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कुहेतुतकपरतप्रपञ्चसद्भावशुद्धा प्रतिवादवादम् ।
प्रणम्य सच्छासनवर्धमानं स्तोष्ये यतीन्द्रं जिनवर्धमानम् ॥
स्तुति का यह प्रारम्भ उपनिषद् की भाषा और परिभाषा में विरोधालङ्कारगर्भित है ।
एकान्तनिर्गुणमवान्तमुपेत्य सन्तो यत्नार्जितानपि गुणान् जहति क्षणेन । क्लो बादरस्त्वयि पुनर्व्यसनोल्बणानि भुंक्ते चिरं गुणफलानि हितापनष्टः || इसमें सांख्य परिभाषा के द्वारा विरोधाभास गर्भित स्तुति है ।
कचिन्नियति पक्षपातगुरु गम्यते ते वचः,
स्वभावनियताः प्रजाः समयतंत्रवृत्ताः कचित् ।
स्वयं कृतभुजः क्वचित् परकृतोपभोगाः पुन
नवा विषदवाददोषमलिनोऽस्यहो विस्मयः ॥
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इसमें श्वेताश्वर उपनिषद् के भिन्न भिन्न कारणवाद के समन्वय द्वारा वीर के लोकोत्तरत्वका सूचन है ।
कुलिशेन सहस्रलोचनः सविता चांशुसहस्रलोचनः ।
न विदारयितुं यदीश्वरो जगतस्तद्भवता हतं तमः ॥
इसमें इन्द्र और सूर्य से उत्कृष्टत्व दिखाकर वीर के लोकोत्तरत्व का व्यंजन किया है ।
न सदःसु वदन्न शिक्षितो लभते वक्त विशेषगौरवम् । अनुपास्य गुरुं त्वया पुनर्जगदाचार्यकमेव निर्जितम् ॥
इसमें व्यतिरेक के द्वारा स्तुति की है कि हे भगवन् ! श्रपने गुरुसेवा के बिना किये भी जगत का आचार्य पद पाया है जो दूसरों के लिए संभव नहीं । उधाविव सर्व सिन्धवः समुदीर्णास्त्वियि सर्वदृष्टयः ।
न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ||
इसमें सरिता और समुद्र की उपमा के द्वारा भगवान् में सब दृष्टियों के अस्तित्व का कथन है जो अनेकान्तवाद की जड़ है ।
गतिमानथ चाक्रियः पुमान् कुरुते कर्म फलैर्न युज्यते । फलभुक् च न चार्जनक्षमो विदितो यैर्विदितोऽसि तैर्मुने ॥ इसमें विभावना, विशेषोक्ति के द्वारा ग्रात्म-विषयक जैन मन्तव्य प्रकट किया है ।
किसी पराक्रमी और विजेता नृपति के गुणों की समग्र स्तुति लोकोत्तर पूर्ण है । एक ही उदाहरण देखिए
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