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प्राकृत महाकाव्यों में ध्वनितत्त्व
आचार्य विश्वनाथ कविराज ने अपने प्रसिद्ध काव्यानुशासन साहित्यदर्पण में ध्वनितत्त्व से सम्पन्न काव्य को उत्तम काव्य की संज्ञा दी है। वाच्यातिशायिनि व्यङ्ग्ये ध्वनिस्त त्काव्यमुत्तम: (अध्याय ४ - कारिका १) अर्थात् वाच्य से अधिक चमत्कारजनक व्यंग्य को ध्वनि कहते हैं, और जिस काव्य में ध्वनि की प्रधानता होती है। उसे ही उत्तम काव्य कहा जाता है। वस्तुतः व्यंग्य ही ध्वनि का प्राण है। प्रसिद्ध ध्वनिप्रवर्त्तक आचार्य आनन्दवर्द्धन (नवीं शती) के अनुसार ध्वनि (ध्वन् + इ) काव्य की आत्मा है या वह एक ऐसा काव्यविशेष है, जहाँ शब्द और अर्थ अपने मुख्यार्थ को छोड़ किसी विशेष अर्थ को व्यक्त करते हैं। " वस्तुतः ध्वनि काव्य के सौंदर्यविधायक तत्त्वों में अन्यतम है।
सभी विद्याएँ व्याकरणमूलक हैं, इसलिए ध्वनि का आदिस्रोत वैयाकरणओं के स्फोट सिद्धांत में निहित है। ध्वन्यालोक की वृत्ति (१.१६ ) से स्पष्ट है कि साहित्यशास्त्रियों ने ध्वनि शब्द को वैयाकरणों से आयत्त किया है। वैयाकरणों के अनुसार स्फोट को अभिव्यक्त करने वाले वर्णों को ध्वनि कहते हैं । प्रसिद्ध वैयाकरण आचार्य भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में कहा है कि वर्णों में संयोग और वियोग, अर्थात् मिलने और हटने से जो स्फोट उत्पन्न होता है, शब्द या वर्ण जनित वही शब्द ध्वनि है । और फिर स्फोट का परिचय या परिभाषा प्रस्तुत करने के क्रम में परम प्रसिद्ध शब्दशास्त्री आचार्य भर्तृहरि ने कहा है कि शब्द के दो भेदों प्राकृत और वैकृत में प्राकृत ध्वनि स्फोट के ग्रहण में कारण है। शब्द की अभिव्यक्ति से जो आवाज होती है, वह कृत ध्वनि है और वह भी स्फोटस्वरूप ही है। वस्तुतः ध्वनि और स्फोट में एकात्मता है । ४
रस की व्यंजना संभव ही नहीं है। रस अनिवार्यतः ध्वनिरूप है और रसध्वनि ही सर्वोत्तम ध्वनि है और वही काव्य की आत्मा है, 'काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति ध्वन्यालोक ।
विद्यावाचस्पति
डॉ. श्रीरंजनसूरिदेव.......
