Book Title: Pratibhamurti Siddhasena Diwakara Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 9
________________ लिया हो इतने प्रसन्न होते हैं और कहते हैं कि पुराने गुरु जन मिथ्याभाषी थोडे हो सकते हैं ? मैं खुद मन्दमति हूँ उनका आशय नहीं समझता तो क्या हुआ ? ऐसा सोचने वालों को लक्ष्य में रख कर दिवाकर कहते हैं कि वैसे लोग आत्मनाश की ओर ही दौड़ते हैं ― २७७ विनिश्वयं नैति यथा यथालसस्तथा तथा निश्चितवत्प्रसीदति । अवन्ध्यवाक्या गुरवोऽहमल्पधीरिति व्यवस्यन् स्ववधाय धावति ॥ शास्त्र और पुराणों में दैवी चमत्कारों और सम्बद्ध घटनाओं को देख कर जब कोई उनकी समीक्षा करता है तब अन्धश्रद्धालु कह देते हैं, कि भाई ! हम ठहरे मनुष्य, और शास्त्र तो देव रचित हैं; फिर उनमें हमारी गति ही क्या ? इस सर्व सम्प्रदाय - साधारण अनुभव को लक्ष्य में रख कर दिवाकर कहते हैं, कि हम जैसे मनुष्यरूपधारियों ने ही मनुष्यों के ही चरित, मनुष्य अधिकारी के ही निमित्त ग्रथित किये हैं । वे परीक्षा में असमर्थ पुरुषों के लिए अपार और गहन भले ही हों पर कोई हृदयवान् विद्वान् उन्हें अगाध मान कर कैसे मान लेगा ? वह तो परीक्षापूर्वक ही उनका स्वीकार अस्वीकार करेगा मनुष्यवृत्तानि मनुष्यलचणैर्मनुष्य हेतोर्नियतानि तैः स्वयम् । अलब्धवाराण्यलसेषु कर्णवानगावपाराणि कथं ग्रहीष्यति ।। ( ६. ७) हम सभी का यह अनुभव है कि कोई सुसंगत अद्यतन मानवकृति हुई तो उसे पुराणप्रेमी नहीं छुते जब कि वे किसी अस्त-व्यस्त और संबद्ध तथा समझ में न आ सके ऐसे विचारवाले शास्त्र के प्राचीनों के द्वारा कहे जाने के कारण प्रशंसा करते नहीं अघाते । इस अनुभव के लिए दिवाकर इतना ही कहते हैं कि वह मात्र स्मृतिमोह है, उसमें कोई विवेकपटुता नहीं यदेव किंचिद्विषमप्रकल्पितं पुरातनैरुक्तमिति प्रशस्यते । विनिश्चिताऽप्यद्य मनुष्यवाक्कृतिर्न पठ्यते यत्स्मृतिमोह एव सः ॥ ( ६-) हम अंत में इस परीक्षा-प्रधान बत्तीसीका एक ही पद्य भावसहित देते हैंन गौरवाक्रान्तमतिर्विगाहते किमत्र युक्तं किमयुक्तमर्थतः ! गुणप्रभवं हि गौरवं कुलांगनावृत्तमतोऽन्यथा भवेत् ।। (६-२८) भाव यह है कि लोग किसी न किसी प्रकार के बड़प्पन के श्रावेश से, प्रस्तुत में क्या युक्त है और क्या प्रयुक्त है, इसे तत्त्वतः नहीं देखते । परन्तु सत्य बात - तो यह है कि बड़प्पन गुणदृष्टि में ही है। इसके सिवाय का बड़प्पन निरा कुलांगना का चरित है । कोई अङ्गना मात्र ने खानदान के नाम पर सत्त सिद्ध नहीं हो सकती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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