Book Title: Prachin Jaingamo me Charvak Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf

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Page 2
________________ प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतिकरण एवं समीक्षा : 47 देसोक्कल सन्चोक्कल के नाम से भौतिवादियों के पाँच प्रकारों का उल्लेख है, वह अन्यत्र किसी भी भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार 'सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध एवं राजप्रश्नीय में चार्वाक दर्शन की स्थापना और खण्डन दोनों के लिए जो तर्क प्रस्तुत किये गये हैं वे भी महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्राकृत आगमिक-व्याख्या साहित्य में मुख्यतः 'विशेषावश्यकभाष्य (छठी शती) के 'गणधरवाद में लगभग 500 गाथाओं में भौतिकवादी चार्वाक दर्शन की विभिन्न अवधारणाओं की जो समीक्षा महावीर और गौतम आदि 11 गणधरों के मध्य हुए वाद-विवाद के रूप में प्रस्तुत की गई है, वह भी दार्शनिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। अन्य आगमिक संस्कृत टीकाओं (10वीं-11वीं शती ) में भी चार्वाक दर्शन की जैन दार्शनिकों द्वारा की गई समीक्षाओं की दृष्टि से महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध है। इन आगमों की प्राकृत एवं संस्कृत आगमिक व्याख्याओं, यथा-नियुक्ति, भाष्यचूर्णि, वृत्ति, टीका आदि के अतिरिक्त जैन दार्शनिक ग्रन्थों में भी भौतिकवादी जीवन- दृष्टि की समीक्षाएँ उपलब्ध है। किन्तु इन सबको तो किसी एक स्वतन्त्र ग्रन्थ में ही समेटा जा सकता है। अतः इस निबन्ध की सीमा मर्यादाओं का ध्यान रखते हुए हम अपनी विवेचना को पूर्व निर्देशित प्राचीन स्तर के प्राकृत आगमों तक ही सीमित रखेंगे। 'आचारांग' में लोकसंज्ञा के रूप में लोकयत दर्शन का निर्देश जैन आगमों में 'आचारांग' का प्रथम श्रुतस्कन्ध अतिप्राचीन माना जाता है। विद्वानों में ऐसी मान्यता है कि इस ग्रन्थ में स्वयं महावीर के वचनों का संकलन हुआ है। इसका रचनाकालचौथी-पाँचवीं शताब्दी ई0 प० माना जाता है। 'आचारांग में स्पष्ट रूप से लोकायत दर्शन का उल्लेख तो नहीं है किन्तु इस ग्रन्थ की समीक्षा की गई है। सूत्र के प्रारम्भ में कहा गया है कि कुछ लोगों को यह ज्ञात नहीं होता कि मेरी आत्मा औपपातिक ( पुर्नजन्म करने वाली) है। मैं कहाँ से आया हूँ और यहाँ से अपना जीवन समाप्त करके कहाँ जन्म ग्रहण करूँगा ? सत्रकार कहता है कि व्यक्ति को यह जानना चाहिए कि मेरी आत्मा औपपाति (पुनर्जन्म ग्रहण करने वाली ) है जो इन दिशाओं और विदिशाओं में संचरण करती है और वही 'मैं हूँ, वस्तुतः जो यह जानता है वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है। इस प्रकार इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में चार्वाक दर्शन की मान्यताओं के विरुद्ध चार बातों की स्थापना की गई है -- आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद। आत्मा की स्वतन्त्र और नित्य सत्ता को स्वीकार करना आत्मवाद है। संसार में यथार्थ आत्मा को लोक में जन्म-मरण करने वाला समझना लोकवाद है। शुभाशुभ कर्मों को कर्ता-भोक्ता एवं परिणामी (विकारी) मानना क्रियावाद है। इसी प्रकार आचारांग में लोकसंज्ञा का परित्याग करके इन सिद्धान्तों में विश्वास करने का निर्देश दिया गया है। ज्ञातव्य है कि 'आचारांग में लोकायत या चार्वाक दर्शन का निर्देश "लोक संज्ञा" के रूप में हुआ है। यद्यपि इसमें इन मान्यताओं की समालोचना तो की गई है किन्तु उसकी कोई तार्किक भूमिका प्रस्तुत नहीं की गई है। 'सूत्रकृतांग' में लोकायत दर्शन 'आचारांग के पश्चात् 'सूत्रकृतांग का क्रम आता है। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध को भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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