साहित्यशास्त्रियों के मतानुसार पाँच हजार तीन सौ पचपन प्रकार की ध्वनियाँ होती हैं, परंतु ध्वनि के शुद्ध भेद कुल इक्यावन हैं। इनमें भी कुल अट्ठारह ध्वनियों के बारह भेदों के अतिरिक्त शेष छह इस प्रकार हैं -- १. शब्दशक्त्युद्भव वस्तुध्वनि २. शब्दशक्त्युद्भव अलंकारध्वनि, ३. शब्दार्थशक्त्युद्भव वस्तुध्वनि, ४. असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्वनि तथा अविवक्षितवाच्य के दो भेद, ५. अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य एवं ६. अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य ध्वनि ।
प्राकृत के उत्तम महाकाव्यों में ये समस्त ध्वनिभेद गवेषणीय हैं, क्योंकि उनमें ध्वनि तत्त्व की समायोजना विशेष रूप से हुई है। तभी तो ध्वनिशास्त्रियों ने ध्वनितत्त्व की विवेचना के क्रम में प्राकृत गाथाओं को साग्रह संदर्भित किया है। आनन्दवर्द्धन और विश्वनाथ के लिए तो प्रसिद्ध प्राकृत काव्य गाहासत्तसई इस प्रसंग में विशेष उपजीव्य रहा है।
ध्वनिवादी आचार्य रस को ध्वनि का अंग मानते हैं। उन्होंने ध्वनि के मुख्यतः तीन भेदों का निर्देश किया है-वस्तुध्वनि, अलंकारध्वनि और रसादिध्वनि । आनन्दवर्द्धन ने रस को व्यंग्य कहा है, अर्थात् रस तो ध्वनि रूप ही हो सकता है, उसका कथन नहीं किया जा सकता। और फिर, ध्वनि के बिना
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ईसवी की प्रथम शती के ख्यातनामा प्राकृतकवि राजा हाल सातवाहन की प्रसिद्ध शतक - काव्यकृति 'गाहासत्तसई' शास्त्रीय महाकाव्य की परिभाषा की सीमा में यद्यपि नहीं आती है, उसकी गणना प्राकृत मुक्तककाव्य में होती है, तथापि अपनी गुणात्मक विशिष्टता से वह महाकाव्यत्व की गरिमा अवश्य ही आयत्त करती है, जिस प्रकार महाकवि कालिदास का मेघदूत काव्य खण्डकाव्य होते हुए भी अपने रसात्मक गुणवैशिष्टय से महाकाव्यत्व के मूल का अधिकारी है, इसे महाकवि माघ के शिशुपालवध की समकक्षता प्रदान कर कहा गया है, मेघे माघे गतं वयः ।
महाकवि की वाणी रूप काव्य में निहित उसके अंग रूप अलंकार आदि में व्यंग्य या ध्वनि की स्थिति उसी प्रकार होती है, जिस प्रकार सुंदरियों के प्रत्यक्ष दृश्यमान अवयवों के सौंदर्य के अतिरिक्त उन अंगों में मोती के आब या छाया की तरलता
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-तीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - की तरह चमकने वाला लावण्य या लुनाई कुछ और ही होती है। कार्य है, उसके करने में विकृति प्रकृति बन जाती है। कुलस्त्रियों के लिए जिस प्रकार लुनाई प्रत्यक्ष न होकर प्रतीयमान होती है, उसी गृहकार्य से विमुख होना ही अनुचित है, यही यहाँ ध्वनि है, जो प्रकार ध्वनि या व्यंग्य की प्रतीति होती है--
वाच्यार्थ से सर्वथा भिन्न या तिरस्कृत होने के कारण अत्यंततिरस्कृतवाच्य प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम्।
