Book Title: Pratikraman Sutra Ek Vivechan
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 10
________________ | जिनवाणी |15,17 नवम्बर 2006 (३) कालापेक्षया तीन भेद- प्रतिक्रमण के कालापेक्षया ३ भेद हैं- १. अतीत २. वर्तमान ३. भविष्य। इसके अनुसार भूतकाल में लगे हुए दोषों की आलोचना, वर्तमान में लगने वाले दोषों से संवर द्वारा बचना एवं प्रत्याख्यान द्वारा भावी दोषों को रोकना भविष्यकालिक प्रतिक्रमण है। (४) विशेष काल की अपेक्षा से पाँच भेद- विशेष काल की अपेक्षा से प्रतिक्रमण के ५ भेद शास्त्रों में बताये गये हैं - १. देवसिक २. रात्रिक ३. पाक्षिक ४. चातुर्मासिक और ५. सांवत्सरिक। दिन के अंत में सायंकाल के समय प्रतिदिन, दिनभर की पापालोचना करना देवसिक प्रतिक्रमण है। नित्य ही प्रातःकाल के समय में, रात्रि में जो दोष लगे हों, उन पापों की निवृत्ति हेतु रात्रि के अंत में आलोचना करना रात्रिक प्रतिक्रमण है। प्रत्येक पक्ष अर्थात् मास में २ बार अमावस्या और पूर्णिमा को अथवा चतुर्दशी को सम्पूर्ण पक्ष में आचरित पापों की आलोचना पाक्षिक प्रतिक्रमण है। चार-चार मास के पश्चात् कार्तिकी, फाल्गुनी, आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन चार महीनों में लगे हुए दोषों की आलोचना कर प्रतिक्रमण करना चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है। आषाढी पूर्णिमा से उनपचास या पचासवें दिन, वर्षभर की वार्षिक आलोचना, भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी या पंचमी को सायंकालीन की जाती है, वह सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है। कल्पूसत्र में प्रतिक्रमण की साधना को श्रमण-वर्ग के लिए उनके कल्प में समाविष्ट कर उभयकालीन प्रतिक्रमण की साधना पर विशेष बल दिया है। (५) छ: भेद- ठाणांग सूत्र ६/५/३७ में प्रतिक्रमण के ६ प्रकार भी प्रतिपादित किये गये हैं। इन प्रतिक्रमणों का मुख्य संबंध श्रमण की जीवन-चर्या से है। उनके नाम हैं- १. उच्चार-प्रतिक्रमण २. प्रस्रवण प्रतिक्रमण ३. इत्वर प्रतिक्रमण ४. यावत्कथिक प्रतिक्रमण ५. यत्किंचित् मिथ्या प्रतिक्रमण और ६. स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण । कृत भूल की शुद्धि तथा भविष्य में भूल न करने की प्रतिज्ञा प्रतिक्रमण का रूप है। भूल के लिए मन में पश्चात्ताप, वाणी से स्वीकृति, आलोचना और 'मिच्छामि दुक्कडं' कहा जाता है, किन्तु केवल 'मिच्छामि दुक्कडं' कहना मात्र पर्याप्त नहीं, उन भूलों का पुनः पुनरावर्तन नहीं हो, यह अपेक्षित है- अन्यथा भूलों का शुद्धीकरण नहीं होगा। ५. कायोत्सर्ग : पाँचवाँ आवश्यक जैन साधना-पद्धति में कायोत्सर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा हुआ है। अनुयोग द्वार में इसे 'व्रण चिकित्सा' के नाम से दर्शाया है। साधक के पूर्ण जागरूक रहने पर भी प्रमाद आदि के कारण से साधना में दोष लगना अथवा भूलें हो जाना स्वाभाविक है। अतिचार रूपी घावों को ठीक करने के लिए कायोत्सर्ग एक प्रकार का मरहम है। संयमरूपी वस्त्र पर अतिचारों का मैल अथवा दाग लग जाता है. जिसे प्रतिक्रमण के द्वारा स्वच्छ किया जाता है। प्रतिकक्रमण से जो दाग नहीं धुलते अथवा नहीं मिटते उन्हें कायोत्सर्ग के द्वारा हटाया जाता है। कायोत्सर्ग में गहराई से चिन्तन कर उस दोष को नष्ट करने का उपाय किया जाता है। अर्थात् संयमी जीवन को अधिकाधिक परिष्कृत करने के लिए, आत्मा को शल्य मुक्त करने के लिए, पाप-कर्मों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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