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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रव्य - जैन आगम एवं साहित्य - बंधन हो गया था और उनके विजय रूप सिंह के लिए पिंजड़ा कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध वस्तु है। इसी कवि-कल्पित वस्तु में बन गया था। अर्थात्, वर्षावास की अवधि में राम न तो पुरुषार्थ मार्कण्डेयपुराण में वर्णित निद्रारूप में संस्थित भगवती दुर्गा की का प्रदर्शन कर सकते थे, न ही अपना रोष व्यक्त कर सकते थे स्तुति की ओर भी सहज संकेत हुआ है-'या देवी सर्वभूतेषु और न विजय के लिए अभियान ही कर सकते थे। अतएव निद्रारूपेण संस्थिता।' महाकवि के इस वर्णन में रूपक अलंकार के माध्यम से राम
वप्पइराअ के द्वारा उपस्थित वस्तु से वस्तु ध्वनि का एक की किंकर्तव्यविमूढता रूप वस्तु की व्यंजना हुई है, जो अलंकार
रमणीय उदाहरण द्रष्टव्य है-- से वस्तुध्वनि का उदाहरण है।
अद्रेण सरीरेण च्चिअणवर ससिसेहरस्स तं वससि। वाक्यतिराज (प्रा. वप्पइराअ) आठवीं शती के प्राकृत
हिअए उण से संकरितुह अविहाएण ओआसो।। महाकवियों में पांक्तेय हैं। इनके कालोत्तीर्ण महाकाव्य गउडवहो
____ (तत्रैव,गाथा २९२) में ध्वनि तत्त्वों का भूरिशः विनियोग, विविधता और बहुलता
इस गाथा में महाकवि के कथन का अर्थ यह है कि दोनों दृष्टियों से हुआ है। महाकवि के इस काव्य में अलंकार से
भगवती (विन्ध्यवासिनी) बाह्य रूप से भले ही अर्धनारीश्वर वस्तुध्वनि और वस्तु से अलंकार ध्वनि की विशेष आयोजना
शिव के आधे शरीर में वास करती है, परंतु उनके हृदय में तो वह की गई है। यहाँ अलंकार से अर्थशक्त्युद्भव वस्तुध्वनि से युक्त
समग्र रूप से निवास करती है। यहाँ हृदय में समग्रतया निवास एक गाथा उपन्यस्त है -
रूप वस्तु से 'शिव के प्रति भगवती का अनुरागधिक्य रूप गणवइणो सइ संगअगोरी हरपेम्म राअ विलिअस्स।
वस्तु ध्वनित होती है। इसमें वाच्यार्थ विवक्षित या वांछित होकर दंतो वाम मुहद्धंत पुंजिओ जउइ हासो व्व।।
अनुरागाधिक्य रूप व्यंग्यार्थ का बोधक है। इसलिए इसमें
विवक्षितान्यपरवाच्य ध्वनि है। इसमें वाच्यार्थ का न तो दूसरे यहाँ महाकवि ने निर्देश किया है कि सदा साथ रहने वाले अर्थ में संक्रमण हुआ है और न सर्वथा तिरस्कार वरन् वह अपने माता-पिता पार्वती और शिव के प्रेम और अनुराग से विवक्षित है। लजीले गणेश का दाँत उनके मनोहर मुख की कोर पर संचित या
कहना न होगा कि गउडवहो की विन्ध्यवासिनी-स्तुति में पूंजीभूत हास की तरह प्रतीत होता है। प्रस्तुत संदर्भ में हासोव्व
वाच्यातिशायी व्यंग्य की प्रधानता प्रायः प्रत्येक गाथा में परिलक्षित इस उपमा (अलंकार) द्वारा गणेश की सर्वांगगौरतारूप वस्तु होती है, जो गउडवहो में ध्वनितत्त्व के अनसन्धित्सओं को साग्रह ध्वनित है।
आमंत्रित करती है। इसी क्रम में महाकवि वप्पइराअ की वाक्यगत कवि -
ध्वनि तत्त्व की समृद्धि की दृष्टि से विक्रम की बारहवीं प्रौढोक्तिमात्रसिद्ध वस्तु से अलंकार ध्वनि की एक मनोहारी योजना
शती के महाकवि आचार्य हेमचन्द्र का द्वयाश्रय महाकाव्य इस गाथा में द्रष्टव्य है
कुमारबालचरियं तो सविशेष रूप से उल्लेखनीय है। यहाँ आचार्य णिद्दारूवेण पअंणिमेसि जण लोअणेसु तं चेअ।
महाकवि के द्वारा प्रस्तुत वाक्यगत कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध अलंकार पडिबोहे जेण सजावअ व्व लक्खिज्जए दिट्ठी।
से अलंकार ध्वनि का एक उदाहरण विन्यस्त है। (विन्ध्यवासिनी स्तुति- गाथा २९६)
जस्सि सकलंकं विहु रयणी रमणं कुणंति अकलंक। यहाँ, सोकर जागने पर दिखाई पड़ने वाली आँखों की
संखधर संख भंगोज्जलाओ भवणंसु भंगीओ।। लाली के बारे में कवि की कल्पना है कि आंखों में निद्रारूपी
(सर्ग १- गाथा, सं. १६) भगवती के महावर लगे पैर रखने से उनमें लालिमा आ गई है। इस प्रसंग में लाक्षारंजितचरणा निद्रा रूपी भगवती के पदक्षेप के
अर्थात्, राजा कुमारपाल की राजधानी अणहिलपुर के कारण ही आँखों के रंजित होने की उत्प्रेक्षा, वस्तु से अलंकार
___ भवनों में जड़े हुए रत्नों की कान्ति सकलंक चन्द्र को भी । ध्वनि का उदाहरण है और भगवती का नेत्र में प्रवेश वाक्यगत ।
निष्कलंक बनाती है। यहाँ वाक्यगत वर्णन में उपमान चन्द्र की Parivaridabrdairdrobraduardiadritonidroidniridroid[११९HAdmiridnirbiddroid-bbinabrdwordwardrobarbar
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