ध्वनि है। इसे वस्तु से वस्तुध्वनि या वाच्यार्थ का रूपान्तर होने यत्तत्प्रसिद्धावयवतिरिक्तं विभाति लावण्यमिवाङ्गनासु।
से अर्थान्तर-संक्रमितवाच्यध्वनि भी कह सकते हैं। (ध्वन्यालोकः कारिका सं. ४) घण्टा बजाने के बाद उससे निकली रनरनाहटी की जो ध्वनिवादी साहित्यशास्त्रियों ने अत्यन्ततिरस्कृतवाच्य ध्वनि के सूक्ष्म आवाज गूंजती है, वही ध्वनि है। इसी प्रकार काव्य की उदाहरण में गाहासत्तसई की इसगाथा को बहश: संदर्भित किया है- ध्वनि वाच्य अर्थ से निकले भिन्न अर्थ मेंहित रहती है, जिसकी भम धम्मिअ वीसत्थो सो सुणओ अज्ज मारिओ तेण।
गूंज की प्रतीति सहृदयों को होती है। पाँचवीं शती के कूटस्थ गोलानईकच्छकुडंगवासिणा दरिअसीहेण।।
प्राकृत महाकवि प्रवरसेन-प्रणीत सेतुबन्ध महाकाव्य के सागर (शतक २- गाथा ७५)
वर्णन से संबद्ध इस गाथा में अलंकार से अनुरणित वस्तुध्वनि
की मनोज्ञता द्रष्टव्य है-- इस गाथा में किसी अभिसारिका नायिका के एकान्त संकेत
उक्खअदुमं व सेलं हिमहअकमलाअरं व लच्छिविमुक्कं। स्थल, गोदावरी नदी के तटवर्ती कुंज में फूल चुनने के लिए पहुँचे हुए विघ्नस्वरूप किसी धार्मिक से वह नायिका कहती है
पीअमदूरं व चसअंबहुलपओसं व मुद्धचंदविरहि ।। कि हे धार्मिक! आप गोदावरी नदी के तटवर्ती कुंज में निर्भय
(आश्वास २-गाथा ११) भाव से भ्रमण करें, क्योंकि आज कुंज में रहने वाले मदमस्त
कवि की उत्प्रेक्षा है कि समुद्र उस पर्वत के समान लगता सिंह ने आपको तंग करने वाले कत्ते को मार डाला है। नायिका है, जिसके पेड़ उखाड़ लिए गए हैं। वह समुद्र उस श्रीहीन सरोवर के इस कथन में कुत्ते से डरने वाले धार्मिक के लिए सिंह के मारे जैसा प्रतीत होता है, जिसका कमलवन तुषार से आहत हो गया जाने का भय उत्पन्न करके कुंज में उसके भ्रमण का निषेध किया हो, वह उस प्याले के समान दिखाई पड़ता है, जिसकी मदिरा पी गया है। यहाँ विधिरूप वाच्य में प्रतिषेध रूप व्यंग्य का विनियोग ली गई हो और वह उस अंधकारपूर्ण रात्रि की तरह मालूम होता हआ है। इस गाथा में वाच्य या मुख्य अर्थ से व्यंग्य की सर्वथा है, जो मनोरम चंद्रमा से रहित हो। भिन्नता के कारण ही वाक्यगत अत्यंततिरस्कृत वाच्य ध्वनि की समुद्र के संदर्भ में महाकवि की इस उत्प्रेक्षा (अलंकार) योजना हुई है।
से समुद्र के विराट और भयजनक रूप जैसी वस्तु ध्वनित या गाहासत्तसई में ही अत्यंततिरस्कृतवाच्य ध्वनि का एक व्यजित हाता है। और उदाहरण इस प्रकार है--
इसी क्रम में महाकवि प्रवरसेन द्वारा आयोजित अलंकार धरिणीए महाणसकम्मलग्नमसिमलिइएण हत्थेण। से वस्तुध्वनि का एक और मनोरम चमत्कार इस गाथा में दर्शनीय चित्तं मुहं हसिज्जइ चंदावत्थं ग पडणा।।
- बन पड़ा है - (तत्रैव: शतक-१, गाथा सं. १३)
