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________________ 280 सर्वात्मकं सर्वगतं परीतमनादिमध्यान्तमपुण्यपापम् / वालं कुमारमजरं च वृद्धं य एनं विदुरमृतास्ते भवन्ति // 28 // नास्मिन् ज्ञाते ब्रह्मणि ब्रह्मचर्य नेज्या जापः स्वस्तयो नो पवित्रम् / नाहं नान्यो नो महान्नो कनीयानिःसामान्यो जायते निर्विशेषः / / 26 / / नैनं मत्वा शोचते नाभ्युपैति नाप्याशास्ते म्रियते जायते वा। नास्मिल्लोके गृह्यते नो परस्मिल्लोकातीतो वर्तते लोक एव // 30 // पस्मात्परं नापरमस्ति किंचिद् यस्मानाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् / वृक्ष इस स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकरतेनेदं पूर्ण पुरुषेण सर्वम् / / 31 / / नानाकल्पं पश्यतो जीवलोकं नित्यासता व्याधयश्चाधयश्च / यस्मिन्नेवं सर्वतः सर्वतत्त्वं दृष्ट देवे नो पुनस्तापमेति // 32 // ' उपसंहार___ उपसंहार में सिद्धसेन का एक पद्य उद्धृत करता हूँ जिसमें उन्होंने घाष्ठर्थपूर्ण वक्तृत्व या पाण्डित्य का उपहास किया है देवखातं च वदनं श्रात्मायत्तं च वाङ्मयम् / श्रोतारः सन्ति चोक्तस्य निर्लजः को न पण्डितः // सारांश यह है, कि. मुख का गढ़ा तो दैवने ही खोद रखा है, प्रयत्न यह अपने हाथ की बात है और सुननेवाले सर्वत्र सुलभ हैं; इसलिए वक्ता या पण्डित बनने के निमित्त यदि जरूरत है तो केवल निर्लज्जताकी है। एक बार धृष्ट बन कर बोलिए फिर सब कुछ सरल है / ई० 1645) [भारतीय विद्याः 1 इस बत्तीसी का विवेचन श्री पंडित सुखलाल जी ने ही किया है, जो भारतीय विद्याभवन बंबई के द्वारा ई० 1645 में प्रकाशित है। --सं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229044
Book TitlePratibhamurti Siddhasena Diwakara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size402 KB
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