Book Title: Pratibhamurti Siddhasena Diwakara
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर भारतीय दर्शन अध्यात्मलक्ष्य हैं । पश्चिमीय दर्शनों की तरह वे मात्र बुद्धि प्रधान नहीं हैं । उनका उद्गम ही आत्मशुद्धि की दृष्टि से हुश्रा है। वे आत्मतत्त्व को और उसकी शुद्धि को लक्ष्य में रख कर ही बाह्य जगत का भी विचार करते हैं। इसलिए सभी आस्तिक भारतीय दर्शनों के मौलिक तत्त्व एक से ही हैं। जैन दर्शन का स्रोत भगवान् महावीर और पार्श्वनाथ के पहले से ही किसी न किसी रूप में चला आ रहा है यह वस्तु इतिहाससिद्ध है। जैन दर्शन की दिशा चारित्र-प्रधान है जो कि मूल आधार श्रात्म-शुद्धि की दृष्टि से विशेष संगत है। उसमें ज्ञान, भक्ति आदि तत्त्वों का स्थान अवश्य है पर वे सभी तत्त्व चारित्र-पर्यवसायी हो तभी जैनत्व के साथ संगत हैं। केवल जैन परंपरा में ही नहीं बल्कि वैदिक, बौद्ध श्रादि सभी परंपराओं में जब तक आध्यात्मिकता का प्राधान्य रहा या वस्तुतः उनमें श्राध्यात्मिकता जीवित रही तब तक उन दर्शनों में तर्क और वाद का स्थान होते हुए भी उसका प्राधान्य न रहा । इसीलिए हम सभी परम्पराओं के प्राचीन ग्रन्थों में उतना तर्क और बादताण्डव नहीं पाते हैं जितना उत्तरकालीन ग्रन्थों में । श्राध्यात्मिकता और त्याग की सर्वसाधारण में निःसीम प्रतिष्ठा जम चुकी थी। अतएव उस उस श्राध्यात्मिक पुरुष के श्रासपास सम्प्रदाय भी अपने आप जमने लगते थे । जहाँ सम्प्रदाय बने कि फिर उनमें मूल तत्त्व में भेद न होने पर भी छोटी छोटी बातों में और अवान्तर प्रश्नों में मतभेद और तज्जन्य विवादों का होता रहना स्वाभाविक है। जैसे जैसे सम्प्रदायों की नींव गहरी होती गई और वे फैलने लगे वैसे से उनमें परस्पर विचार-संघर्ष भी बढ़ता चला । जैसे अनेक छोटे बड़े राज्यों के बीच चढ़ा-ऊतरी का संघर्ष होता रहता है । राजकीय संघर्षों ने यदि लोकजीवन में क्षोम किया है तो उतना ही क्षोभ बल्कि उससे भी अधिक क्षोभ साम्प्रदायिक संघर्ष ने किया है। इस संघर्ष में पड़ने के कारण सभी श्राध्यात्मिक दर्शन तर्कप्रधान बनने लगे। कोई आगे तो कोई पीछे पर सभी दर्शनों में तर्क और न्गय का बोलबाला शुरू हुआ । प्राचीन समय में जो आन्वीक्षिकी एक सर्वसाधारण खास विद्या थी उसका आधार लेकर . धीरे धीरे सभी सम्प्रदायों ने अपने दर्शन के अनुकूल आन्वीक्षिकी की रचना की। मूल आन्वीक्षिकी विद्या वैशेषिक दर्शन के साथ घुल मिल गई पर उसके आधार से कभी बौद्ध-परम्परा ने तो कभी मीमांसकों ने, कभी सांख्य ने तो कभी . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनों ने, कभी अद्वैत वेदान्त ने तो कभी अन्य वेदान्त परम्पराओं ने अपनी स्वतन्त्रः आन्वीक्षिकी की रचना शुरू कर दी। इस तरह इस देश में प्रत्येक प्रधान दर्शन के साथ एक या दूसरे रूप में तर्कविद्या का सम्बन्ध अनिवार्य हो गया । ___ जब प्राचीन आन्वीक्षिकी का विशेष बल देखा तब बौद्धों ने संभवतः सर्व प्रथम अलग स्वानुकल श्रान्वीक्षिकी का खाका तैयार करना शुरू किया। संभवतः फिर मीमांसक ऐसा करने लगे । जैन सम्प्रदाय अपनी मूल प्रकृति के अनुसार अधिकतर संयम, त्याग, तपस्या आदि पर विशेष भार देता आ रहा था; पर आसपास के वातावरण ने उसे भी तकविद्या की और झुकाया | जहाँ तक हम जान पाये हैं, उससे मालूम पड़ता है कि विक्रम की ५ वीं शताब्दी तक जैन दर्शन का खास मुकाय स्वतंत्र तर्क विद्या की ओर न था। उसमें जैसे जैसे संस्कृत भाषा का अध्ययन प्रबल होता गया वैसे वैसे तर्क विद्या का आकर्षण भी