Book Title: Pratibhamurti Siddhasena Diwakara Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 4
________________ २७२ तस्मिन् मुहूर्ते पुरसुन्दरीणामीशान संदर्शनलालसानाम् । प्रासादमालासु बभूवुरित्थं त्यक्तान्यकार्याणि विचेष्टितानि ॥ ५६ ॥ विलोचनं दक्षिणमञ्जनेन संभाव्य तद्वश्चितवामनेत्रा | तथैव वातायनसंनिकर्षं ययौ शलाकामपरा वहन्ती ॥ ५६ ॥ तासां मुखैरासवगन्धगर्भे यसान्तराः सान्द्र कुतूहलानाम् । विलोलनेत्र भ्रमरैर्गवाक्षाः सहस्रपात्राभरणा इवासन् ॥ ६२ ॥ ( कालि० कुमार० सर्ग ७ . ) सिद्धसेन ने गद्य में कुछ लिखा हो तो पता नहीं है। उन्होंने संस्कृत में बत्तीस बत्तीसियों रची थीं, जिनमें से इक्कीस अभी लभ्य हैं। उनका प्राकृत में रचा 'सम्मति प्रकरण' जैनदृष्टि और जैन मन्तव्यों को तर्क शैली से स्पष्ट करने तथा स्थापित करनेवाला जैन वाङ्मय में सर्व प्रथम ग्रन्थ है। जिसका श्राश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर दिगम्बर विद्वानों ने लिया है। संस्कृत बत्तीसियों में शुरू की पांच और ग्यारहवीं स्तुतिरूप हैं। प्रथम की पाँच में महावीर की स्तुति है जब कि ग्याहरवीं में किसी पराक्रमी और विजेता राजा की स्तुति है । ये स्तुतियाँ अश्ववोत्र समकालीन बौद्ध स्तुतिकार मातृचैट के 'अध्यर्धशतक, ' ' चतुःशतक' तथा पश्चाद्वर्ती श्रार्यदेव के चतुःशतक की शैली की याद दिलाती हैं। सिद्धसेन ही जैन परम्परा का श्राद्य संस्कृत स्तुतिकार है । आचार्य हेमचन्द्र ने जो कहा है 'क सिद्धसेनस्तुतयो महार्थां अशिक्षितालापकला व चैषा' वह बिलकुल सही है । स्वामी समन्तभद्र का 'स्वयंभूस्तोत्र' जो एक हृदयहारिणी स्तुति है और 'युक्त्यनुशासन' नामक दो दार्शनिक स्तुतियाँ ये सिद्धसेन की कृतियों का अनुकरण जान पड़ती हैं। हेमचन्द्र ने भी उन दोनों का अपनी दो बत्तीसियों के द्वारा अनुकरण किया है । I बारहवीं सदी के प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में उदाहरणरूप में लिखा है कि 'अनुसिद्धसेनं कवयः' । इसका भाव यदि यह हो कि जैन परम्परा के संस्कृत कवियों में सिद्धसेन का स्थान सर्व प्रथम है ( समय की दृष्टि से और गुणवत्ता की दृष्टि से अन्य सभी जैन कवियों का स्थान सिद्धसेन के बाद आता है ) तो वह कथन आज तक के जैनवाङ्मय की दृष्टि से अक्षरशः सत्य है । उनकी स्तुति और कविता के कुछ नमूने देखिये - स्वयंभुवं भूतसहस्रनेत्रमनेकमेकावर भाव लिङ्गम् । अभ्यक्तमव्याहत विश्वलोकमनादिमध्यान्तम पुण्यपापम् ॥ समन्तमर्वाक्षगुणं निरक्षं स्वयंप्रभं सर्वगतावभासम् । अतीत संख्यानमनंत कल्पमचि त्यमाहात्म्यमलोक लोकम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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