ववसाअरइपओसो रोसगइंददिढसिंखलापडिबंधो। इस गाथा में एक ऐसी नायिका का चित्रण है, जिसके हाथ कह कहवि दासरहिणो जअकेसरिपंजरोगओघणसमओ।। रसोई के काम में लगे रहने के कारण मलिन हो गये हैं। उस
(आश्वास १- गाथा १४) नायिका ने उन्हीं मलिन कालिख लगे हाथों से अपने मुँह को यहाँ राम के वर्षाकाल बिताने का वर्णन है। कविश्रेष्ठ छुआ है, जिससे उसके मुँह में कालिख लग गई है कालिख लगा प्रवसेन ने रूपक अलंकार के द्वारा यह निर्देश किया है कि तुम्हारा मुँह लांछन युक्त चंद्रमा के समान प्रतीत होता है। यहाँ
वर्षाकाल का समय राम के पुरुषार्थ रूप सूर्य के लिए रात्रिकाल
वर्षाकाल का समय राम के पकषार्थ रुपयर्य के लि विरूपता भी अलंकरण हो गई है, क्योंकि जिसका जो उचित बन गया था, उनके रोष रूप महागज के लिए मजबूत जंजीर का
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रव्य - जैन आगम एवं साहित्य - बंधन हो गया था और उनके विजय रूप सिंह के लिए पिंजड़ा कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध वस्तु है। इसी कवि-कल्पित वस्तु में बन गया था। अर्थात्, वर्षावास की अवधि में राम न तो पुरुषार्थ मार्कण्डेयपुराण में वर्णित निद्रारूप में संस्थित भगवती दुर्गा की का प्रदर्शन कर सकते थे, न ही अपना रोष व्यक्त कर सकते थे स्तुति की ओर भी सहज संकेत हुआ है-'या देवी सर्वभूतेषु और न विजय के लिए अभियान ही कर सकते थे। अतएव निद्रारूपेण संस्थिता।' महाकवि के इस वर्णन में रूपक अलंकार के माध्यम से राम
वप्पइराअ के द्वारा उपस्थित वस्तु से वस्तु ध्वनि का एक की किंकर्तव्यविमूढता रूप वस्तु की व्यंजना हुई है, जो अलंकार
रमणीय उदाहरण द्रष्टव्य है-- से वस्तुध्वनि का उदाहरण है।
अद्रेण सरीरेण च्चिअणवर ससिसेहरस्स तं वससि। वाक्यतिराज (प्रा. वप्पइराअ) आठवीं शती के प्राकृत
हिअए उण से संकरितुह अविहाएण ओआसो।। महाकवियों में पांक्तेय हैं। इनके कालोत्तीर्ण महाकाव्य गउडवहो
____ (तत्रैव,गाथा २९२) में ध्वनि तत्त्वों का भूरिशः विनियोग, विविधता और बहुलता
इस गाथा में महाकवि के कथन का अर्थ यह है कि दोनों दृष्टियों से हुआ है। महाकवि के इस काव्य में अलंकार से
भगवती (विन्ध्यवासिनी) बाह्य रूप से भले ही अर्धनारीश्वर वस्तुध्वनि और वस्तु से अलंकार ध्वनि की विशेष आयोजना
शिव के आधे शरीर में वास करती है, परंतु उनके हृदय में तो वह की गई है। यहाँ अलंकार से अर्थशक्त्युद्भव वस्तुध्वनि से युक्त
समग्र रूप से निवास करती है। यहाँ हृदय में समग्रतया निवास एक गाथा उपन्यस्त है -
रूप वस्तु से 'शिव के प्रति भगवती का अनुरागधिक्य रूप गणवइणो सइ संगअगोरी हरपेम्म राअ विलिअस्स।
वस्तु ध्वनित होती है। इसमें वाच्यार्थ विवक्षित या वांछित होकर दंतो वाम मुहद्धंत पुंजिओ जउइ हासो व्व।।
अनुरागाधिक्य रूप व्यंग्यार्थ का बोधक है। इसलिए इसमें