बढ़ता गया। पांचवीं शताब्दी के पहले के जैन वाङ्मय और इसके बाद के जैन वाङ्मय में हम स्पष्ट भेद देखते हैं। अब देखना यह है कि जैन वाङ्मय के इस परिवर्तन का आदि सूत्रधार कौन है ? और उसका स्थान भारतीय विद्वानों में कैसा है ? आदि जैन तार्किक-- ___जहाँ तक मैं जानता हूँ, जैन परम्परा में लर्क विद्या का और तर्क प्रधान संस्कृत वाङ्मय का आदि प्रणेता है सिद्धसेन दिवाकर । मैंने दिवाकर के जीवन और कार्यों के सम्बन्ध में अन्यत्र विस्तृत ऊहापोह किया है; यहाँ तो यथासंभव संक्षेप में उनके व्यक्तित्व का सोदाहरमा परिचय कराना है। सिद्धसेन का सम्बन्ध । उनके जीवनकथानकों के अनुसार उज्जैनी और उसके अधिप विक्रम के साथ अवश्य रहा है, पर वह विक्रम कौन सा यह एक विचारणीय प्रश्न है। अभी तक के निश्चित प्रमाणों से जो सिद्धसेन का समय विक्रम की पाँचवीं और छठी शताब्दी का मध्य जान पड़ता है, उसे देखते हुए अधिक संभव यह है कि उज्जैनी का वह राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय या उसका पौत्र स्कन्दगुप्त होगा। जो कि विक्रमादित्य रूप से प्रसिद्ध रहे । सभी नये पुराने उल्लेख यही कहते है कि सिद्धसेन जन्म से ब्राह्मण थे । यह कयम बिल्कुल सत्य जान पड़ता है, क्योंकि उन्होंने प्राकृत जैन वाङ्मयको १ देखिए गुजरात विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित सन्मति का गुजराती भाषान्तर, माग ६, तथा उसका इंग्लिश भाषान्तर, श्वेताम्बर जैन कोन्फन्स, पायधुनी, योग्वे, द्वारा प्रकाशित । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ संस्कृत में रूपान्तरित करने का जो विचार निर्भयता से सर्व प्रथम प्रकट किया वह ब्राह्मण-सुलभ शक्ति और रुचि का ही द्योतक है। उन्होंने उस युग में जैन दर्शन तथा दूसरे दर्शनों को लक्ष्य करके जो अत्यन्त चमत्कारपूर्ण संस्कृत पद्यबद्ध कृतियों की देन दी है वह भी जन्मसिद्ध ब्राह्मणत्व की ही द्योतक है । उनकी जो कुछ थोड़ी बहुत कृतियाँ प्राप्य हैं उनका एक एक पद और वाक्य उनकी कवित्व विषयक, तर्क विषयक, और समग्र भारतीय दर्शन विषयक - तलस्पर्शी प्रतिभा को व्यक्त करता है । आदि जैन कवि एवं आदि जैन स्तुतिकार हम जब उनका कवित्व देखते हैं तब अश्वघोष, कालिदास आदि याद श्राते हैं । ब्राह्मण धर्म में प्रतिष्टित श्राश्रम व्यवस्था के अनुगामी कालिदास ने लग्नभावना का श्रौचित्य बतलाने के लिए लग्नकालीन नगर प्रवेश का प्रसंग लेकर उस प्रसंग से हर्षोत्सुक स्त्रियों के अवलोकन कौतुक का जो मार्मिक शब्दचित्र खींचा है वैसा चित्र अश्वघोष के काव्य में और सिद्धसेन की स्तुति में भी है । अन्तर केवल इतना ही है कि अश्वघोष और सिद्धसेन दोनों श्रमणधर्म में, प्रतिष्ठित एकमात्र त्यागाश्रम के अनुगामी हैं इसलिए उनका वह चित्र वैराग्य और गृहत्याग के साथ मेल खाए ऐसा है । श्रत: उसमें बुद्ध और महावीर के - गृहत्याग से खिन्न और उदास स्त्रियों की शोकजनित चेष्टाओं का वर्णन है नही कि हर्षोत्सुक स्त्रियों की चेष्टात्रों का तुलना के लिए नीचे के पद्यों को देखिएपूर्वशोकोपतनक्लमानि नेत्रोदकक्लिन्नविशेषकाणि । विविक्त शोभान्यबलाननानि विलापदाक्षिण्यपरायणानि ॥ मुग्धोन्मुखाक्षाण्युपदिष्टवाक्य संदिग्वजल्पानि पुरःसराणि । बालानि मार्गाचरण क्रियाणि प्रलंत्रवस्त्रान्त विकर्षणानि || अकृत्रिमस्नेहमय प्रदीर्घदीने क्षणाः साश्रुमुखाश्च पौराः । संसारसात्म्यज्ञजनैकबन्धो न भावशुद्धं जगृहुर्मनस्ते || -- सिद्ध० ५ - १०, ११, १२ । प्रतिप्रहृदय शोकमूर्च्छिताः कुमारसंदर्शन लोललोचनाः । -गृहाद्विनिश्चक्रमुराशया स्त्रियः शरत्पयोदशादव विद्युतश्वलाः ॥ विलम्बकेश्यो मलिनांशुकाम्बश निरञ्जनैर्वापहतेक्षणैर्मुखैः । स्त्रियो न रेजुर्मृजया विनाकृता दिवीव तारा रजनीक्षयारुणाः ॥ अरक्तताम्रैश्चरणैरनू पुरैरकुण्डले रार्जवकन्धरं मुखैः । स्वभावपीनैर्जघनेर मेखलैरहारयोक्त्रैर्मुषितैरिव स्तनैः ॥ -- अश्व० बुद्ध० सर्ग ८ - २०, २१, २२ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ तस्मिन् मुहूर्ते पुरसुन्दरीणामीशान संदर्शनलालसानाम् । प्रासादमालासु बभूवुरित्थं त्यक्तान्यकार्याणि विचेष्टितानि ॥ ५६ ॥ विलोचनं दक्षिणमञ्जनेन संभाव्य तद्वश्चितवामनेत्रा | तथैव वातायनसंनिकर्षं ययौ शलाकामपरा वहन्ती ॥ ५६ ॥ तासां मुखैरासवगन्धगर्भे यसान्तराः सान्द्र कुतूहलानाम् । विलोलनेत्र भ्रमरैर्गवाक्षाः सहस्रपात्राभरणा इवासन् ॥ ६२ ॥ ( कालि० कुमार० सर्ग ७ . ) सिद्धसेन ने गद्य में कुछ लिखा हो तो पता नहीं है। उन्होंने संस्कृत में बत्तीस बत्तीसियों रची थीं, जिनमें से इक्कीस अभी लभ्य हैं। उनका प्राकृत में रचा 'सम्मति प्रकरण' जैनदृष्टि और जैन मन्तव्यों को तर्क शैली से स्पष्ट करने तथा स्थापित करनेवाला जैन वाङ्मय में सर्व प्रथम ग्रन्थ है। जिसका श्राश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर दिगम्बर विद्वानों ने लिया है। संस्कृत बत्तीसियों में शुरू की पांच और ग्यारहवीं स्तुतिरूप हैं। प्रथम की पाँच में महावीर की स्तुति है जब कि ग्याहरवीं में किसी पराक्रमी और विजेता राजा की स्तुति है । ये स्तुतियाँ अश्ववोत्र समकालीन बौद्ध स्तुतिकार मातृचैट के 'अध्यर्धशतक, ' ' चतुःशतक' तथा पश्चाद्वर्ती श्रार्यदेव के चतुःशतक की शैली की याद दिलाती हैं। सिद्धसेन ही जैन परम्परा का श्राद्य संस्कृत स्तुतिकार है । आचार्य हेमचन्द्र ने जो कहा है 'क सिद्धसेनस्तुतयो महार्थां अशिक्षितालापकला व चैषा' वह बिलकुल सही है । स्वामी समन्तभद्र का 'स्वयंभूस्तोत्र' जो एक हृदयहारिणी स्तुति है और 'युक्त्यनुशासन' नामक दो दार्शनिक स्तुतियाँ ये सिद्धसेन की कृतियों का अनुकरण जान पड़ती हैं। हेमचन्द्र ने भी उन दोनों का अपनी दो बत्तीसियों के द्वारा अनुकरण किया है । I बारहवीं सदी के प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में उदाहरणरूप में लिखा है कि 'अनुसिद्धसेनं कवयः' । इसका भाव यदि यह हो कि जैन परम्परा के संस्कृत कवियों में सिद्धसेन का स्थान सर्व प्रथम है ( समय की दृष्टि से और गुणवत्ता की दृष्टि से अन्य सभी जैन कवियों का स्थान सिद्धसेन के बाद आता है ) तो वह कथन आज तक के जैनवाङ्मय की दृष्टि से अक्षरशः सत्य है । उनकी स्तुति और कविता के कुछ नमूने देखिये - स्वयंभुवं भूतसहस्रनेत्रमनेकमेकावर भाव लिङ्गम् । अभ्यक्तमव्याहत विश्वलोकमनादिमध्यान्तम पुण्यपापम् ॥ समन्तमर्वाक्षगुणं निरक्षं स्वयंप्रभं सर्वगतावभासम् । अतीत संख्यानमनंत कल्पमचि त्यमाहात्म्यमलोक लोकम् ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुहेतुतकपरतप्रपञ्चसद्भावशुद्धा प्रतिवादवादम् । प्रणम्य सच्छासनवर्धमानं स्तोष्ये यतीन्द्रं जिनवर्धमानम् ॥ स्तुति का यह प्रारम्भ उपनिषद् की भाषा और परिभाषा में विरोधालङ्कारगर्भित है । एकान्तनिर्गुणमवान्तमुपेत्य सन्तो यत्नार्जितानपि गुणान् जहति क्षणेन । क्लो बादरस्त्वयि पुनर्व्यसनोल्बणानि भुंक्ते चिरं गुणफलानि हितापनष्टः || इसमें सांख्य परिभाषा के द्वारा विरोधाभास गर्भित स्तुति है । कचिन्नियति पक्षपातगुरु गम्यते ते वचः, स्वभावनियताः प्रजाः समयतंत्रवृत्ताः कचित् । स्वयं कृतभुजः क्वचित् परकृतोपभोगाः पुन नवा विषदवाददोषमलिनोऽस्यहो विस्मयः ॥ ૩ इसमें श्वेताश्वर उपनिषद् के भिन्न भिन्न कारणवाद के समन्वय द्वारा वीर के लोकोत्तरत्वका सूचन है । कुलिशेन सहस्रलोचनः सविता चांशुसहस्रलोचनः । न विदारयितुं यदीश्वरो जगतस्तद्भवता हतं तमः ॥ इसमें इन्द्र और सूर्य से उत्कृष्टत्व दिखाकर वीर के लोकोत्तरत्व का व्यंजन किया है । न सदःसु वदन्न शिक्षितो लभते वक्त विशेषगौरवम् । अनुपास्य गुरुं त्वया पुनर्जगदाचार्यकमेव निर्जितम् ॥ इसमें व्यतिरेक के द्वारा स्तुति की है कि हे भगवन् ! श्रपने गुरुसेवा के बिना किये भी जगत का आचार्य पद पाया है जो दूसरों के लिए संभव नहीं । उधाविव सर्व सिन्धवः समुदीर्णास्त्वियि सर्वदृष्टयः । न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः || इसमें सरिता और समुद्र की उपमा के द्वारा भगवान् में सब दृष्टियों के अस्तित्व का कथन है जो अनेकान्तवाद की जड़ है । गतिमानथ चाक्रियः पुमान् कुरुते कर्म फलैर्न युज्यते । फलभुक् च न चार्जनक्षमो विदितो यैर्विदितोऽसि तैर्मुने ॥ इसमें विभावना, विशेषोक्ति के द्वारा ग्रात्म-विषयक जैन मन्तव्य प्रकट किया है । किसी पराक्रमी और विजेता नृपति के गुणों की समग्र स्तुति लोकोत्तर पूर्ण है । एक ही उदाहरण देखिए Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ एकां दिशं व्रजति यद्गतिमद्गतं च तत्रस्थमेव च विभाति दिगन्तरेषु । यातं कथं दशदिगन्तविभक्तमूर्ति युज्येत वक्तुमुत वा न गतं यशस्ते || श्रद्यं जैन वादी दिवाकर श्राद्य जैन वादी हैं । वे वादविद्या के संपूर्ण विशारद जान पड़ते हैं, क्यों कि एक तरफ से उन्होंने सातवीं वादोपनिषद् बत्तीसी में वादकालीन सब नियमोपनियमों का वर्णन करके कैसे बिजय पाना यह बतलाया है तो दूसरी तरफ से आठवीं बत्तीसी में वाद का पुरा परिहास भी किया है । दिवाकर आध्यात्मिक पथ के त्यागी पथिक थे और वाद कथा के भी रसिक थे । इसलिए उन्हें अपने अनुभव से जो श्राध्यात्मिकता और वाद-विवाद में संगति दिख पड़ी उसका मार्मिक चित्रण खींचा है । वे एक मांस- पिण्ड में लुब्ध और लड़नेवाले दो कुत्तों में तो कभी मैत्री की संभावना कहते हैं; पर दो सहोदर भी वादियों में कभी सख्य का संभव नहीं देखते। इस भाव का उनका चमत्कारी उद्गार देखिए - ग्रामान्तरोपगतयोरेकामिषसँगजातमत्सरयोः । स्यात् सख्यमपि शुनोर्भ्रात्रोरपि वादिनोर्न स्यात् ॥ ८१. वेष्ट कहते हैं कि कल्याण का मार्ग अन्य है और वादीका मार्ग अन्य ; क्यों कि किसी मुनि ने वाग्युद्ध को शिव का उपाय नहीं कहा है -- श्रन्यत एव श्रेयांस्यन्यत एव विचरन्ति वादिवृषाः । वाक्संरंभं क्वचिदपि न जगाद मुनिः शिवोपायम् ॥ अथ जैन दार्शनिक व अद्य सर्वदर्शनसंग्राहक : दिवाकर श्रद्य जैन दार्शनिक तो है ही, पर साथ ही वे श्राद्य सर्व भारतीय दर्शनों के संग्राहक भी हैं । सिद्धसेन के पहले किसी भी अन्य भारतीय. विद्वान् ने संक्षेप में सभी भारतीय दर्शनों का वास्तविक निरूपण यदि किया हो तो उसका पता अभीतक इतिहास को नहीं है। एक बार सिद्धसेन के द्वारा सब दर्शनों के वर्णन की प्रथा प्रारम्भ हुई कि फिर आगे उसका अनुकरण किया जाने लगा । आाठवीं सदी के हरिभद्र ने 'षड्दर्शनसमुच्चय' लिखा, चौदहवीं सदी के माधवाचार्य ने 'सर्वदर्शनसंग्रह' लिखा; जो सिद्धसेन के द्वारा प्रारम्भ की प्रथा का विकास है । जान पड़ता है सिद्धसेन ने चार्वाक, मीमांसक आदि प्रत्येक दर्शन का वर्णन किया होगा, परन्तु