Book Title: Prakrit Swayam Shikshak Author(s): Prem Suman Jain Publisher: Prakrit Bharati Academy View full book textPage 8
________________ में सरल ढंग से प्राकृत भाषा को हृदयंगम कराने का विनम्र प्रयत्न किया गया है। वस्तुतः प्राकृत का पूरा ज्ञान तो उसके साहित्य के अनुशीलन और मनन से ही आ सकता है। प्राकृत स्वयं-शिक्षक खण्ड २ में प्राकृत के वैकल्पिक और आर्ष प्रयोगों का विस्तार से वर्णन होगा। अर्धमागधी, मागधी, शौरसेनी आदि प्रमुख प्राकृतों का यह हिन्दी में प्रामाणिक व्याकरण होगा। इसके अभ्यास से प्राकृत आगम एवं व्याख्या साहित्य का अध्ययन सुगम हो सकेगा। प्राकृत-शिक्षण के प्रयत्न का तीसरा सोपान है-हिन्दी प्राकत व्याकरण। इस व्याकरण में पहली बार प्राकत के प्राचीन व्याकरणों की सामग्री को व्यवस्थित एवं सुबोध शैली में प्रस्तुत किया जा रहा है। इसमें प्राकृत वैयाकरणों के सूत्र भी संदर्भ में दिये जायेंगे एवं प्राकृत के वर्तमान ग्रंथों से उदाहरण एवं प्रयोग आदि देने का प्रयत्न रहेगा। ये दोनों पुस्तकें यथाशीघ्र प्राकृत के जिज्ञासु पाठकों के समक्ष पहुँचाने का प्रयास है। आभार : प्राकृत स्वयं-शिक्षक के इन तीनों खण्डों के स्वरूप एवं रूपरेखा आदि को निखारने में जिन विद्वानों का परामर्श एवं प्रोत्साहन मिला है उनमें प्रमुख हैंआदरणीय डॉ० कमलचंद सोगाणी (उदयपुर), डॉ. जगदीश चंद्र जैन (बम्बई), पं० दलसुख भाई मालवणिया (अहमदाबाद), डॉ० आर. सी. द्विवेदी (जयपुर), डॉ० गोकुलचंद्र जैन (बनारस) एवं डॉ० नेमीचंद जैन (इन्दौर)। इन सबके सहयोग के लिए मैं आभारी हूँ और कृतज्ञ हूँ उन समस्त प्राचीन एवं अर्वाचीन प्राकृत भाषा के लेखकों का, जिनके ग्रंथों के अनुशीलन से. प्राकृत-व्याकरण सम्बन्धी मेरी कई गुत्थियाँ सुलझी हैं तथा पाठ-संकलन में जिनसे मदद मिली है। प्राकृत भाषा के मर्मज्ञ मुनिजनों के आशीष का ही यह फल है कि प्राकृत के पठन-पाठन की दिशा में कुछ प्रयत्न हो पा रहा है। उनके प्राकृत अनुराग को सादर प्रणाम है। :: पुस्तक के प्रकाशन की व्यवस्था आदि में राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान के सकिय सचिव श्री मान् देवेन्द्रराज मेहता, संयुक्त सचिव महोपाध्याय विनयसागर एवं फ्रैण्ड्स प्रिण्टर्स एण्ड स्टेशनर्स जयपुर के प्रबन्धकों का जो सहयोग मिला है उसके लिए मैं इन सब का हृदय से आभारी हूँ। .... अन्त में अपनी धर्मपत्नी श्री मती सरोज जैन के प्रति आभार प्रकट करता हूँ जिनके सहयोग से मुझे अध्ययन–अनुशीलन के लिए पर्याप्त समय प्राप्त हो जाता है। अग्रिम आभार उन जिज्ञासु पाठकों एवं विद्वानों के प्रति भी है जो इस पुस्तक को गहरायी से पढ़कर मुझे अपनी प्रतिक्रिया, सम्मति आदि से अवगत करायेंगे तथा इसके संशोधन-परिवर्द्धन में वे समभागी होंगे। 'समय' २६, सुन्दरवास (उत्तरी) प्रेम सुमन जैन उदयपुर १ अगस्त, १६७६ [vii]Page Navigation
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