विवक्षितान्यपरवाच्य ध्वनि है। इसमें वाच्यार्थ का न तो दूसरे यहाँ महाकवि ने निर्देश किया है कि सदा साथ रहने वाले अर्थ में संक्रमण हुआ है और न सर्वथा तिरस्कार वरन् वह अपने माता-पिता पार्वती और शिव के प्रेम और अनुराग से विवक्षित है। लजीले गणेश का दाँत उनके मनोहर मुख की कोर पर संचित या
कहना न होगा कि गउडवहो की विन्ध्यवासिनी-स्तुति में पूंजीभूत हास की तरह प्रतीत होता है। प्रस्तुत संदर्भ में हासोव्व
वाच्यातिशायी व्यंग्य की प्रधानता प्रायः प्रत्येक गाथा में परिलक्षित इस उपमा (अलंकार) द्वारा गणेश की सर्वांगगौरतारूप वस्तु होती है, जो गउडवहो में ध्वनितत्त्व के अनसन्धित्सओं को साग्रह ध्वनित है।
आमंत्रित करती है। इसी क्रम में महाकवि वप्पइराअ की वाक्यगत कवि -
ध्वनि तत्त्व की समृद्धि की दृष्टि से विक्रम की बारहवीं प्रौढोक्तिमात्रसिद्ध वस्तु से अलंकार ध्वनि की एक मनोहारी योजना
शती के महाकवि आचार्य हेमचन्द्र का द्वयाश्रय महाकाव्य इस गाथा में द्रष्टव्य है
कुमारबालचरियं तो सविशेष रूप से उल्लेखनीय है। यहाँ आचार्य णिद्दारूवेण पअंणिमेसि जण लोअणेसु तं चेअ।
महाकवि के द्वारा प्रस्तुत वाक्यगत कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध अलंकार पडिबोहे जेण सजावअ व्व लक्खिज्जए दिट्ठी।
से अलंकार ध्वनि का एक उदाहरण विन्यस्त है। (विन्ध्यवासिनी स्तुति- गाथा २९६)
जस्सि सकलंकं विहु रयणी रमणं कुणंति अकलंक। यहाँ, सोकर जागने पर दिखाई पड़ने वाली आँखों की
संखधर संख भंगोज्जलाओ भवणंसु भंगीओ।। लाली के बारे में कवि की कल्पना है कि आंखों में निद्रारूपी
(सर्ग १- गाथा, सं. १६) भगवती के महावर लगे पैर रखने से उनमें लालिमा आ गई है। इस प्रसंग में लाक्षारंजितचरणा निद्रा रूपी भगवती के पदक्षेप के
अर्थात्, राजा कुमारपाल की राजधानी अणहिलपुर के कारण ही आँखों के रंजित होने की उत्प्रेक्षा, वस्तु से अलंकार
___ भवनों में जड़े हुए रत्नों की कान्ति सकलंक चन्द्र को भी । ध्वनि का उदाहरण है और भगवती का नेत्र में प्रवेश वाक्यगत ।
निष्कलंक बनाती है। यहाँ वाक्यगत वर्णन में उपमान चन्द्र की Parivaridabrdairdrobraduardiadritonidroidniridroid[११९HAdmiridnirbiddroid-bbinabrdwordwardrobarbar
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यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य
अपेक्षा उपमेय रत्नकान्ति को श्रेष्ठ बताने वाले व्यतिरेक अलंकार के माध्यम से 'अणहिलपुर की समृद्धि का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन' रूप अतिशयोक्ति अलंकार ध्वनित है। साथ ही सकलंक चंद्र को निष्कलंक बनाने की बात कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध वस्तु है।
आचार्य महाकवि द्वारा आयोजित पदगत अत्यंततिरस्कृत या अविवक्षितवाच्य ध्वनि का हृदयावर्जक उदाहरण निम्नांकित गाथा में दर्शनीय है-
जत्थ भवणाण अवरं देवं नागेहिं विम्या दिट्ठो । रमइ मणोसिलगोरो मणसिललित्तो मयच्छिजणो ॥
( सर्ग १, गाथा सं. १३ )