अभी जो बत्तीसियां लभ्य हैं उनमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध, श्राजीवक और जैन दर्शन की निरूपक बत्तीसियां ही हैं। जैन दर्शन का निरूपण तो एकाधिक बत्तीसियों में हुआ है । पर किसी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी जैन जैनेतर विद्वान् को आश्चर्य चकित करने वाली सिक्सेन की प्रतिभा को स्पष्ट दर्शन तब होता है जब हम उनकी पुरातनत्व समालोचना विषयक और वेदान्त विषयक दो बत्तीसियों को पढ़ते हैं। यदि स्थान होता तो उन दोनों ही बसीसियों को में यहाँ पूर्ण रूपेगा देता। मैं नहीं जानता कि भारत में ऐसा कोई विद्वान हुआ हो जिसने पुरातनत्व और नवीनत्व की इतनी क्रान्तिकारिणी तथा हृदयहारिणी एवं तलस्पर्शिनी निर्भय समालोचना की हो। मैं ऐसे विद्वान् को भी नहीं जानता कि जिस अकेले ने एक बत्तीसी में प्राचीन सब उपनिषदों तथा गीता का सार चैदिक और औपनिषद भाषा में ही शाब्दिक और आर्थिक अलङ्कार युक्त चमत्कारकारिणी सरणी से वर्णित किया हो। जैन परम्परा में तो सिद्धसेन के पहले और पीछे आज तक ऐसा कोई विद्वान् हुश्रा ही नहीं है जो इतना गहरा उपनिषदों का अभ्यासी रहा हो और औपनिषद भाषा में ही औपनिषद तत्त्व का वर्णन भी कर सके। पर जिस परम्परा में सदा एक मात्र उपनिषदों की तथा गीता की प्रतिष्ठा है उस वेदान्त परम्परा के विद्वान् . भी यदि सिद्धसेना की उक बत्तीसी को देखेंगे तब उनकी प्रतिभा के कायल होकर यही कह उठेगे कि अाज तक यह ग्रन्यरत्न दृष्टिपथ में आने से क्यों रह गया । मेरा विश्वास है कि प्रस्तुत बत्तीसी की ओर किसी भी तीक्ष्ण-प्रज्ञ वैदिक विद्वान् का ध्यान जाता तो वह उस पर कुछ न कुछ बिना लिखे न... रहता । मेरा यह भी विश्वास है कि यदि कोई मूल उपनिषदों का साम्नाय अध्येता जैन विद्वान् होता तो भी उस पर कुछ न कुछ लिखता । जो कुछ हो, मैं तो यहाँ सिद्धसेन की प्रतिभा के निदर्शक रूप से प्रथम के कुछ पद्म भाव . सहित देता हूँ। कभी कभी सम्प्रदायाभिनिवेश वश अपढ़ व्यक्ति भी, आजही की तरह उस समय भी विद्वानों के सम्मुख नर्चा करने की धृष्टता करते होंगे। इस स्थिति का मजाक करते हुए सिद्धसेन कहते हैं कि बिना ही पढ़े पण्डितमन्य व्यक्ति विद्वानों के सामने बोलने की इच्छा करता है फिर भी उसी क्षण वह नहीं फट पड़ता तो प्रश्न होता है कि क्या कोई देवताएँ दुनियाँ पर शासन करने वाली हैं भी सही ? अर्थात् यदि कोई न्यायकारी देव होता तो ऐसे व्यक्तिको तत्क्षण ही सीधा क्यों नहीं करता यदशिक्षितपरिडतो. जनो विदुषामिच्छति वक्तुमग्रतः । न च तत्क्षणमेव शीर्यते जगतः किं प्रभवन्ति देवताः ।। (६. १) विरोधी बढ़ जाने के भय से सच्ची बात भी कहने में बहुत समालोचक, हिचकिचाते हैं । इस भीर मनोदशा का जवाब देते हुए दिवाकर कहते हैं कि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराने पुरुषों ने जो व्यवस्था स्थिर की है क्या वह सोचने पर वैसी ही सिद्ध होगी ? अर्थात् सोचने पर उसमें भी त्रुटि दिखेगी तब केवल उन मृत पुरुखों की जमी प्रतिष्ठा के कारण हाँ में हाँ मिलाने के लिए मेरा जन्म नहीं हुआ है । यदि विद्वेषी बढ़ते हों तो बढ़े - पुरातनैर्या नियता व्यवस्थितिस्तत्रैव सा किं परिचिन्त्यसेत्स्यति । तथेति वक्तु मृतरूढगौरवादहन्न जातः प्रथयन्तु विद्विषः ।। ( ६.