Book Title: Prakrit Mahakavyo me Dhyanitattva Author(s): Ranjan Suridev Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 5
________________ यतीन्द्र सुरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य से वस्तुध्वनि की आवर्जकता द्रष्टव्य है-- ___ यहाँ, (क) कीर्ति का अमथित दुग्ध के समान श्वेत होना घर सिर पसुत्त कामिणि कवोल संकंत ससिकला वलयं। रूप कविप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु से राजा के निष्कलंक गुणों से हंसेहि अहिलसिज्जइ मुणाल सद्धालुएहि जहिं।। मण्डित व्यक्तित्व रूप वस्तु की ध्वनि है। गौणी लक्षणा से इसका ध्वन्यर्थ होगा कि राजा के आचार और विचार सर्वतो (गाथा सं. ६०) विशुद्ध हैं। पुनः (ख) अचेतन तेज और प्रताप की उष्णता से यहाँ रससिद्ध कवि ने भवन की छत पर सोई हुई कामिनियों अचेतन कीर्तिपुष्प का मुरझाना (पचाव धम्मट्टिआरि जस कुसुम) का चित्रण किया है, जिनके कपोलों में प्रतिबिम्बित चंद्रकला सम्भव नहीं। यहाँ मख्यार्थ बाधित है। गौणी लक्षणा से इसका को मृणाल समझकर हंस उसे प्राप्त करना चाहता है। यहाँ हंस ध्वन्यर्थ होगा कमार पाल के रोब-रुआब के सामने दशार्णनरेश को चंद्रकला में मृणाल का भ्रम हो रहा है। अतः भ्रांतिमान का रोब-रुआब बहत घटकर है। और फिर (ग) नगर के समद्र अलंकार के माध्यम से कवि ने कामिनियों के कपोलों की (पर जलही) होने में मख्यार्थ की बाधा है। इसका गौणी लक्षणा सौंदर्यातिशयता रूप वस्तु संकेतित की है, जो अलंकार से वस्तु से अर्थ होगा दशार्णनपति का नगर वहाँ के अतिशय धनाढ्य ध्वनि का उदाहरण है। नागरिकों द्वारा संचित मणिरत्नों से परिपूर्ण है इसलिए वह नगर __ इसी क्रम में व्यतिरेक अलंकार के माध्यम से वस्तु की रत्नाकार या समुद्र के समान है, यही ध्वनि है। चूंकि इस वर्णन ध्वनि का एक और मनोहारी उदाहरण द्रष्टव्य है-- में महाकवि द्वारा आयोजित सभी ध्वनियाँ स्वतंत्र हैं, इसलिए ध्वनियों की संसृष्टि हुई है। जस्स पिय बंधत्वेहि व चउवयण विणिग्गएहिवेएहि। एक्क वदरणारविंदट्टिएहिं बहमण्णिओ अप्पा। अंत में यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि प्राकृत के (गाथा सं. २१) महाकवियों ने अपने उत्तम महाकाव्यों में ध्वनितत्त्व को आग्रहपूर्वक अर्थात् (बहुलादित्य के) प्रिय बंधत्वों ने ब्रह्मा के चार प्रतिष्ठित किया है। इसके लिए उन्होंने जिस काव्यभाषा को अपनाया मुखों से निकले चारों वेदों को उसके एक ही मुख में स्थित होने है, उसमें पदे-पदे अर्थध्वनि और भावध्वनि का चमत्कारक से अपने को कृतार्थ समझा। विनिवेश उपलब्ध हो जाता है। सच पूछिए तो प्राकृत महाकवियों की काव्यभाषा ही अपने विनियोग-वैशिष्ट्य से ध्वन्यात्मक यहाँ ब्रह्मा के चार मुखों से निकले चारों वेदों की बहुलादित्य बन गई है। चमत्कारी अर्थाभिव्यक्ति के कारण प्राकृत के प्रायः के एक ही मुख में अवस्थितिरूप व्यतिरेक अलंकार से उस सभी महाकाव्य ध्वनिकाव्य में परिगणनीय हैं। विशेषतया सेतुबंध वेदज्ञ की प्रकाण्ड विद्वत्ता रूप वस्तु ध्वनित है। और द्वयाश्रय महाकाव्य कुमार वालचरिय आदि तो ध्वनितत्त्व के ध्वनियों के संकर और संसृष्टि का भी प्राकृत महाकाव्यों अनशीलन और परिशीलन की दृष्टि से उपादेय आकरग्रन्थ हैं। में प्राचुर्य है। जब एक ध्वनि में अन्य ध्वनियाँ नीर में क्षीर की वस्तुतः प्राचीन शास्त्रीय प्राकृत महाकाव्यों में प्रतिपादित भाँति मिल जाती है, तब ध्वनिसंकर होता है और जब तिल और ध्वनितत्त्व का अध्ययन एक स्वतंत्र शोधप्रबंध का विषय है। तण्डुल की भाँति मिलती हैं, तब ध्वनि-संसृष्टि होती है। ध्वनिसंसृष्टि इस शोध-निबंध में तो प्राकृत के प्रमुख शास्त्रीय महाकाव्यों में का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-- प्राप्य ध्वनित्तत्व की इंगिति मात्र प्रस्तुत की गई है। अणकढिअ युद्ध सुइ जस पथाव धम्मट्टिआरिजसकुसुम। तुह गंठिअवहेणं विरोलिओ तस्स पुर जलही। सन्दर्भ __ (कुमारबालचरिय- ६.८१) १. (क) योऽर्थः सहृदयश्लाघ्यः काव्यात्मेति व्यवस्थितः ।। इस गाथा में दशार्णपति-विजय के बाद प्रतापी राजा कुमार ध्वन्यालोक,उद्योत १, कारिका - २ पाल की सेनाओं द्वारा उसकी नगरी को लूट लिए जाने का (ख) यत्रार्थः शब्दो वा तमर्थमपसर्जनीकतस्वार्थी। वर्णन है। rariwariorionitorinthindiaidivositoriramidnindia-[१२१dminionindmoniudrabinshirbirdisariwastavar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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