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संस्कृत में रूपान्तरित करने का जो विचार निर्भयता से सर्व प्रथम प्रकट किया वह ब्राह्मण-सुलभ शक्ति और रुचि का ही द्योतक है। उन्होंने उस युग में जैन दर्शन तथा दूसरे दर्शनों को लक्ष्य करके जो अत्यन्त चमत्कारपूर्ण संस्कृत पद्यबद्ध कृतियों की देन दी है वह भी जन्मसिद्ध ब्राह्मणत्व की ही द्योतक है । उनकी जो कुछ थोड़ी बहुत कृतियाँ प्राप्य हैं उनका एक एक पद और वाक्य उनकी कवित्व विषयक, तर्क विषयक, और समग्र भारतीय दर्शन विषयक - तलस्पर्शी प्रतिभा को व्यक्त करता है ।
आदि जैन कवि एवं आदि जैन स्तुतिकार
हम जब उनका कवित्व देखते हैं तब अश्वघोष, कालिदास आदि याद श्राते हैं । ब्राह्मण धर्म में प्रतिष्टित श्राश्रम व्यवस्था के अनुगामी कालिदास ने लग्नभावना का श्रौचित्य बतलाने के लिए लग्नकालीन नगर प्रवेश का प्रसंग लेकर उस प्रसंग से हर्षोत्सुक स्त्रियों के अवलोकन कौतुक का जो मार्मिक शब्दचित्र खींचा है वैसा चित्र अश्वघोष के काव्य में और सिद्धसेन की स्तुति में भी है । अन्तर केवल इतना ही है कि अश्वघोष और सिद्धसेन दोनों श्रमणधर्म में, प्रतिष्ठित एकमात्र त्यागाश्रम के अनुगामी हैं इसलिए उनका वह चित्र वैराग्य और गृहत्याग के साथ मेल खाए ऐसा है । श्रत: उसमें बुद्ध और महावीर के - गृहत्याग से खिन्न और उदास स्त्रियों की शोकजनित चेष्टाओं का वर्णन है नही कि हर्षोत्सुक स्त्रियों की चेष्टात्रों का तुलना के लिए नीचे के पद्यों को देखिएपूर्वशोकोपतनक्लमानि नेत्रोदकक्लिन्नविशेषकाणि । विविक्त शोभान्यबलाननानि विलापदाक्षिण्यपरायणानि ॥ मुग्धोन्मुखाक्षाण्युपदिष्टवाक्य संदिग्वजल्पानि पुरःसराणि । बालानि मार्गाचरण क्रियाणि प्रलंत्रवस्त्रान्त विकर्षणानि || अकृत्रिमस्नेहमय प्रदीर्घदीने क्षणाः साश्रुमुखाश्च पौराः । संसारसात्म्यज्ञजनैकबन्धो न भावशुद्धं जगृहुर्मनस्ते ||
-- सिद्ध० ५ - १०, ११, १२ । प्रतिप्रहृदय शोकमूर्च्छिताः कुमारसंदर्शन लोललोचनाः । -गृहाद्विनिश्चक्रमुराशया स्त्रियः शरत्पयोदशादव विद्युतश्वलाः ॥ विलम्बकेश्यो मलिनांशुकाम्बश निरञ्जनैर्वापहतेक्षणैर्मुखैः । स्त्रियो न रेजुर्मृजया विनाकृता दिवीव तारा रजनीक्षयारुणाः ॥ अरक्तताम्रैश्चरणैरनू पुरैरकुण्डले रार्जवकन्धरं मुखैः । स्वभावपीनैर्जघनेर मेखलैरहारयोक्त्रैर्मुषितैरिव स्तनैः ॥
-- अश्व० बुद्ध० सर्ग ८ - २०, २१, २२
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