३ ) हमेशा पुरातन प्रेमी, परस्पर विरुद्ध श्रनेक व्यवहारों को देखते हुए भी अपने इष्ट किसी एक को यथार्थ और बाकी को यथार्थ करार देते हैं। इस दशा से ऊब कर दिवाकर कहते हैं कि सिद्धान्त और व्यवहार अनेक प्रकार के हैं, वे परस्पर विरुद्ध भी देखे जाते हैं । फिर उनमें से किसी एक की सिद्धि का निर्णय जल्दी कैसे हो सकता है ? तथापि यही मर्यादा है दूसरी नहीं - ऐसा एक तरफ निर्णय कर लेना यह तो पुरातन प्रेम से जड़ बने हुए व्यक्ति को ही शोभा देता है, मुझ जैसे को नहीं बहुप्रकाराः स्थितयः परस्परं विरोधयुक्ताः कथमाशु निश्चयः । विशेषसिद्धावियमेव नेति वा पुरातनप्रेमजलस्य युज्यते । ( ६.४ ) जब कोई नई चीज श्रई तो चट से सनातन संस्कारी कह देते हैं कि, यह तो पुराना नहीं है । इसी तरह किसी पुरातन बात की कोई योग्य समीक्षा करे तब भी वे कह देते हैं कि यह तो बहुत पुराना है, इसकी टीका न कीजिए । इस श्रविवेकी मानस को देख कर मालविकाग्निमित्र में कालिदास को कहना पड़ता है कि पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् । सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ॥ ठीक इसी तरह दिवाकर ने भी भाष्यरूप से कहा है कि यह जीवित वर्तमान व्यक्ति भी मरने पर आगे की पिढ़ो की दृष्टि से पुराना होगा; तत्र वह भी पुरातनों की ही गिनती में श्रा जायगा । जब इस तरह पुरातनता अनवस्थित है अर्थात् नवीन भी कभी पुरातन है और पुराने भी कभी नवीन रहे; तब फिर अमुक वचन पुरातन कथित है ऐसा मान कर परीक्षा बिना किए उस पर कौन विश्वास करेगा ? जनोऽयमन्यस्य मृतः पुरातनः पुरातनैरेव समो भविष्यति । पुरातनेष्वित्यनवस्थितेषु कः पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोचयेत् || (६.५ ) पुरातन प्रेम के कारण परीक्षा करने में आलसी बन कर कई लोग ज्यों ज्यों सम्यग् निश्चय कर नहीं पाते हैं त्यों त्यों वे उलटे मानों सम्यग् निश्चय कर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिया हो इतने प्रसन्न होते हैं और कहते हैं कि पुराने गुरु जन मिथ्याभाषी थोडे हो सकते हैं ? मैं खुद मन्दमति हूँ उनका आशय नहीं समझता तो क्या हुआ ? ऐसा सोचने वालों को लक्ष्य में रख कर दिवाकर कहते हैं कि वैसे लोग आत्मनाश की ओर ही दौड़ते हैं ― २७७ विनिश्वयं नैति यथा यथालसस्तथा तथा निश्चितवत्प्रसीदति । अवन्ध्यवाक्या गुरवोऽहमल्पधीरिति व्यवस्यन् स्ववधाय धावति ॥ शास्त्र और पुराणों में दैवी चमत्कारों और सम्बद्ध घटनाओं को देख कर जब कोई उनकी समीक्षा करता है तब अन्धश्रद्धालु कह देते हैं, कि भाई ! हम ठहरे मनुष्य, और शास्त्र तो देव रचित हैं; फिर उनमें हमारी गति ही क्या ? इस सर्व सम्प्रदाय - साधारण अनुभव को लक्ष्य में रख कर दिवाकर कहते हैं, कि हम जैसे मनुष्यरूपधारियों ने ही मनुष्यों के ही चरित, मनुष्य अधिकारी के ही निमित्त ग्रथित किये हैं । वे परीक्षा में असमर्थ पुरुषों के लिए अपार और गहन भले ही हों पर कोई हृदयवान् विद्वान् उन्हें अगाध मान कर कैसे मान लेगा ? वह तो परीक्षापूर्वक ही उनका स्वीकार अस्वीकार करेगा मनुष्यवृत्तानि मनुष्यलचणैर्मनुष्य हेतोर्नियतानि तैः स्वयम् । अलब्धवाराण्यलसेषु कर्णवानगावपाराणि कथं ग्रहीष्यति ।। ( ६. ७) हम सभी का यह अनुभव है कि कोई सुसंगत अद्यतन मानवकृति हुई तो उसे पुराणप्रेमी नहीं छुते जब कि वे किसी अस्त-व्यस्त और संबद्ध तथा समझ में न आ सके ऐसे विचारवाले शास्त्र के प्राचीनों के द्वारा कहे जाने के कारण प्रशंसा करते नहीं अघाते । इस अनुभव के लिए दिवाकर इतना ही कहते हैं कि वह मात्र स्मृतिमोह है, उसमें कोई विवेकपटुता नहीं यदेव किंचिद्विषमप्रकल्पितं पुरातनैरुक्तमिति प्रशस्यते । विनिश्चिताऽप्यद्य मनुष्यवाक्कृतिर्न पठ्यते यत्स्मृतिमोह एव सः ॥ ( ६-) हम अंत में इस परीक्षा-प्रधान बत्तीसीका एक ही पद्य भावसहित देते हैंन गौरवाक्रान्तमतिर्विगाहते किमत्र युक्तं किमयुक्तमर्थतः ! गुणप्रभवं हि गौरवं कुलांगनावृत्तमतोऽन्यथा भवेत् ।। (६-२८) भाव यह है कि लोग किसी न किसी प्रकार के बड़प्पन के श्रावेश से, प्रस्तुत में क्या युक्त है और क्या प्रयुक्त है, इसे तत्त्वतः नहीं देखते । परन्तु सत्य बात - तो यह है कि बड़प्पन गुणदृष्टि में ही है। इसके सिवाय का बड़प्पन निरा कुलांगना का चरित है । कोई अङ्गना मात्र ने खानदान के नाम पर सत्त सिद्ध नहीं हो सकती । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त में यहां मैं सारी उस वेदान्त विषयक द्वात्रिंशिका को मूल मात्र दिए देता हूँ। यद्यपि इसका अर्थ द्वैतसांख्य और वेदान्त उभय दृष्टि से होता है तथापि इसकी खूबी मुके यह भी जान पड़ती है कि उसमें औपनिषद भाषा । जैन तत्वज्ञान भी अबाधित रूप से कहा गया है। शब्दों का सेतु पार करके यदि कोई सूक्ष्मप्रज्ञ अर्थ गाम्भीर्य का स्पर्श करेगा तो इसमें से बौद्ध दर्शन का भाव भी पकड़ सकेगा। अतएव इसके अर्थ का विचार मैं स्थान संकोच के कारण पाठकों के ऊपर ही छोड़ देता हूँ। प्राच्य उपनिषदों के तथा गीता के विचारों और वाक्यों के साथ इसको तुलना करने की मेरी इच्छा है, पर इसके खिए अन्य स्थान उपयुक्त होगा। अजः पतंगः शबलो विश्वमयो धत्ते गर्भमचरं चरं च । योऽस्याध्यक्षमकलं सर्वधान्यं वेदातीतं वेद वेद्यं स वेद ॥ १ ॥ स एवैतद्विश्वमधितिष्ठत्येकस्तमेवेनं विश्वमधितिष्ठत्येकम् । स एवैतद्वेद यदिहास्ति वेद्यं तमेवैतद्वद यदिहास्ति वेद्यम् ।। २ ।। स एवैतदभवनं सूजति विश्वरूपस्तमेवैतत्सृजति भुवनं विश्वरूपम् । न चैवैनं सृजति कश्चिन्नित्यजातं न चासौ सृजति भुवनं नित्यजातम् ।। एकायनशतात्मानमेकं विश्वात्मानममृतं जायमानम् । । यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति यस्तं च वेद किमृचा करिष्यति ।।४।। सर्वद्वारा निभृत(ता) मृत्युपाशैः स्वयंप्रभानेकसहस्रपर्वा । यस्यां वेदाः शेरते यज्ञगर्भाः सैषा गुहा गूइते सर्वमेतत् ॥५॥ भावोभावो निःसतत्वो [ सतत्वो ] नारंजनो [ रंजनो] यः प्रकारः । गुणात्मको निगुणो निष्प्रभावो विश्वेश्वरः सर्वमयो न सर्वः ॥ ६ ॥ सृष्ट्वा सृष्ट्वा स्वयमेवोपभुंक्त सर्वश्चायं भूतसर्गो यतश्च । न चास्यान्यत्कारणं सर्गसिद्धौ न चारपान सृजते नापि चान्यान् ॥ ७ ॥ निरिन्द्रियचक्षुषा वेत्ति शब्दान् श्रोत्रेण रूपं जिघ्रति जिह्वया च । पादैर्ब्रवीति शिरसा याति तिष्ठन् सर्वेण सर्व कुरुते मन्यते च ॥८॥ शब्दातीतः कथ्यते वावदूकानातीतो ज्ञायते ज्ञानवद्भिः। बन्धातीतो बध्यते क्लेशपाशैर्मोदातीतो मुच्यते निर्विकल्पः ॥ ६ ॥ नायं ब्रह्मा न कपर्दी न विष्णुब्रह्मा चायं शंकरश्वाच्युतश्च । अस्मिन् मूढाः प्रतिमाः कल्पयन्तो(न्ते) ज्ञानश्चायं न च भूयो नमोऽस्ति ।। आपो वह्निर्मातरिश्वा हुताशः सत्यं मिथ्या वसुधा मेघयानम् । बहा कीट: शंकरस्ताक्ष(न्य)केतुः सर्वा सर्वथा सर्वतोऽयम् ॥११॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ২৩& स एवायं निभृता येन सत्त्वाः शश्वदुःखा दुःखमेवापियन्ति । स एवायमृषयो यं विदित्वा व्यतीत्य नाकममृतं स्वादयन्ति ॥१२॥ विद्याविद्ये यत्र नो संभवते यनासन्नं नो दवीयो न गम्यम् । यस्मिन्मृत्युर्नेहते नो तु कामा(कामः) स सोऽक्षरः परमं ब्रह्म वेद्यम् ॥१३।। श्रोतप्रोताः पशवो यन सबै श्रोतप्रोत: पशुभिश्चैष सर्वैः । सर्वे चेमे पशवस्तस्य होम्यं तेषां चायमीश्वरः संवरेण्यः ॥१४॥ तस्यैवैता रश्मयः कामधेनोर्याः पाप्मानमदुहानाः क्षरन्ति । येनाध्याता: पंच जनाः स्वपन्ति प्रोबुद्धास्ते स्वं परिवर्तमानाः ।।१५ ।। तमेवाश्वत्थमृषयो वामनन्ति हिरण्मयं व्यस्तसहस्रशीर्षम् । मनःशयं शतशाखप्रशाखं यस्मिन् बीजं विश्वमोतं प्रजानाम् ॥१६॥ स गीयते वीयते चावरेषु मन्त्रान्तरात्मा ऋग्यजुःसामशाखः । अधःशयो विततांगो गहाध्यक्षः स विश्वयोनिः पुरुषो नैकवर्णः ॥१७॥ तेनैवैतद्विततं ब्रह्मजालं दुराचरं दृष्टयुपसर्गपाशम् । अस्मिन्मग्ना मानवा मानशल्यैर्विवेष्यन्ते पशवो जायमानाः ॥१८॥ अयमेवान्तश्चरति देवतानामस्मिन् देवा अधिविश्व निषेदुः । अयमुद्दण्डः प्राणभुक् प्रेतयानरेष त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति ॥१६॥ अपां गर्भः सविता वह्निरेष हिरण्मयश्चान्तरात्मा देवयानः। एतेन स्तंभिता सुभगा द्यौर्नभश्च गुरू चोर्वी सप्त च भीमयादसः ॥२०॥ मनः सोमः सविता चक्षुरस्य घ्राणं प्राणो मुखमस्याज्यपिवः । दिशः श्रोत्रं नाभिरंध्रमब्दयानं पादाविला: सुरसाः सर्वमापः ॥२१॥ विष्णुजिमंभोजगमः शंभुश्चायं कारणं लोकसृष्टौ । नैनं देवा विद्रते नो मनुष्या देवाश्चैनं विदुरितरेतराश्च ।। २२ ।। अस्मिन्नुदेति सविला लोकचक्षरस्मिन्नस्तं गच्छति चांशुगर्भ: एषोऽजस्रं वर्तते कालचक्रमेतेनायं जीवते जीवलोकः ॥२३॥ अस्मिन् प्राणाः प्रतिबद्धाः प्रजानामस्मिन्नस्ता रथनाभाविवाराः । अस्मिन् प्रीते शीर्णमूलाः पतन्ति प्राणाशंसाः फलमिव मुक्तवृन्तम् ॥२४॥ अस्मिन्नेकशतं निहितं मस्तकानामस्मिन् सर्वा भूतयश्चेतयश्च । महान्तमेनं पुरुषं वेद वेद्यं आदित्यवर्ण तमसः परस्तात् ।।२।। विदानशश्चेतनोऽचेतनो वा स्रष्टा निरीहः स ह पुमानात्मतन्त्रः । क्षराकारः सततं चाक्षरात्मा विशीयन्ते वाचो युक्तयोऽस्मिन् ॥२६॥ बुद्धिबोद्धा बोधनीयोऽन्तसत्मा बाह्यश्चायं स परात्मा दुरात्मा । नासावकं नापृथक् नाभि नोभी सर्व चैतत्पशवो यं द्विषन्ति ॥२७॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 सर्वात्मकं सर्वगतं परीतमनादिमध्यान्तमपुण्यपापम् / वालं कुमारमजरं च वृद्धं य एनं विदुरमृतास्ते भवन्ति // 28 // नास्मिन् ज्ञाते ब्रह्मणि ब्रह्मचर्य नेज्या जापः स्वस्तयो नो पवित्रम् / नाहं नान्यो नो महान्नो कनीयानिःसामान्यो जायते निर्विशेषः / / 26 / / नैनं मत्वा शोचते नाभ्युपैति नाप्याशास्ते म्रियते जायते वा। नास्मिल्लोके गृह्यते नो परस्मिल्लोकातीतो वर्तते लोक एव // 30 // पस्मात्परं नापरमस्ति किंचिद् यस्मानाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् / वृक्ष इस स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकरतेनेदं पूर्ण पुरुषेण सर्वम् / / 31 / / नानाकल्पं पश्यतो जीवलोकं नित्यासता व्याधयश्चाधयश्च / यस्मिन्नेवं सर्वतः सर्वतत्त्वं दृष्ट देवे नो पुनस्तापमेति // 32 // ' उपसंहार___ उपसंहार में सिद्धसेन का एक पद्य उद्धृत करता हूँ जिसमें उन्होंने घाष्ठर्थपूर्ण वक्तृत्व या पाण्डित्य का उपहास किया है देवखातं च वदनं श्रात्मायत्तं च वाङ्मयम् / श्रोतारः सन्ति चोक्तस्य निर्लजः को न पण्डितः // सारांश यह है, कि. मुख का गढ़ा तो दैवने ही खोद रखा है, प्रयत्न यह अपने हाथ की बात है और सुननेवाले सर्वत्र सुलभ हैं; इसलिए वक्ता या पण्डित बनने के निमित्त यदि जरूरत है तो केवल निर्लज्जताकी है। एक बार धृष्ट बन कर बोलिए फिर सब कुछ सरल है / ई० 1645) [भारतीय विद्याः 1 इस बत्तीसी का विवेचन श्री पंडित सुखलाल जी ने ही किया है, जो भारतीय विद्याभवन बंबई के द्वारा ई० 1645 में प्रकाशित है। --सं०