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________________ भी जैन जैनेतर विद्वान् को आश्चर्य चकित करने वाली सिक्सेन की प्रतिभा को स्पष्ट दर्शन तब होता है जब हम उनकी पुरातनत्व समालोचना विषयक और वेदान्त विषयक दो बत्तीसियों को पढ़ते हैं। यदि स्थान होता तो उन दोनों ही बसीसियों को में यहाँ पूर्ण रूपेगा देता। मैं नहीं जानता कि भारत में ऐसा कोई विद्वान हुआ हो जिसने पुरातनत्व और नवीनत्व की इतनी क्रान्तिकारिणी तथा हृदयहारिणी एवं तलस्पर्शिनी निर्भय समालोचना की हो। मैं ऐसे विद्वान् को भी नहीं जानता कि जिस अकेले ने एक बत्तीसी में प्राचीन सब उपनिषदों तथा गीता का सार चैदिक और औपनिषद भाषा में ही शाब्दिक और आर्थिक अलङ्कार युक्त चमत्कारकारिणी सरणी से वर्णित किया हो। जैन परम्परा में तो सिद्धसेन के पहले और पीछे आज तक ऐसा कोई विद्वान् हुश्रा ही नहीं है जो इतना गहरा उपनिषदों का अभ्यासी रहा हो और औपनिषद भाषा में ही औपनिषद तत्त्व का वर्णन भी कर सके। पर जिस परम्परा में सदा एक मात्र उपनिषदों की तथा गीता की प्रतिष्ठा है उस वेदान्त परम्परा के विद्वान् . भी यदि सिद्धसेना की उक बत्तीसी को देखेंगे तब उनकी प्रतिभा के कायल होकर यही कह उठेगे कि अाज तक यह ग्रन्यरत्न दृष्टिपथ में आने से क्यों रह गया । मेरा विश्वास है कि प्रस्तुत बत्तीसी की ओर किसी भी तीक्ष्ण-प्रज्ञ वैदिक विद्वान् का ध्यान जाता तो वह उस पर कुछ न कुछ बिना लिखे न... रहता । मेरा यह भी विश्वास है कि यदि कोई मूल उपनिषदों का साम्नाय अध्येता जैन विद्वान् होता तो भी उस पर कुछ न कुछ लिखता । जो कुछ हो, मैं तो यहाँ सिद्धसेन की प्रतिभा के निदर्शक रूप से प्रथम के कुछ पद्म भाव . सहित देता हूँ। कभी कभी सम्प्रदायाभिनिवेश वश अपढ़ व्यक्ति भी, आजही की तरह उस समय भी विद्वानों के सम्मुख नर्चा करने की धृष्टता करते होंगे। इस स्थिति का मजाक करते हुए सिद्धसेन कहते हैं कि बिना ही पढ़े पण्डितमन्य व्यक्ति विद्वानों के सामने बोलने की इच्छा करता है फिर भी उसी क्षण वह नहीं फट पड़ता तो प्रश्न होता है कि क्या कोई देवताएँ दुनियाँ पर शासन करने वाली हैं भी सही ? अर्थात् यदि कोई न्यायकारी देव होता तो ऐसे व्यक्तिको तत्क्षण ही सीधा क्यों नहीं करता यदशिक्षितपरिडतो. जनो विदुषामिच्छति वक्तुमग्रतः । न च तत्क्षणमेव शीर्यते जगतः किं प्रभवन्ति देवताः ।। (६. १) विरोधी बढ़ जाने के भय से सच्ची बात भी कहने में बहुत समालोचक, हिचकिचाते हैं । इस भीर मनोदशा का जवाब देते हुए दिवाकर कहते हैं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229044
Book TitlePratibhamurti Siddhasena Diwakara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size402 KB
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