यहाँ कवि के वक्तव्य का आशय यह है कि अणहिलनगर गनचुंबी भवनों के ऊपर क्रीडारत देवागंनास्वरूप चपलनयना सुंदरियों या राजवधुओं को देव और नागकुमार विस्मयान्वित होकर देख रहे थे। वे सुंदरियां' मैनसिल धातु की तरह गोरी थीं और उनका गोरा शरीर मैनसिल के विलेपन से युक्त था ।
इस प्रसंग में महाकवि द्वारा प्रयुक्त मयच्छिजणो (मृगादिजन: अथवा मदाक्षिजनः) शब्द या पद में अध्यवसित उपमेय चंचल या मदविह्वल आंखों का झटिति बोध हो जाता है। मयच्छि शब्द या पद के अपना मुख्य अर्थ छोड़कर हरिण की तरह चंचल या मद से घूर्णमान आँख का अर्थ देने से जहत्स्वार्था लक्षणा है। यहाँ अत्यंततिरस्कृतवाच्य से यह ध्वनि निकलती है कि सुंदरियों की मनोज्ञ आँखें हरिण की आँखों की तरह आयत एवं चंचल या फिर मदालय होने के कारण दर्शनीय है और मयच्छि में व्यंजना के गर्भित होने के कारण यह पदगत श्लेष की अलंकारध्वनि का भी उदाहरण है।
आचार्य हेमचंद्र द्वारा उपस्थित संलक्ष्यक्रम रसध्वनि का एक निदर्शन दर्शनीय है
-
जण गमेपि गमेपिणु जन्हवि गम्पि सरस्सइ गम्पिणु नम्मद । लोड अजाण जं जलिबुड्डु | नं पसु किं नीरइ सिव सम्मद ॥
(तत्रैव, ८.८० ) अर्थात् गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा आदि नदियों में स्नान करने से यदि शुद्धि हो तो महिष आदि पशुओं की भी शुद्धि
हो जानी चाहिए, क्योंकि वे भी इन नदियों में डुबकी लगाते ही रहते हैं। जो लोग अज्ञानतापूर्वक इन नदियों में स्नान तो करते हैं, पर अपने आचार-विचार को शुद्ध नहीं करते, उन्हें 'कुछ भी लाभ नहीं हो सकता।
प्रस्तुत प्रसंग में महाकवि की काव्यभाषिक उक्ति में व्यंग्य रूप से शान्तरस की प्रतीति होती है। और फिर, स्नान के बाद मुक्ति का क्रम भी यहाँ लक्षित रहा है, साथ ही वाच्यार्थ - बोधपूर्वक ध्वनिरूप में शान्तरस भी अभियंजित है।
नवीं दसवीं शती के प्रख्यात महाकवि कोऊहल ने अपने रोमानी अथवा कल्पनाप्रधान लीलावई महाकाव्य में ध्वनि तत्त्व के अनेक अनुशीलनीय आयामों की उपस्थापना की है। युद्ध राजा सातवाहन की प्रशस्ति में लिखित निम्नांकित गाथा में महाकवि द्वारा विनियुक्त अभिधामूलक, यानी विवक्षितान्य-परवाच्य रसध्वनि की मनोरमता अतिशय मोहक है-
णिय तेय पसाहिय मंडलस्स ससिणो व्व जस्स लोएन । अक्कंत जयस्स जए पट्टी न परेहि सच्चविया ॥ ( लीलावई - गाथा सं. ६९ ) महाकवि का कथन है कि उस प्रतापी राजा सातवाहन ने अपने पराक्रम से समस्त संसार को जीत लिया है, पर शत्रुओं ने उसकी पीठ उसी प्रकार नहीं देखी है, जिस प्रकार अपने तेज के प्रकाश से संसार को धवलित करने वाले चंद्रमा का पृष्ठभाग किसी से नहीं देखा है । यहाँ चंद्रमा का पृष्ठभाग उपमान है और राजा का पृष्ठभाग उपमेय । इसी प्रकार चंद्रमा और राजा के तेज में भी उपमानोपमेय भाव है। इस चारुतापूर्ण उपमान और उपमेय के आयोजन द्वारा महाकवि कोऊहल ने यहाँ राजा की अतिशय पराक्रमशीलता रूप वीररस की ध्वनि का विन्यास किया है। इसे उपमा अलंकार से राजा के शौर्य रूप वस्तु की ध्वनि, अर्थात् अलंकार से वस्तुध्वनि का उदाहरण भी माना जा सकता है। इसमें वाच्यार्थ विवक्षित या वांछित होकर अन्यपर अर्थात् व्यंग्यार्थ का बोधक है। इसके वाच्यार्थ का न तो दूसरे अर्थ में संक्रमण होता है, और न सर्वथा तिरस्कार, बल्कि वह विवक्षित रहता है, इसलिए यह अभिधामूलक या विवक्षितान्यपरवाच्य ध्वनि का उदाहरण है ।
'लीलावई कहा' में ध्वन्यात्मक, अलंकृत और रसमय वर्णनों का बाहुल्य है। निम्नांकित गाथा में भ्रांतिमान अलंकार
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यतीन्द्र सुरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य से वस्तुध्वनि की आवर्जकता द्रष्टव्य है--
___ यहाँ, (क) कीर्ति का अमथित दुग्ध के समान श्वेत होना घर सिर पसुत्त कामिणि कवोल संकंत ससिकला वलयं।
रूप कविप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु से राजा के निष्कलंक गुणों से हंसेहि अहिलसिज्जइ मुणाल सद्धालुएहि जहिं।।
मण्डित व्यक्तित्व रूप वस्तु की ध्वनि है। गौणी लक्षणा से
इसका ध्वन्यर्थ होगा कि राजा के आचार और विचार सर्वतो (गाथा सं. ६०)
विशुद्ध हैं। पुनः (ख) अचेतन तेज और प्रताप की उष्णता से यहाँ रससिद्ध कवि ने भवन की छत पर सोई हुई कामिनियों अचेतन कीर्तिपुष्प का मुरझाना (पचाव धम्मट्टिआरि जस कुसुम) का चित्रण किया है, जिनके कपोलों में प्रतिबिम्बित चंद्रकला सम्भव नहीं। यहाँ मख्यार्थ बाधित है। गौणी लक्षणा से इसका को मृणाल समझकर हंस उसे प्राप्त करना चाहता है। यहाँ हंस ध्वन्यर्थ होगा कमार पाल के रोब-रुआब के सामने दशार्णनरेश को चंद्रकला में मृणाल का भ्रम हो रहा है। अतः भ्रांतिमान का रोब-रुआब बहत घटकर है। और फिर (ग) नगर के समद्र अलंकार के माध्यम से कवि ने कामिनियों के कपोलों की (पर जलही) होने में मख्यार्थ की बाधा है। इसका गौणी लक्षणा सौंदर्यातिशयता रूप वस्तु संकेतित की है, जो अलंकार से वस्तु से अर्थ होगा दशार्णनपति का नगर वहाँ के अतिशय धनाढ्य ध्वनि का उदाहरण है।
नागरिकों द्वारा संचित मणिरत्नों से परिपूर्ण है इसलिए वह नगर __ इसी क्रम में व्यतिरेक अलंकार के माध्यम से वस्तु की रत्नाकार या समुद्र के समान है, यही ध्वनि है। चूंकि इस वर्णन ध्वनि का एक और मनोहारी उदाहरण द्रष्टव्य है--
में महाकवि द्वारा आयोजित सभी ध्वनियाँ स्वतंत्र हैं, इसलिए
ध्वनियों की संसृष्टि हुई है। जस्स पिय बंधत्वेहि व चउवयण विणिग्गएहिवेएहि। एक्क वदरणारविंदट्टिएहिं बहमण्णिओ अप्पा।
अंत में यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि प्राकृत के
(गाथा सं. २१) महाकवियों ने अपने उत्तम महाकाव्यों में ध्वनितत्त्व को आग्रहपूर्वक अर्थात् (बहुलादित्य के) प्रिय बंधत्वों ने ब्रह्मा के चार
