Book Title: Prachin Jaingamo me Charvak Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_2_001685.pdf

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Page 7
________________ 52 : प्रो. सागरमल जैन 2. इसमें इन विचारकों के पाँच वर्ग बताये गये हैं --- दण्डोत्कल, रज्जत्कल, स्तेनोत्कल, देशोत्कल और सर्वोत्कल। विशेषता यह है कि इसमें स्कन्धवादियों (बौद्ध स्कन्धवाद का पूर्व रूप) सर्वोच्छेदवादियों (बौद्ध शून्यवाद का पूर्व रूप) और आत्म-अकर्तावादियों ( अक्रियावादियों-सांख्य और वेदान्त का पूर्व रूप ) को भी इसी वर्ग में सम्मिलित किया गया है क्योंकि ये सभी कर्म सिद्धान्त एवं धर्म व्यवस्था के अपलापक माने गये हैं। यद्यपि आत्म-अकर्तावादियों को देशोत्कल कहा गया है अर्थात् आंशिक रूप से अपलापक कहा गया है। 3. इसमें शरीर पर्यन्त आत्म-पर्याय मानने का जो सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है वही जैनों द्वारा आत्मा को देह परिमाण मानने के सिद्धान्त का पूर्व रूप प्रतीत होता है, क्योंकि इस ग्रन्य में शरीरात्मवाद के निराकरण के समय इस कथन के स्वपक्ष में भी प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार इसमें जैन, बौद्ध और सांख्य तथा औपनिषदिक वेदान्त की दार्शनिक मान्यताओं के पूर्व स्प या बीज परिलक्षित होते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि इन मान्यताओं को सुसंगत बनाने के प्रयास में ही इन दर्शनों का उदय हुआ हो। 4. इसमें जो देहात्मवाद का निराकरण किया गया है वह ठोस तार्किक आधारों पर स्थित नहीं है। मात्र यह कह दिया गया है कि जीव का जीवन शरीर की उत्पत्ति और विनाश की काल सीमा तक सीमित नहीं है। 'सूत्रकृतांग (द्वितीय श्रुतस्कन्ध) में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा-2 चार्वाकों अथवा तज्जीवतच्छरीरवादियों के पक्ष का तार्किक दृष्टि से प्रस्तुतीकरण और उसकी तार्किक समीक्षा का प्रयत्न जैन आगम साहित्य में सर्वप्रथम सूत्रकृतांग के द्वितीय पौडिक नामक अध्ययन में और उसके पश्चात् 'राजप्रश्नीयसूत्र में उपलब्ध होता है। अब हम 'सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध के आधार पर तज्जीवतच्छरीरवादियों के पक्ष का प्रस्तुतीकरण और उसकी समीक्षा प्रस्तुत करेंगे। तज्जीवतच्छरीरवादी यह प्रतिपादित करते हैं कि पादतल से ऊपर मस्तक के केशों के अग्रभाग से नीचे तथा समस्त त्वक्पर्यन्त जो शरीर है वही जीव है। इस शरीर के जीवित रहने तक ही यह जीव जीवित रहता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर नष्ट हो जाता है। इसलिए शरीर के अस्तित्वपर्यन्त ही जीवन का अस्तित्त्व है। इस सिद्धान्त को युक्तियुक्त समझना चाहिए। क्योंकि जो लोग युक्तिपूर्वक यह प्रतिपादित करते हैं कि शरीर अन्य है और जीव अन्य है, वे जीव और शरीर को पृथक-पृथक करके नहीं दिखा सकते। वे यह भी नहीं बता सकते कि आत्मा दीर्घ है या हस्व है। वह परिमण्डलाकार अथवा गोल है। वह किस वर्ण और किस गन्ध से युक्त है अथवा वह भारी है, हल्का है, स्निग्ध है या रुक्ष है। अतः जो लोग जीव और शरीर को भिन्न नहीं मानते उनका ही मत युक्तिसंगत है क्योंकि जीव और शरीर को निम्नोक्त पदार्थों की तरह पृथक-पृथक करके नहीं दिखाया जा सकता, यथा --- 1. तलवार और म्यान की तरह, 2. मुंज और इषिका की तरह, 3. मांस और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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