Book Title: Prakrit Mahakavyo me Dhyanitattva
Author(s): Ranjan Suridev
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 2
________________ -तीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - की तरह चमकने वाला लावण्य या लुनाई कुछ और ही होती है। कार्य है, उसके करने में विकृति प्रकृति बन जाती है। कुलस्त्रियों के लिए जिस प्रकार लुनाई प्रत्यक्ष न होकर प्रतीयमान होती है, उसी गृहकार्य से विमुख होना ही अनुचित है, यही यहाँ ध्वनि है, जो प्रकार ध्वनि या व्यंग्य की प्रतीति होती है-- वाच्यार्थ से सर्वथा भिन्न या तिरस्कृत होने के कारण अत्यंततिरस्कृतवाच्य प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम्। ध्वनि है। इसे वस्तु से वस्तुध्वनि या वाच्यार्थ का रूपान्तर होने यत्तत्प्रसिद्धावयवतिरिक्तं विभाति लावण्यमिवाङ्गनासु। से अर्थान्तर-संक्रमितवाच्यध्वनि भी कह सकते हैं। (ध्वन्यालोकः कारिका सं. ४) घण्टा बजाने के बाद उससे निकली रनरनाहटी की जो ध्वनिवादी साहित्यशास्त्रियों ने अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य ध्वनि के सूक्ष्म आवाज गूंजती है, वही ध्वनि है। इसी प्रकार काव्य की उदाहरण में गाहासत्तसई की इसगाथा को बहश: संदर्भित किया है- ध्वनि वाच्य अर्थ से निकले भिन्न अर्थ मेंहित रहती है, जिसकी भम धम्मिअ वीसत्थो सो सुणओ अज्ज मारिओ तेण। गूंज की प्रतीति सहृदयों को होती है। पाँचवीं शती के कूटस्थ गोलानईकच्छकुडंगवासिणा दरिअसीहेण।। प्राकृत महाकवि प्रवरसेन-प्रणीत सेतुबन्ध महाकाव्य के सागर (शतक २- गाथा ७५) वर्णन से संबद्ध इस गाथा में अलंकार से अनुरणित वस्तुध्वनि की मनोज्ञता द्रष्टव्य है-- इस गाथा में किसी अभिसारिका नायिका के एकान्त संकेत उक्खअदुमं व सेलं हिमहअकमलाअरं व लच्छिविमुक्कं। स्थल, गोदावरी नदी के तटवर्ती कुंज में फूल चुनने के लिए पहुँचे हुए विघ्नस्वरूप किसी धार्मिक से वह नायिका कहती है पीअमदूरं व चसअंबहुलपओसं व मुद्धचंदविरहि ।। कि हे धार्मिक! आप गोदावरी नदी के तटवर्ती कुंज में निर्भय (आश्वास २-गाथा ११) भाव से भ्रमण करें, क्योंकि आज कुंज में रहने वाले मदमस्त कवि की उत्प्रेक्षा है कि समुद्र उस पर्वत के समान लगता सिंह ने आपको तंग करने वाले कत्ते को मार डाला है। नायिका है, जिसके पेड़ उखाड़ लिए गए हैं। वह समुद्र उस श्रीहीन सरोवर के इस कथन में कुत्ते से डरने वाले धार्मिक के लिए सिंह के मारे जैसा प्रतीत होता है, जिसका कमलवन तुषार से आहत हो गया जाने का भय उत्पन्न करके कुंज में उसके भ्रमण का निषेध किया हो, वह उस प्याले के समान दिखाई पड़ता है, जिसकी मदिरा पी गया है। यहाँ विधिरूप वाच्य में प्रतिषेध रूप व्यंग्य का विनियोग ली गई हो और वह उस अंधकारपूर्ण रात्रि की तरह मालूम होता हआ है। इस गाथा में वाच्य या मुख्य अर्थ से व्यंग्य की सर्वथा है, जो मनोरम चंद्रमा से रहित हो। भिन्नता के कारण ही वाक्यगत अत्यंततिरस्कृत वाच्य ध्वनि की समुद्र के संदर्भ में महाकवि की इस उत्प्रेक्षा (अलंकार) योजना हुई है। से समुद्र के विराट और भयजनक रूप जैसी वस्तु ध्वनित या गाहासत्तसई में ही अत्यंततिरस्कृतवाच्य ध्वनि का एक व्यजित हाता है। और उदाहरण इस प्रकार है-- इसी क्रम में महाकवि प्रवरसेन द्वारा आयोजित अलंकार धरिणीए महाणसकम्मलग्नमसिमलिइएण हत्थेण। से वस्तुध्वनि का एक और मनोरम चमत्कार इस गाथा में दर्शनीय चित्तं मुहं हसिज्जइ चंदावत्थं ग पडणा।। - बन पड़ा है - (तत्रैव: शतक-१, गाथा सं. १३) ववसाअरइपओसो रोसगइंददिढसिंखलापडिबंधो। इस गाथा में एक ऐसी नायिका का चित्रण है, जिसके हाथ कह कहवि दासरहिणो जअकेसरिपंजरोगओघणसमओ।। रसोई के काम में लगे रहने के कारण मलिन हो गये हैं। उस (आश्वास १- गाथा १४) नायिका ने उन्हीं मलिन कालिख लगे हाथों से अपने मुँह को यहाँ राम के वर्षाकाल बिताने का वर्णन है। कविश्रेष्ठ छुआ है, जिससे उसके मुँह में कालिख लग गई है कालिख लगा प्रवसेन ने रूपक अलंकार के द्वारा यह निर्देश किया है कि तुम्हारा मुँह लांछन युक्त चंद्रमा के समान प्रतीत होता है। यहाँ वर्षाकाल का समय राम के पुरुषार्थ रूप सूर्य के लिए रात्रिकाल वर्षाकाल का समय राम के पकषार्थ रुपयर्य के लि विरूपता भी अलंकरण हो गई है, क्योंकि जिसका जो उचित बन गया था, उनके रोष रूप महागज के लिए मजबूत जंजीर का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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