Book Title: Prachin Jaingamo me Charvak Darshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf View full book textPage 6
________________ (iii) स्तेनोक्कल 'ऋषिभाषित' के अनुसार स्तेनोक्कल भौतिकवादी अन्य शास्त्रों के दृष्टान्तों को लेकर उनकी स्वपक्ष में उद्भावना करके यह कहते थे कि यह हमारा कथन है। 19 इस प्रकार ये दूसरों के सिद्धान्तों का उच्छेद करते हैं। परपक्ष के दृष्टान्तों का स्वपक्ष में प्रयोग के तात्पर्य सम्भवतः वाद-विवाद में "छल" का प्रयोग हो । सम्भवतः स्तेनोक्कल या तो नैयायिकों के कोई पूर्व रूप रहे होंगे या संजयवेलट्ठीपुत्र के सिद्धान्त का यह प्राचीन कोई विधायक रूप था, जो सम्भवतः आगे चलकर जैनों के अनेकान्तवाद का आधार बना हो । ज्ञातव्य है कि ऋषिभाषित में देहात्मवादियों के तर्कों से मुक्ति की प्रक्रिया का प्रतिपादन किया गया है। (iv) देशोक्कल 'ऋषिभाषित' में जो आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करके भी जीव को अकर्ता मानते थे उन्हें देशोक्कल कहा गया है। 20 आत्मा को अकर्ता मानने पर पुण्य-पाप बन्धन - मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन पाती है। इसलिए इस प्रकार के विचारकों को भी आंशिक रूप से उच्छेदवादी ही कहा गया है, क्योंकि पुण्य-पाप, सम्भवतः 'ऋषिभाषित' ही एक ऐसा ग्रन्थ है जो आत्म अकर्तावादियों को उच्छेदवादी कहता है। वस्तुतः ये सांख्य और औपनिषदिक वेदान्त के ही पूर्व रूप थे। जैन उन्हें उत्कूल या उच्छेदवादी इसलिए मानते थे कि इन मान्यताओं से लोकवाद ( लोक की यथार्थता) कर्मवाद (कर्म सिद्धान्त ) और आत्म कर्तावाद (क्रियावाद ) का खण्डन होता था । ( ४ ) सव्बुक्कल प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा : 51 सर्वोत्कूल सर्वदा अभाव से ही सबकी उत्पत्ति बताते थे। ऐसा कोई भी तत्त्व नहीं है जो सर्वधा सर्व प्रकार से सर्वकाल से रहता हो। इस प्रकार ये सर्वोच्छेदवाद की संस्थापना करते थे। 21 दूसरे शब्दों में जो लोग समस्त सृष्टि के पीछे किसी नित्य तत्त्व को स्वीकार नहीं करते थे और अभाव से ही सृष्टि की उत्पत्ति मानते थे वे कहते थे कि कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है जो सर्वथा और सर्वकालों में अस्तित्व रखता हो । संसार के मूल में किसी भी सत्ता को अस्वीकार करने के कारण ये सर्वोच्छेदवादी कहलाते थे । सम्भवतः यह बौद्ध ग्रन्थों में सूचित उच्दवादी दृष्टि का कोई प्राचीनतम रूप था जो तार्किकता से युक्त होकर बौद्धों के शून्यवाद के रूप में विकसित हुआ होगा । इस प्रकार 'ऋषिभाषित में आत्मा, पुनर्जन्म, धर्म-व्यवस्था एवं कर्म सिद्धान्त के अपलापक विचारकों का जो चित्रण उपलब्ध होता है उसे संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है -- 1. ग्रन्थकार उपरोक्त विचारकों को "उक्कल" नाम से अभिहित करता है जिसके संस्कृत रूप उत्कल, उत्कुल अथवा उत्कूल होते हैं, नाम देता है जिनके अर्थ होते हैं बहिष्कृत या मर्यादा का उल्लंघन करने वाला, इन विचारकों के सम्बन्ध में इस नाम का अन्यत्र कहीं प्रयोग हुआ है ऐसा हमें ज्ञात नहीं होता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13