek Vivechan Author(s): Saubhagyamal Jain Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 1
________________ 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 51 प्रतिक्रमण सूत्र : एक विवेचन श्री सौभाग्यमल जैन प्रतिक्रमण के विभिन्न पक्षों का इस आलेख में सुन्दर विवेचन है। नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका आदि के वाक्यों को भी उद्धृत करते हुए विवेच्य विषय का सम्यक् प्रतिपादन किया गया है। -सम्पादक इस क्षणिक देह पर हमारा कितना ममत्व, मूर्छा और आसक्ति है? यद्यपि यह शरीर हमें बार-बार मिला है, किन्तु एक बार भी हमारे साथ नहीं रहा है, फिर भी इस संयोगजन्य सम्बन्ध को तादात्म्य सम्बन्ध मानकर हमने इससे राग का सम्बन्ध जोड़ा है और मोह को दृढ़ता दी है। अनन्त काल से प्राप्त अनन्त शरीरों पर अनन्त आसक्तियों का लेप, निर्मल आत्मा पर चढ़ा है, जिससे शुद्ध चैतन्य आत्मा कर्म-लेपों से इतनी आच्छादित है कि वह स्व-स्वरूप से भी अनभिज्ञ है। पाप कर्म-मल हटाने एवं आत्मा की निर्मलता हेतु प्रत्येक भव्यात्मा को ज्ञान-पिपासु बनकर स्वाध्याय-साधना का अवलम्बन लेकर ज्ञानार्जन एवं तदनुरूप आचरण का सतत प्रयास करना आवश्यक है। ज्ञान, आचरण में आने पर ही प्रायश्चित्त रूप प्रतिक्रमण का स्वरूप समझा जा सकता है, जो आवश्यक है। आवेश, आवेग और अज्ञानता के कारण जीव का स्वस्थान से पर-स्थान पर जाना हो सकता है, किन्तु प्रतिक्रमण द्वारा जीव अपने स्थान पर पुनः प्रतिष्ठित होता है। प्रतिक्रमण आत्म-साधना है। प्रतिक्रमण रूप आत्म-साधना से भीतर रहे हुए विकार दूर किये जा सकते हैं। सम्यक् ज्ञानी, सम्यग्दर्शी, देशविरति श्रावक एवं सर्वविरति साधु इन चारों को शास्त्रकारों ने एक ही रूप में कहा है। ये चारों आत्म-लक्ष्यी बन कर चलते हैं! इनकी श्रद्धा-प्ररूपणा एक होती है। ज्ञानी का ध्येय होता है कि वह व्रत-चारित्र में कदम बढ़ा कर विषय - वासनाओं से हटे और उत्तरोत्तर साधना में लीन रहे। ज्ञानीजन जहाँ तक बन पड़ता है भूल नहीं करते हैं कदाचित् छद्मस्थता के कारण भूल हो भी जाये तो उसी समय शुद्धीकरण कर लेते हैं, दोषों का परिमार्जन कर लेते हैं। वे शुद्ध भावों से पश्चात्ताप पूर्वक आगामी काल के लिए भूलों को न दोहराने का संकल्प कर लेते हैं। प्रतिक्रमण एक अनुष्ठान है, जिसे कालेकाल नियमपूर्वक साधक आत्माओं द्वारा संपादित किया जाता है। आवश्यक सूत्र एवं प्रतिक्रमण सूत्र : परिचयात्मक स्वरूप जीवन में अनेक आवश्यक कर्म हैं- किन्तु यहाँ आवश्यक से अभिप्रेत लौकिक क्रिया नहीं, अपितु लोकोत्तर क्रिया है। श्रमण या श्रावक के जीवन तथा आवश्यक सूत्र में निर्दिष्ट प्रकारों से यह परिलक्षित होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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