प्रतिष्ठित किया है। इसके लिए उन्होंने जिस काव्यभाषा को अपनाया मुखों से निकले चारों वेदों को उसके एक ही मुख में स्थित होने
है, उसमें पदे-पदे अर्थध्वनि और भावध्वनि का चमत्कारक से अपने को कृतार्थ समझा।
विनिवेश उपलब्ध हो जाता है। सच पूछिए तो प्राकृत महाकवियों
की काव्यभाषा ही अपने विनियोग-वैशिष्ट्य से ध्वन्यात्मक यहाँ ब्रह्मा के चार मुखों से निकले चारों वेदों की बहुलादित्य
बन गई है। चमत्कारी अर्थाभिव्यक्ति के कारण प्राकृत के प्रायः के एक ही मुख में अवस्थितिरूप व्यतिरेक अलंकार से उस
सभी महाकाव्य ध्वनिकाव्य में परिगणनीय हैं। विशेषतया सेतुबंध वेदज्ञ की प्रकाण्ड विद्वत्ता रूप वस्तु ध्वनित है।
और द्वयाश्रय महाकाव्य कुमार वालचरिय आदि तो ध्वनितत्त्व के ध्वनियों के संकर और संसृष्टि का भी प्राकृत महाकाव्यों अनशीलन और परिशीलन की दृष्टि से उपादेय आकरग्रन्थ हैं। में प्राचुर्य है। जब एक ध्वनि में अन्य ध्वनियाँ नीर में क्षीर की
वस्तुतः प्राचीन शास्त्रीय प्राकृत महाकाव्यों में प्रतिपादित भाँति मिल जाती है, तब ध्वनिसंकर होता है और जब तिल और
ध्वनितत्त्व का अध्ययन एक स्वतंत्र शोधप्रबंध का विषय है। तण्डुल की भाँति मिलती हैं, तब ध्वनि-संसृष्टि होती है। ध्वनिसंसृष्टि
इस शोध-निबंध में तो प्राकृत के प्रमुख शास्त्रीय महाकाव्यों में का एक उदाहरण द्रष्टव्य है--
प्राप्य ध्वनित्तत्व की इंगिति मात्र प्रस्तुत की गई है। अणकढिअ युद्ध सुइ जस पथाव धम्मट्टिआरिजसकुसुम। तुह गंठिअवहेणं विरोलिओ तस्स पुर जलही।
सन्दर्भ __ (कुमारबालचरिय- ६.८१) १. (क) योऽर्थः सहृदयश्लाघ्यः काव्यात्मेति व्यवस्थितः ।। इस गाथा में दशार्णपति-विजय के बाद प्रतापी राजा कुमार ध्वन्यालोक,उद्योत १, कारिका - २ पाल की सेनाओं द्वारा उसकी नगरी को लूट लिए जाने का (ख) यत्रार्थः शब्दो वा तमर्थमपसर्जनीकतस्वार्थी। वर्णन है।
rariwariorionitorinthindiaidivositoriramidnindia-[१२१dminionindmoniudrabinshirbirdisariwastavar
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________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्ध - जैन आगम एवं साहित्य - व्यङ्क्तः काव्यविशेषः स ध्वनिरिति सूरिभिः कथितः। - स स्फोटः शब्दजः शब्दो ध्वनिरित्युच्यते बुधैः / / - तत्रैव, कारिका 13 वाक्यपदीय, प्रथम काण्ड / 2. प्रथमे हि विद्वांसो वैयाकरणाः व्याकरणमूलत्वात् 4. स्फोटस्य ग्रहणे हेतुः प्राकृतो ध्वनिरिष्यते / सर्वविद्यानाम्।। ते च श्रूयमाणेष वर्णेष ध्वनिरिति व्यवहरन्ति। शब्दस्योर्ध्वमभिव्यक्तेर्वृत्तिभेदे तु वैकृताः // . - तत्रैव ध्वनयः समुपोहन्ते स्फोटात्मा तैनभिद्यते / / तत्रैव 3. यं संयोगवियोगाभ्यां करणैरुपजायते / 5. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य - ध्वन्यालोक, द्वितीय उद्योत तथा साहित्यदर्पण, चतर्थ परिच्छेद /