Book Title: Prakrit Rupmala
Author(s): Kasturvijay
Publisher: Vadilal Bapulal Shah
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तथा छद्मस्थ जीवोने अनाभोग जन्यस्खलनाओ दुनिवार्य छे. कारणके
अवश्यं भाविनो दोषाः, छद्मस्थत्वानुभावतः । समाधि तन्वते सन्तः, किंनराश्चात्र वक्रगाः॥१॥
तेथी आ ग्रन्थमां पाठकवर्गने जे कांइ योग्य भूल जणाय,तेने महाशयो सुधारी वांचशे- अने कृपा करी जणाववा तस्दी लेशे के जेथी बीजी आवृत्तिमा सुधारो थाय.
निवेदक:वीर संवतः । श्रीगुरुनेमिसूरीश्वर चरणकिंकर
२४५२. ज्येष्ठ शु. ५. पन्यास पद्मविजय गणी.
में आ प्राकृत मंजूषानी कुंची 'प्राकृतरूपमाला', भसद्धर्मकर्मपरायण पाटण झवेरीवाडानिवासी ओ-5
शवालवंशविभूषण तपागच्छीय शेठ त्रीकमलाल, जनहालचन्दे पोताना सद्गत पुत्र माणेकलालभाइना
स्मरणार्थ छपावी छे. तेनी कीमतमांथी बीजा पण म कीमती पुस्तको छपाय अने साहित्यनो बहोळो
प्रचार थाय एटलाज पुरती जूज कीमत राखवामां 5 आवी छे.
ली० श्री जैनग्रंथप्रकाशकसभा.
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